उत्तर प्रदेश : वो राजनीति, जो औरतों को पेड़ों से लटकाकर मार दिए जाने की परवाह ना करे। वो राजनीति जो परवादियों के साथ बलात्कार की परवाह ना करें। वो राजनीति जो दागी दारोगाओं के साथ खड़ी नजर आए। ऐसी राजनीति का क्या करेंगे हम। आप कहेंगे बदल डालो लेकिन कौन बदलेगा। सब एक है और यही एकता एक डीजीपी को छूट देती है ये कहने के लिए कि बलात्कार एक रूटीन है।
यही एकता एक मुख्यमंत्री को छूट देती है ये कहने के लिए कि आपके साथ तो नहीं हुआ। यही एकता छूट देती है समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष को ये कहने की गलतियां हो जाती है। शायद बलात्कार का मतलब मुलायम नहीं जानते। शायद मारकर पेड़ पर लटका दिए जाने का मतलब अखिलेश नहीं जानते। लड़कियों को लटका दिया जाता है। बच्चियों को मार दिया जाता है। तेजाब पिला दिया जाता है पेशाब पिला दिया जाता है और तब बनता है अपराध नगरी अखिलेश राजा। डीजीपी साहब। आईजी साहब। सारे साहब चैन से हैं। इसलिए हमीरपुर के दारोगा को लगता है जैसे इतने वैसे एक और।
खाकी के अंदर वाला ही हैवान हो गया। सीएम साहब मौज में है। उन्हें तो लगता है वो यूपी के राजा राम है और प्रजा बेकार में हंगामा कर रही है । यूपी के सम्राटों सेनापतियों और सिपाहियों की जय बोलिए। जनता का क्या है। मौत से बद्दतर जिंदगी को आज नहीं तो कल रूटीन मान ही लेगी। उत्तर प्रदेश में कानून रोज एक मौत मर रहा है। कभी दरिंदे के मौत। कभी दारोगा की मौत। कभी डीजीपी की मौत।
हमीरपुर में सिर्फ सोलह साल की बच्ची पेड़ से ना लटका दी गई होती अगर ऐसा ना हुआ होता तो। सिर्फ ग्यारह साल की बच्ची को दरिंदों ने आधी रात को घर से उठा लिया और मारकर पेड़ से टांग दिया। बहुत दिनों बाद एक रिपोर्ट आएगी और इंसाफ फिर से इंतजार के रास्ते में मर जाएगा। गरीब परिवार के हिस्से में फिर से लड़ाई आई है और देश के हिस्से में शर्मिंदगी के सिवा कुछ नहीं। बदायूं को भूले भी नहीं थे की बहराइच से तस्वीर आ गई और अब मुरादाबाद में। ये पेड़ों से लटकती हुई लड़कियां नहीं है।
उत्तर प्रदेश में लटकता हुआ कानून है। लटकती हुई सरकार है और लटकती हुई व्यवस्था है। शादी में गया था परिवार बेटी को छोड़कर। सोचा था महफूज रहेगी बेटी लेकिन लौटे तो बेटी घर से गायब थी। सुबह पेड़ से लटक रही थी बेटी की जिंदगी। इस पर शर्म का पाताल भी कहीं गढ़ गया होगा लेकिन यूपी की पुलिस और यूपी सरकार के आंखों का पानी भी सूख चुका है और जब आंखों का पानी सूख जाता है तो अंदर का आदमी मर जाता है। अब बेजान रुहों वाले देह पर विश्वास कैसे करें। कैसी उम्मीद करें।
बहराइच, बस्ती, बलिया, बाराबंकी, बदायूं। ये सब क्या कोई शहर है। नहीं, विश्वासघात की नागफनी के जंगल है। ऐसे जंगल जहां लोकतंत्र होने का भ्रम है। सरकार होने का मुगालता है। दंड संहिता की धाराएं। कानून की किताबें है और उसी बदरंग किताबों से निकलकर आता है । बदायूं, बहराइच या बस्ती।
अगर ऐसा ना होता तो बदायूं में 45 साल के महिला को हैवानों के विरोध की सजा मौत नहीं मिलती। इंसाफ के देवता। इंसाफ के लाशों को अपने कंधे पर उठाए हुए जिंदगी की जय बोलने की अभिनय कर रहे हैं। इस अभिनय ने उत्तर प्रदेश में कानून के राज को फंदे से लटकाकर मार डाला है। बहराइच की गायात्री मर गई है। नहीं, उसे मार डाला गया है। वो अब कभी नहीं बोलेगी लेकिन ये गलत है गायत्री अब कभी चुप नहीं रहेगी।
गांव के चौपाल से लेकर अमरुद के गाछ के बीच चीख फैलती जा रही है। यूपी में अंधेर के खिलाफ। जहां आवाज उठाना एक गुनाह है। एक ऐसा गुनाह जिसकी सजा है बलात्कार। अगर पुलिस वाले ही कुचलने लगे औरतों की बेबसी को तो वैसे भी कोई क्या करें। हमीरपुर से आई हुई शर्मिंदगी की रौशनाई से लिखी हुई कहानी। इस कहानी में बेहतरी की उम्मीद छोड़ता एक सूबा है। नीरो की तरह बांसूरी बजाता हुआ एक सुल्तान है और अंधेर नगरी की चौपट पुलिस है। इन तीनों को जोड़कर जो तस्वीर बनती है। आज हम उसे अपराध नगरी अखिलेश राजा कहते हैं।