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‘प्यार ही ईश्वर है’’ लिहाजा दोनों एक हैं। ‘‘ईश्वर का स्वाभाविक गुण अरु ऐश्वर्य प्रेम के भीतर है, तो कह सकते हैं ईश्वर में है प्रेम, प्रेम में ईश्वर है।’’ दोनों एक हैं तो उन पर चढ़ी प्रदूषण रूपी विद्रूपता की परत को साफ करना ही धर्म है, किन्तु इसे विडम्बना ही माना जायेगा कि ईश्वर-प्रेम को प्रदूषणमुक्त करने के एक्शन प्लान से प्रदूषण बढ़ता जा रहा है।
‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’ यानी प्रत्येक प्राणी में परमात्म तत्व ‘‘जीवात्मा’’ के रूप में विद्यमान है, तो प्रेम का प्राकट्य स्वाभाविक है। प्रेम स्वरूपा भक्ति ही जीवात्मा-परमात्मा के एकात्म की एकमात्र सहज मार्ग है, जो श्रद्धा और निष्ठा के रूप में सिद्धावस्था में परिवर्तित होते हुए लक्ष्य-वेध में सफलता प्राप्त करती है।
सवाल साईं-विरोध का है, तो वह निःसंदेह आवश्यक है, प्रेम स्वरूपा भक्ति कहीं भी हो किन्तु वह श्रद्धास्पद ‘‘बिन्दु’’ निर्गुण परमात्मा अथवा उसके सगुण प्रतीक देवी देवताओं का विकल्प नहीं हो सकता। साईं को विकल्प ही नहीं, बल्कि परमात्मतत्व से परे मान लेने की कुत्सित धारणा ही वास्तविकता पर प्रदूषण की परत है, जिसे साफ करना होगा। यानी साईं हों या कोई और, जिसे भी ईश्वर के तुल्य दर्जा देना कतई धर्म नहीं हो सकता।
लेकिन यहां तो साईं बाबा ईश्वर से भी श्रेष्ठ बना दिये गये। ये किसने किया? हम और आप ने। क्योंकि प्रेमस्वरूपा भक्ति मार्ग ‘मूल लक्ष्य’ पर ले जाने की बजाय भटकाव में स्वयं की बजाय अपर में उलझ गया। वही शाश्वत सत्य ‘प्रेम’ वासनासक्त होकर सिद्धावस्था (निष्ठा) की आड़ मंे ‘‘पंथ-भ्रष्ट’’ करने को ‘लव जेहाद’ के रूप में सामने है। जहां तक विविध पंथों (धर्म-सम्प्रदायों) का सवाल है तो सभी पंथों की मंजिल ‘एक’ ही भले है, किन्तु जो जिस मार्ग का पथिक है उसे ‘प्रेम’ जाल से पथभ्रष्ट करना सर्वथा अधर्म है।
दोनों मुद्दों में प्रेम की आड़ में ‘‘पंथ-भ्रष्ट’’ करने का अधर्म ही सत् स्वरूप ईश्वरीय सत्ता पर मोटी परत के रूप में चढ़ चुकी है। साईं प्रकरण में ‘प्रेम’ के श्रद्धासक्त और लव जेहाद प्रेम के वासनासक्त भाव से ‘‘पंथ-भ्रष्ट’’ होने के विभाव को कट्टर सोच से नहीं, आत्मचिन्तन से ही नष्ट किया जाना चाहिए।