जिसमें समय के साथ परिपक्वता आ चुकी है। क्योंकि फिल्म मनोरजंन के साथ-साथ हमारे देश को संस्कृति सभ्यता और नए युग को प्रदर्शित करने का काम भी करती है। फिल्म ही एक ऐसा माध्यम जिसके जरिए लोग हर एक चीज से प्रभावित होते हैं। वैसे हमारे देश में फिल्मों को लेकर सभी वर्गों में एक विशेष उत्साह देखने को मिलता है। मनोरंजन से भरी फिल्म को देखने के लिए सभी वर्गों के लोग हमेशा तैयार रहते हैं। क्योंकि हमारे देश के हर एक राज्य में फिल्मों का प्रदर्शन किया जाता है।
इस आलोच्य में कहें तो फिल्मों में विभिन्न प्रकार के प्रदर्शन से प्रत्येक वर्ग प्रेरित और प्रभावित दोनों होता आया है। अगर फिल्मों के इतिहास पर चर्चा की जाए तो सन् 1913 का वर्ष अत्यंत महत्वपूर्ण था, इस वर्ष ‘राजा हरिश्चन्द्र‘ नामक फिल्म का निमार्ण किया गया था। राजा हरिचन्द्र से भारतीय फिल्मों का शुभारंभ हुआ।
इसके बाद जैसे-जैसे समाज विकसित होता गया, फिल्मों में भी उसका अक्श देखने को मिलता गया। सामाजिक और सम सामयिक मुद्दों पर फिल्मों का निमार्ण शुरू हो गया जिसमें अछूत, कन्या, गोदान, गवन, दो बीघा जमीन, अपने पराये, मदर इंडिया आदि न जाने कितनी ऐसी फिल्में बनीं जिनमें अपने देश की समस्याओं को भी उठाया गया और उन्हें देखकर मन पर किसी अश्लीलता का कुप्रभाव भी नहीं पड़ा।
परंतु 21वीं सदी के आते ही इस मनोरंजन के माध्यम ने नई विधा को अपने में समाहित कर लिया है, और इस नई विधा के परिणामस्वरूप बहुत-सी ऐसी फिल्मों का निमार्ण किया जाने लगा। जिन्हें देखकर ऐसा कदापि नहीं लगता कि दिखाए जाने वाले दृश्य हमारे देश की संस्कृति से सरोकार रखते हो। क्योंकि यह फिल्में अब मनोरंजन के साथ-साथ अश्लीलता परोसने का काम भी करने लगी हैं। रंग चुकी हैं उसी रंग में, अश्लीलता के रंग में।
अभी हाल ही में निर्मित कुछ फिल्मों की बात करें तो डर्टी फिक्चर, जिस्म 2, मर्डर 2, सिक्सटीन, बीए पास, नशा आदि इस क्रम में पहले और बाद में और भी फिल्में हैं। इन फिल्मों में चुंबन के दृश्य तो आम बात हो गई है। इसके साथ-साथ इन फिल्मों में अभिनेता और अभिनेत्रियों द्वारा एक दूसरे के वस्त्रों को उतारते हुए तथा महिला अंतःवस्त्रों को पुरुष के हाथों में साफ तौर पर दिखाया जाना, साथ-साथ कामकलाओं, संभोग की क्रियाओं को प्रदर्शित करते हुए दिखाना अब चलन बन चुका है।
बिस्तर पर चादर में लिपटी नारी देह, खुला बदन, नंगी पीठ, कूल्हों और उभारों को प्रदर्शित करती, संभोग क्रिया और उत्तेजनात्मक आवाजों को निकालती हुई क्या कहें ऐसी फिल्मों को। सिर्फ ए (व्यस्कों के लिए) लिखने भर से क्या काम चल जाएगा? क्या इस तरह की फिल्मों को बनाकर समाज में अश्लीलता को बढ़ावा नहीं दिया जा रहा? समाज और कानून को इस ओर ध्यान देने की जरूरत है।
इस विषय पर कानून के संदर्भ में बात की जाए तो समाज में अश्लीलता फैलाना भी संगीन गुनाह की श्रेणी में आता है। अश्लील साहित्य, अश्लील चित्र या फिल्मों को दिखाना, वितरित करना और इससे किसी प्रकार का लाभ कमाना या लाभ में किसी प्रकार की कोई भागीदारी कानून की नजर में अपराध है और ऐसे अपराध पर आईपीसी की धारा 292 लगाई जाती है।
इसके दायरे में वे लोग भी आते हैं जो अश्लील सामग्री को बेचते हैं या जिन लोगों के पास से अश्लील सामग्री बरामद होती है। अगर कोई पहली बार आईपीसी की धारा 292 के तहत दोषी पाया जाता है तो उसे 2 साल की कैद और 2 हजार तक का जुर्माना हो सकता है। दूसरी बार या फिर बार-बार दोषी पाए जाने पर 5 साल की कैद और 5 हजार रुपए तक का जुर्माना हो सकता है। साथ ही साथ सार्वजनिक जगहों पर अश्लील हरकतें करने या अश्लील गाना गाने पर आईपीसी की धारा 292 लगाई जाती है। इस मामले में गुनाह अगर साबित हो जाए तो तीन महीने तक की कैद या जुर्माना या दोनों हो सकता है।
हालांकि वर्तमान परिदृश्य में फिल्मों द्वारा भारतीय दंड संहिता की ये धाराएं और कानून का एक प्रकार से मजाक बनाकर दिन प्रतिदिन उल्लघंन किया जा रहा है। मुझे लगता है यह धाराएं सिर्फ पढ़ने और सुनने तक ही सीमित लगती है। शायद ही इनकों अमल में लाया जाता हो।
अगर वास्वत में यह धाराएं कारगर सिद्ध होती, तो फिल्म निर्माताओं, निर्देशकों, अभिनेताओं, अभिनेत्रियों, सिनेमाघरों के मालिकों के साथ-साथ देखने वाले दर्शकों को भी सजा हो चुकी होती। क्योंकि धाराओं में साफ तौर पर इंगित किया गया है कि अश्लील फिल्मों को दिखाना, वितरित करना, लाभ कमाना और उसका निर्माण करना कानून की भारतीय दंड संहिता की धाराएं 292, 294 में अपराध की श्रेणी में रखा गया है। इसके बावजूद भी सभी कानूनों को तांक पर रखते हुए परोसते रहते है अश्लीलता। अब इसको क्या कहा जाए वर्तमान समय की मांग या पूर्णतः कानून का उल्लघंन ?