यह बात भी किसी से छुपी नहीं है कि बाद में यह चिकित्या पद्धति श्रीलंका पहुंची। वहाँ लोगों ने इस पद्धति को एक्यूप्रेशर का नाम दिया। एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति को विशुद्ध प्राकृतिक चिकित्सा के रूप में प्रसिद्धि मिली। उन दिनों लगभग 2000 वर्ष पूर्व बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु बौद्ध भिक्षु चीन, जापान जैसे देशों में जाने लगे तो अपने साथ अनेक भारतीय विद्याओं को ले जाने के साथ-साथ एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति को भी ले गये। एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति का प्रचलन भारत में करीब 5000 वर्ष पूर्व रहा था जबकि शरीर के विशेष अंगों पर दबाव डालकर रोगों का निदान किया जाता था।
महाभारत काल में योद्धाओं द्वारा पैर के अंगूठे में कड़ा पहनना, बारिक धागा बांधना कर्ण छेदक आदि क्रियाएं एक्यूप्रेशर ही थी। एक्यूप्रेशर का शाब्दिक अर्थ है-एक्यू-तीक्ष्ण धारदार और प्रेशर का अर्थ है दबाव। मानव शरीर के निर्धारित बिन्दुओं पर अंगूठे या अन्य उपकरण से उचित दबाव देकर रोग से राहत पाने की इलाज प्रक्रिया को एक्यूप्रेशर पद्धति कहा गया। हमारे देश में आज भी प्रणायाम, आसन, मुद्रा में कर्ण छेदक, शिखा-बंधक, चुड़ी-कड़े, हार, बाजूबन्ध कवच-कुण्डल, खड़ाऊ धारण करना, भूमि-शैय्या, नंगे पैर टहलना आदि का संबंध एक्यूप्रेशर से ही है। आज विश्व के कई देशों अमेरिका, चीन, श्रीलंका, इंग्लैंड, फ्रांस, जापान, जर्मनी इत्यादी में इस पद्धति को काफी प्रसिद्धि मिल रही है। भारत में भी यह चिकित्सा पद्धति निरंतर अग्रसर है।
हमारे देश में एक ऋषि हुए जिनका नाम सुश्रृत था। उन्होंने ध्यान की गहराई में जाकर मानव देह में विद्यमान नसख् नाडि़यों की केवल गिनती ही नहीं की अपितु यह भी पता लगाया कि किस नाड़ी में किस प्रकार की विकृति आने से कौन सा रोग लग जाता है। इसका उल्लेख भी उन्होंने बौद्धिक साहित्य में संपूर्ण विवरण सहित बतलाया है। वह कहते हैं कि हमारे शरीर में 72 करोड़ लाख 10 हजार 201 नस नाडि़याँ होती हैं और इन सब नस नाडि़यों को सदा स्वस्थ रखने के लिए मनुष्य को 24 घण्टे में एक बार खिलखिलाकर हँसनाचाहिए इससे हमारे संपूर्ण शरीर की नस नाडि़यों की कसरत होती है और मानव शरीर स्वस्थ रहता है। उनका मानना है कि जब भी हमारे शरीर में या मन में कोई रोग लग जाता है तो हमारे शरीर में उल्टी प्रक्रिया शुरू हो जाती है। यानी जो चीज हमारे शरीर में रहनी चाहिए वह शरीर से गाहर जानी चाहिए वह शरीर में एकत्रित हो जाती है।
कहने का मतलब यह है कि जो चेतना शक्ति, प्राणभूत शक्ति चाहिए वह शरीर से बाहर जातती है और विजातिय द्रव्य, किटाणु जो शरीर से बाहर बाहर जाने चाहिए वो शरीर में इक्ट्ठा हो जाते हैं। जिसके कारण हमारा शरीर दुर्बल हो जाता है। यदि शरीर में कोई रोग लग जाय तो संभव है कि हमारा मन भी रोगी हो जाता है यदि मन में कोई रोग लग जाए तो हमारा शरीर निश्चित रूप से रोगी हो जाता है। इसलिए शरीर को ठीक रखने के लिए हमें मानसिक रूप से स्वस्थ होना अनिवार्य है। हमारे संपूर्ण शरीर के अंगों की नस-नाडि़यां कलाई से आगे हाथ तथा टखने से नीचे पैर में आकर खत्म हो जाती हैं।
जब भी हमारे शरीर को कोई भी अग कार्बनडाईआक्साईड आदि विजातिय द्रव्य साधारण शब्दों में गन्दगी की तह उस अंग के चारों ओर इक्ट्ठे होना शुरू हो जाती हैं। यदि समय पर इलाज न हुआ तो गन्दगी की तह मोटी हो जाती है जिसके परिणाम स्वरूप चेतना शक्ति का उस अंग को कम मात्रा में मिलना शुरू हो जाती है। जब चेतना शक्ति का उस अंग के लिए पहुंचना कम हो जाता है तो रक्त संचार में बाधा उत्पन्न हो जाती है और रोगी को शल्य चिकित्सा की शरण में जाना पड़ता है। ताकि रोगी को मृत्यु से बचाया जा सके। सुश्रुत ऋषि के अनुसार जब प्राणभूत शक्ति संम्बंधित अंग को नहीं मिलती है तो उस अंग की रक्त वाहिका नाड़ी जो हाथ और पैर में आकर खत्म हो जाती है उन केन्द्रों से हमारी प्राणभूत शक्ति प्रसारित होना शुरू हो जाती है। यानी साधरण भाषा में जो हमारी चेतना शक्ति के लिए बाहर निकलने का रास्ता है उन प्रतिबिम्ब केन्द्र के माध्यम से चेतना शक्ति दिन रात बाहर निकलती रहती है।
जब रोगी के उससे सम्बधित प्रतिबिम्ब केन्द्रों को दबाया जाता है तो रोगी अत्यधिक वेदना या कांटे के चुभने का दर्द महसूस करता है। जिससे हमें पता चलता है कि रोगी का इससे सम्बन्धित अंग रोग ग्रस्त हो चुका है। दबाव देने से दो प्राकर की प्रक्रिया शुरू हो जाती है एक तो जो हमारी चेतना शक्ति प्रतिबिम्ब केन्द्र से बाहर जा रही होती है वह रूक जाती है और वहाँ जा के कम्पन शुरू हो जाती है जिससे इस अंग के चारों तरफ जीम गंदगी की तह टुटना शुरू हो जाता है और वह गन्दगी रक्त के साथ मिलकर सफाई के लिए दोनों गुर्दों के पास आती है क्योंकि हमारे शरीर के अन्दर जो 6-7 लीटर खून रहता है वह 25-30 बार छनाई हेतु गुर्दे के पास आता है यानि 24 घण्टे में हमारे गुर्दों को 170-175 लीटर तक रक्त की छनाई करनी होती है इसलिए सब जगह प्रेशर देना चाहिए।
35-40 दिनों में सम्बन्धित केन्द्र सील हो जाते हैं और हमारी चेतना शक्ति इक्ट्ठी और सम्बन्धित अंग की गंदगी मुत्रादि के साथ बाहर आ जाती है और रोगी रोग से मुक्त हो जाता है। 40 वर्ष के पश्चात प्रत्येक व्यक्ति को अपने प्रतिबिम्ब केन्द्रों का निरीक्षण करवाते रहना चाहिए।
1. खाना खाने से आधे घण्टे पहले या दो घण्टे के पश्चात प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर दबाव देना चाहिए।
2. प्रत्येक प्रतिबिम्ब केन्द्र पर दो मिनट तक दबाव देना चाहिए।
3. नाखुन कटे हुए होने चाहिए।
4. दबाव देने से पहले रोगी को अपना शरीर ढीला छोड़ देना चाहिए।
5. दिल के प्रतिबिम्ब केन्द्र को 24 घण्टे में सिर्फ एक बार दबाव देना चाहिए।
6. दबाव खुली, हवादार, स्वच्छ जगह पर देना चाहिए।
7. अंत में गुर्दे के प्रतिबिम्ब केन्द्र पर अवश्य दबाव देना चाहिए।