राजनीति के गलियारों में अपना परचम लहराने वाली कांग्रेस चार राज्यों में पराजय के बाद खुद में बदलाव लाने के नाम पर पदाधिकारियों को बदलने का काम शुरू की दिया है। पहले चरण में दिल्ली और छत्तीसगढ़ के प्रदेश अध्यक्ष बदले गए हैं। इसके पहले गोवा के पार्टी अध्यक्ष और प्रदेश अध्यक्ष प्रभारी समेत अन्य पदाधिकारियों में फेरबदल होना तय है।
यह भी संभव है कि बदलाव के क्रम में कुछ केंद्रीय मंत्री और मुख्यमंत्री भी संगठन में लाए, लेकिन इस फेरबदल को बदलाव की संज्ञा देना सही नहीं होगा। वास्तविक बदलाव तो तब नजर आएगा जब कांग्रेस अपनी रीति-नीति भी बदलती नजर आएगी। यह आश्चर्यजनक है कि कांग्रेस और यहां तक कि भारतीय राजनीति का कायाकल्प करने के इरादे से सक्रिय कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी वास्तविक बदलाव लाने से अभी भी कोसों दूर दिख रहे हैं।
राजनीति में राहुल गांधी की सक्रियता के दस वर्ष बाद भी राजनीति के तौर.तरीकों के मामले में कांग्रेस करीब-करीब वहीं खड़ी नजर आ रह है जहां वह 2004 में दिख रही थी। राहुल गांधी ने पार्टी में बदलाव लाने के लिए विभिन्न स्तरों पर कई प्रयास किए, लेकिन वह किसी भी मोचें पर सफल होते नहीं दिख रहे हैं। वह न तो कांग्रेस की छात्र शाखा में कोई बुनियादी बदलाव ला सके, न अपनी राज्य इकाइयों में और न ही पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के स्तर पर।
दिल्ली समेत चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में हार का सामना करने के बाद राहुल गांधी ने जब यह कहा था कि वह जरूरी सबक सीखने का काम करेंगे तो ऐसी प्रतीति हुई थी अब वह बुनियाद बदलाव अवश्य करेंगे, लेकिन फिलहाल ऐसा कुछ होता नहीं दिखा।
प्रदेश अध्यक्षों, प्रभारियों, प्रवक्ताओं और अन्य पदाधिकारियों में बदलाव का एक सीमित महत्व ही है और यह किसी से छिपा नहीं कि इस तरह के बदलाव पहले भी हो चुके हैं। तथ्य यह है कि कांग्रेस करीब इस साल तक केंद्रीय सत्ता का नेतृत्व करने के बाद कहीं अधिक कमजोर नजर आ रही है। खुद को सशक्त करने के एजेंडे पर चल रहा देश का यह सबसे पुराना दल जिस तरह विभिन्न राज्यों में सहयोगियों की तलाश में है उससे उसकी कमजोरी स्वतः उजागर हो जाती है।
विडंबना यह है कि कांग्रेस खुद को आम आदमी के हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध राजनीतिक दल बताती है, लेकिन चुनाव परिणाम यही बताते हैं कि वह आम अदमी से ही कटती जा रही है। इसके मूल कारण उसकी नीतियों में छिपे हैं और जाहिर है कि जब तक नीतियों के स्तर पर तब्दीली नहीं लाई जाती तब तक बात बनने वाली नहीं है।
कांग्रेस के नीति-नियंताओं को इस पर गंभीरता से चिंतन-मनन करने की आवश्यकता है कि एक समय देश में सर्वाधिक प्रभाव रखने वाली कांग्रेस तेजी के साथ सिमटती क्यों जा रही है? उन्हें इसका अहसास होना चाहिए कि पार्टी की रीति-नीति में अपेक्षित सुधार लाए बिना जनाधार को बचाए रखना आसान नहीं होगा। कांग्रेस के लिए उचित यही होगा कि वह उन कारणों की पहचान भी करे और उनका निवारण भी जो उसकी स्थिति दिन-प्रतिदिन कमजोर कर रहे है।