नई दिल्ली : आगामी लोकसभ चुनाव से पहले सुप्रीम कोर्ट इसी माह (सितंबर) देश की राजनीति, धर्म और समाज से जुड़े 10 मुद्दों अहम और संवेदनशील मुद्दों पर अपना फैसला सुनाने वाला है। कुछ मसले ऐसे भी हैं जिन्होंने न्यायपालिका पर व्यापक असर डाला है।
इनमें शामिल होंगे अयोध्या मंदिर विवाद, आधार, प्रमोशन में आरक्षण, समलैंगिकता, व्यभिचार, मुस्लिम महिलाओं का खतना जैसे कई मुद्दे शामिल हैं। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र आगामी 2 अक्टूबर को सेवामुक्त होने वाले हैं। उन्हें अपने रिटायरमेंट से पहले ही अपने द्वारा सुने गए मामलों में फैसला सुनाना है।
जानिये किन अहम मसलों पर सुप्रीम कोर्ट देगा अपना फैसला :
अयोध्या विवाद:
इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2010 के फैसले के खिलाफ दायर 13 याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने 7 साल बाद 11 अगस्त 2017 को सुनवाई शुरू की। अब तक 15 सुनवाई हो चुकी हैं, लेकिन मूल मुद्दे पर एक भी नहीं। पहले छह महीने अनुवाद के कारण सुनवाई अटकी रही। अगले छह महीने इस पर बहस होती रही कि सुनवाई पांच जजों की विशेष बेंच करे या नहीं। मुस्लिम पक्ष की इसी मांग पर कोर्ट को अभी फैसला सुनाना है।
आधार कार्ड सम्बंधित मामला:
आधार को चुनौती देने वाली नौ याचिकाओं पर पांच जजों की संविधान पीठ ने 10 मई को फैसला सुरक्षित रखा था। संविधान पीठ ने 17 जनवरी से सुनवाई शुरू की थी। चार महीने के दौरान 38 दिन मैराथन सुनवाई हुई। सुप्रीम कोर्ट में संविधान पीठ के समक्ष यह दूसरी सबसे लंबी सुनवाई थी। केशवानंद भारती केस 68 दिन चला था। कोर्ट को फैसला करना है कि आधार संवैधानिक है या नहीं?
प्रमोशन में आरक्षण मुद्दा:
एसी-एसटी वर्ग को सरकारी नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए दायर याचिका पर कोर्ट को तय करना है कि इसमें रोड़ा बने सुप्रीम कोर्ट के वर्ष 2006 के एक फैसले पर पुनर्विचार किया जाए या नहीं। कोर्ट ने बिना आंकड़े जुटाए प्रमोशन में आरक्षण देने को गलत बताया था।
सबरीमाला मंदिर मामला:
केरल के सबरीमाला मंदिर में 10 से 50 वर्ष तक की महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी है। यह पाबंदी हटवाने के लिए एक महिला एक्टिविस्ट ने याचिका दायर की थी। सुप्रीम कोर्ट तय करेगा कि यह पाबंदी सही है या नहीं? संविधान बेंच ने 17 जुलाई से सुनवाई शुरू करने के बाद 1 अगस्त को फैसला सुरक्षित रख लिया था।
कोर्ट कार्यवाही का सीधा प्रसारण पर फैसला:
सुप्रीम कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट की कार्यवाही का सीधा प्रसारण कराने की मांग करने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए फैसला सुरक्षित रख लिया है। अदालतों में भीड़ कम करने के लिए एक याचिका में मांग की गई थी कि महत्वपूर्ण केसों की सुनवाई का सीधा प्रसारण किया जाए, ऐसा करना उचित है या नहीं? इस पर कोर्ट ने बीती 24 अगस्त को फैसला सुरक्षित रखा था।
धारा 377 (समलैंगिकता) पर फैसला
समलैंगिक संबंधों को अपराध करार देने वाली आईपीसी की धारा 377 को असंवैधानिक घोषित करने के लिए याचिका दायर की गई थी। पांच जजों की संवैधानिक पीठ को इस पर फैसला सुनाना है। यह मुद्दा सबसे पहले 2001 में गैर सरकारी संस्था नाज फाउण्डेशन ने दिल्ली उच्च न्यायालय में उठाया था।
मुस्लिम महिलाओं में खतना प्रथा पर फैसला
मुस्लिम महिलाओं में खतना प्रथा मुस्लिम दाऊदी बोहरा समुदाय में महिलाओं के खतना की प्रथा को क्रूरता बताते हुए समुदाय की एक महिला ने इसे खत्म करने की याचिका दायर की थी। बोहरा समुदाय का मानना है कि 7 साल की लड़की का खतना कर दिया जाना चाहिए। इससे वो शुद्ध हो जाती है। खतना को भी दुनिया के 42 देश प्रतिबंधित कर चुके हैं। दाऊदी बोहरा मुस्लिम समाज में खतना की प्रथा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में वकील सुनीता तिहाड़ ने याचिका दायर की, जिसके बाद इस मामले पर सुनवाई चल रही है।
धारा 497 (व्यभिचार) पर भी कोर्ट का फैसला सुरक्षित
भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 497 व्यभिचार यानी जारता (विवाहित महिला के पर पुरुष से संबंध) के मामलों में सिर्फ पुरुषों को सजा मिलती है। धारा कहती है कि पति की अनुमति से महिला किसी अन्य से संबंध बना सकती है। इस धारा की संवैधानिकता पर छह दिन सुनवाई के बाद कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रखा था। केरल निवासी जोसफ शिन ने आईपीसी की धारा 497 के खिलाफ कोर्ट में याचिका दायर कर इसे निरस्त करने की गुहार लगाई है।
दागी नेताओं पर प्रतिबंध को लेकर सुनवाई
दागी नेताओं पर आजीवन बैन को लेकर चुनाव आयोग और केंद्र सरकार में ठन गई है। 5 साल से ज्यादा की सजा होने के बाद आरोपी नेता को हमेशा के लिए चुनाव लड़ने से वंचित करने और ऐसे लोगों को टिकट देने वाले दलों की मान्यता रद्द करने की मांग पर फैसला सुनाना है। आपको बता दें कि चुनाव आयोग ने पहले भी दागी नेताओं पर आजीवन प्रतिबंध लगाने की पैरवी की थी।
सांसद, विधायक की वकालत पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला रखा सुरक्षित
उच्चतम न्यायालय ने विधि निर्माता (सांसद या विधायक) के वकील के रूप में वकालत करने पर पाबंदी की मांग वाली याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए. एम. खानविलकर और न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़ की पीठ ने आदेश सुरक्षित रखने से पहले केन्द्र की इस दलील पर संज्ञान लिया कि कोई सांसद या विधायक निर्वाचित प्रतिनिधि होता है, सरकार का पूर्णकालिक कर्मचारी नहीं। विधायक-सांसद बन चुके वकीलों को वकालत का अधिकार न देने की मांग कोर्ट से की गई है। जनप्रतिनिधि के तौर पर इन्हें सरकारी नौकर मानने की मांग की गई है।