अफसोस होता है ये सोचकर कि आज सियासत को शोक में डूबा होना चाहिए था लेकिन भारत की संसद में घटना का जिक्र तक नहीं हो रहा। 24 इंजीनियरों को व्यास नदी के बांध से छोड़े हुए पानी की धाराएं बहा ले गई और ऐसा लगता है जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
इस वक्त भी व्यास नदी में 18 नौजवान इंजीनियरों की लाशें बह रही है। इसमें से हरेक जिंदगी बचाई जा सकती थी। शर्त सिर्फ इतनी थी हम जिंदगी का मतलब समझ पाते लेकिन अफसोस, सियासत, सत्ता और व्यवस्था, सबने हमारी जान को इतना सस्ता बना दिया है कि हमारा होना और ना होना सिर्फ एक इक्तेफाक बनकर रह गया है।
हिमाचल का एक खुबसूरत तबका आज मौत और मातम की मंडी में तब्दील हो चुका है । जिस वक्त 740 सांसद राष्ट्रगान की धुन पर भारत की प्रभुसत्ता पर नाज कर रहे थे तब इसी देश के 24 होनहार की देह इसी देश की एक नदी तैर रही थी ।
व्यास नदी की धाराओं में बहते चले जा रहे थे, नौजवान इंजीनियर मौत की मझधार में। पुल बनाने वाले इंजीनियर की हाथों से पानी ने जिंदगी की लगाम ही छीन ली थी। हैदराबाद की चिलचिलाती गर्मी से राहत पाने के लिए कुल्लू मनाली की वादियों के सैर पर निकले थे वीएनआर दिव्य ज्योति इंजीनियरिंग के 47 बच्चे।
मंडी से करीब 40 किलोमीटर दूर व्यास नदी के किनारे फोटो खींचने के लिए उतरे थे लेकिन मनमोहक दृश्यों को कैद करते हुए कैमरा नहीं देख सका सामने से मौत आ रही थी। बांध से इतना पानी छोड़ दिया गया था कि सांसों की पतवार ने शरीर का साथ छोड़ दिया।
कितनी सस्ती है इस मुल्क में जिंदगी। कोई किसी बांध को खोलने के लिए एक उंगली दबा देता है। दरवाजा उठ जाता है और देखते ही देखते लाशें नदी में तैरने लगती है। कुछ मत पूछिए। ऐसा क्यों हुआ। कुछ मत पूछिए। वो कौन थे। कुछ मत पूछिए। अब क्या करेंगे। बस देखते रहिए। अपनी नजरों के सामने इस मुल्क के डूबते हुए विश्वास को। करते रहिए किनारे पर लाशों का इंतजार। सच बताना हिंदुस्तान के हुक्मरान।
ये हादसा है ये हत्या। इस देश के 24 इंजीनियरों को मार डाला गया है। मरने वाला में से हरेक चेहरा इस देश का भविष्य था। कोई नहीं बताता हमने उन्हें क्यों मार डाला।माना की हम भी शामिल है लेकिन ये कैसा देश है हम किसी को भी ऐसे मार देते हैं। देखते रहते हैं बहती हुई लाशों को और उछालते रहते हैं नारे कि देश बदल रहा है। जिंदगी का मोल बढ़ रहा है। लानत है उन नीतियों पर उन नीयंताओं पर।
माना की सस्ती है हमारी जान लेकिन इतनी सस्ती। एक सायरन होता वो ठीक से बजता। उसे बजाने वाले समझ पाते जिंदगी का मौल तो 24 गुलदस्तों से महकता होता मुल्क। वो मरे नहीं। हमने उन्हें मर जाने दिया। मार दिया। ये देश सो कैसे सकता है 24 नौजवानों की सामूहिक हत्या पर। एक बात कहें हम आपको इस देश के शक्तिबोध पर अफसोस होगा।
सच ये है सर्च ऑपरेशन के नाम पर मजाक हुआ है। एक गंदा, भद्दा और विभत्स मजाक। 18 इंजीनियरों की लाशें व्यास नदी के गुमनाम पत्थरों से टकरा रही है और एसएसबी का दल पैदल चल रहा है। इतना भी नहीं हुआ की हम उन्हें हेलिकॉप्टर से तलाश कर लेते। ये डीसीपी की गलती नहीं है।
ये पूरा का पूरा देश अपनी निर्वस्त्र नैतिक चेतना के साथ डूबते हुए इंजीनियरों के कठघरे में खड़ा है। एक डैम का पानी रोककर हम इंजीनियरों की लाशें नहीं निकाल सकते और हम मगंल पर जाएंगे। परमाणु बम गिराएंगे। चीन से लोहा लेंगे। सरहद पार वालों को सबक सिखाएंगे।
जो देश अपनी ही नदी से अपने ही बच्चों की लाशें नहीं निकाल सकता अगर वो मगंल पर चला ही गया तो क्या बदल जाएगा। अब और भ्रम में मत रखो बाबू, बर्दाश्त का बांध टूट जाएगा। क्या करे ये देश इन नेताओं के समपर्ण का। क्या करे ये देश भाषण का और क्या करे ये देश जुबानी जज्बात का। जब 24 इंजीनियरों के बह जाने पर इस देश को सिर्फ लाशों के किनारे पर आने का इंतजार ही करना है तो क्यों होती है सरकार। क्यों होती है सत्ता। क्यों होता है सिंहासन ।