भारतीय रेलवे का बड़ा खुलासा: जानिए, ठेका सिस्टम के नाम पर IRCTC में शोषण का शिकार हुए कर्मचारियों का सच

नई दिल्ली: 11 मई 2017 को दिल्ली उच्च न्यायालय में जनहित याचिका की सुनवाई हुई. जिसमें याचिकार्ता सुरजीत श्यामल ने देश के विभिन्न सरकारी संस्थानों में रेगुलर वर्कर के समान काम कर रहे ठेका/आउटसोर्स वर्कर के लिए समान काम का समान वेतन की मांग की थी. उन्होंने इस याचिका के माध्यम से 47 वर्ष बने कानून के इस प्रावधान को को लागू करने की मांग की थी. रेलवे की पीएसयू आईआरसीटीसी को इसका उदाहरण देते हुए केस में पार्टी बनाया था. जिसमें बताया था कि पढे-लिखे ठेका/आउटसोर्स वर्कर को रेगूलर वर्कर के बराबर लेकर मात्र एक तिहाई 12-15 हजार रुपया दिया जाता है.

जिसके बचाव में आईआरसीटीसी के वकील ने कहा कि हम ठेका/आउटसोर्स वर्कर से रेगुलर वर्कर के बराबर काम नही लेते हैं और जिनसे लेते हैं उनको पहले से समान वेतन दे रहे हैं. अगर जिसको भी ऐसा लगता है कि उनसे समान काम करवाया जाता है वो ठेका कानून के धारा 25 के तहत डिप्टी लेबर कमिश्नर का दरवाजा खटखटा सकते हैं. जिसके बाद माननीय कोर्ट ने पूछा कि क्या सफाई वाले कर्मचारी के बराबर भी काम नहीं करवाते? जिसपर आईआरसीटीसी कि वकील ने चुप्पी साध ली.

इसके दलील में याचिकाकर्ता के वकील श्री राकेश कुमार सिंह ने कहा कि यह सरासर झूठ और भ्रामक है कि आईआरसीटीसी के वर्कर को समान काम का समान वेतन दिया जाता है. हमने अपने प्रतिउत्तर में कई साक्ष्य माननीय कोर्ट में पेश किये है जिससे की यह साबित होता है कि न तो आईआरसीटीसी और न ही कहीं और ही सामान काम का सामान वेतन लागु है. सरकार ने खुद नोटिफिकेशन दिनांक 23.01.2013 में स्वीकार किया है कि सरकारी क्षेत्रों में व्यापक रूप से श्रम कानून के उल्लंघन की शिकायत मिली है. जिसके बाद इस उपरोक्त नोटिफिकेशन के माध्यम से समान काम का समान वेतन लागू करनी की बात की है.

 

 

आईआरसीटीसी ने यह भी कहा कि वो सभी वर्कर को न्यूनतम वेतन देते है. जिसपर माननीय कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि आज के मंहगाई में न्यूनतम वेतन का 10 से 13 हजार में किसी परिवार का गुजरा कैसे हो सकता है. आज पुरे देश में निजीकरण का दौर में ठेका वर्कर रेगुलर वर्कर के बराबर काम नहीं बल्कि रेगुलर वर्कर का ही काम कर रहे है. इतने काम सैलरी में वर्करों से काम करवाना गुलामी करवाने जैसा ही है. इसके बाद माननीय कोर्ट ने अपने आर्डर में आईआरसीटीसी के वर्करों को राहत देते हुए डीऐलसी(केंद्रीय) को अप्लीकेशन लगाने के 3 महीने के अंदर सामान काम को तय कर सामान वेतन को लागु करवाने का ऑर्डर दिया.

जबकि याचिकाकर्ता के वकील श्री सिंह ने मांग उठाया कि यह जनहित याचिका है और पुरे देश के वर्कर के पक्ष में मांग किया गया है कि माननीय कोर्ट सामान काम को तय कर सामान वेतन को लागु करवाने के लिए भारत सरकार को गाइडलाइन बनाने का निर्देश दें. श्री सिंह ने कहा कि देश के विभिन्न सरकारी विभागों जैसे आईआरसीटीसी, सीबीएसई, एमटीएनएल, दिल्ली मेट्रो, रेलवे के विभाग, पोस्टऑफिस, दिल्ली के लगभग सभी सरकारी अस्पताल के अलावा अनगिनत उदाहरण हमने अपने याचिका में पेश किये हैं. जहां सरकारी तंत्र द्वारा कॉस्ट कटिंग के नाम पर पढ़े-लिखे युवाओं का ठेका सिस्टम के नाम पर शोषण किया जा रहा है. मगर ठेका वर्कर चुप-चाप शोषण सहने को विवश हैं कि विरोध करने पर कहीं नौकरी न चली जाए.

मगर माननीय कोर्ट ने साफ इंकार करते हुए कहा कि इतने व्यापक पैमाने पर भारत सरकार के ऊपर समान काम का समान वेतन को लागु करने के लिए दबाब नहीं बनाया जा सकता है. पुनः श्री सिंह ने अपील करते हुए कहा कि कम से कम सरकार को इंस्पेक्शन करने का ही आदेश जारी किया जाये कि किस-किस विभाग में समान काम करवाया जाता है. मगर माननीय कोर्ट ने इसके लिए भी इंकार कर दिया.

इस पुरे मामले के बारे में पूछे जाने पर सुरजीत श्यामल ने बताया कि जब आईआरसीटीसी में ठेका वर्करों के लिए 1970 के कानून के अनुसार समान काम का सामान वेतन की मांग की तो “सेवा खराब” कहकर 17.10.2013 को नौकरी से बर्खास्त किया गया. जबकि मुझे बेहतर सेवा के लिए अध्यक्ष, आईआरसीटीसी ने उसी वर्ष का बेस्ट एम्प्लोयी अवार्ड प्रदान किया था. इसके बाद हार न मानी और पुरे देश के ठेका वर्करों के लिए “समान काम समान वेतन” लागू करवाने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में जनहित याचिका संख्या W.P.(C.) 2175/2014 दायर किया.

इसके उपरांत कई तरह की मुश्किलें आयी. उस जनहित याचिका को वापस लेने लेने क़े लिए जान से मरने की धमकी से लेकर पुरे परिवार को सरकार क़े इशारे पर प्रताड़ित किया जाने लगा. मगर सब कुछ सहते हुए भी अपने उसूलों से समझौता नहीं किया. कुछ लोगों का साथ मिला तो कुछ लोगों से सबक भी मिला. खैर इसके बाद भी हमने दुबारा से वर्करों को संगठित करना शुरू किया और सीटू ट्रेड यूनियन के मदद से आईआरसीटीसी के उपेक्षित व हकों से वंचित वर्करों को उनका हक दिलाने के लिए संघर्ष की शुरुआत की. हमने कानूनी लड़ाई के साथ ही साथ कर्मचारियों को धीरे-धीरे वर्करों के अधिकार के साथ ही साथ लेबर कानून की जानकारी देना शुरू किया. वर्करों से जुड़ने के लिए शोसल मिडिया का सहारा लिया. दिन-रात लगाकर खुद भी वर्कर हकों की जानकारी ली और साथ ही उसको पल-पल वर्करों तक पहुंचाने में कोई कसर न छोड़ी.

 

आपको बता दें कि भारत सरकार के रेल मंत्रालय ने खानपान और ई-टिकटिंग के लिए सन् 2002 में इंडियन रेलवे कैटरिंग एण्ड टुरिज़म कॉरपोरशन लिमिटेड की स्थापना की. जिसमें की वर्तमान में लगभग 4000 से भी अधिक कर्मचारी कार्यरत हैं. आईआरसीटीसी ने खुद से इंटरव्यू लेकर और बाद में ठेकेदार के द्वारा अप्पोइन्मेंट लेटर दिलवा दिया और उसको नाम दिया “आउटसोर्स वर्कर”. जिनकी संख्या लगभग पचास प्रतिशत से भी अधिक है. हर साल दो साल पर ठेकेदार बदल दिये जाते हैं और कर्मचारी लगातार पिछले 3 से 13 वर्षो से लगातार बिना किसी ब्रेक के काम कर रहे हैं. यहाँ तक की पूरी एडमिस्ट्रेटिव कंट्रोल आईआरसीटीसी की है और ठेकेदार को भी केवल पेपर पर दिखा रखा हैं. ऐसे तो देखे तो आईआरसीटीसी 8वीं क्लास पास टीएडीके (बंगलो प्यून) को 6 महीना डेली वेजर्स के रूप में काम करने के बाद डब्लू 1 की सैलरी देती है. जो कि लगभग 20 हजार के आसपास है. इसके बाद 3 साल पूरा होते ही रेगुलर कर देती हैं. मगर दूसरी तरफ स्नातक और व्यवसायिक डिग्री जैसे बीसीए, एमसीए, एमबीए इत्यादि वाले आउटसोर्स कहे जाने वाले कर्मचारी चाहे वो 1 साल पुराना हो या 13 साल सैलरी सबकी मिनिमम वेजेज ही मिलगी. सभी कर्मचा री दुःखी जरूर थे, मगर उनको यह कहकर चुप करा दिया जाता था कि तुम थर्ड पार्टी हो.

वर्कर भी लगातार 3 से 13 साल से शोसन सहते-सहते परेशान हो चुके थे. वर्करों की अंदर दबी चिंगारी सुलग कर शोला बनकर दिसम्बर 2014 के महीने में फुट पड़ी. मौका था जब मैनेजमेंट ने पीएफ का एम्प्लोयी और एम्प्लॉयर हिस्सा वर्कर के वेतन से काट लिया. जिसके खिलाफ वर्करों ने जमकर इंकलाब के नारे लगाये. आखिर सीटू के वरिष्ट नेताओं ने मामले को सज्ञान लेकर वर्करों को शांत करवाया. जबकि आईआरसीटीसी प्रबन्धन ने वर्करों को भड़काने में कोई कसर नही छोड़ा था. आखिर बाद में प्रबन्धकों ने अपनी गलती मानते हुए वर्करों के गलत कटे पैसे वापस किये. इस तरह वर्करों ने एकता और संघर्ष के बदौलत पहली बार सफलता का स्वाद चखा. वर्करों की ख़ुशी ज्यादा दिन तक टिक नही पायी, क्योकि उनकी एकता को तोड़ने के लिए धूर्त प्रबंधन ने भेदिया लगा दिया. उस भेदिया ने दिन रात वर्करों की एकता तोड़ने और यूनियन गतिविधियों की जानकारी प्रबन्धन तक पहुंचाने में लगा दी. बदले में वह प्रबन्धन का मुफ़्त का वफादार बन गया. उसके मुखबिरी की सहायता से प्रबन्धन ने अप्रैल में कस्टमर केयर डिपार्टमेंट को आउटसोर्स करने का टेंडर निकाला. जिसको रोकने के लिए यूनियन के नेताओं को काफी मसक्कत करनी पड़ी. मगर फिर भी दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका के दम पर टेंडर रुक गया.

 

 

इसके बाद तो प्रबंधन ने वर्करों पर जुल्म ढाना शुरू कर दिया. पीने के पानी से लेकर सुबह 10 बजे से दोपहर 12 बजे महिलाओं के बाथरूम पर रोक लगा दिया गया. इसके खिलाफ वर्करों ने कमर कसते हुए 15 जून 2015 को आईटी सेंटर पर गेट मीटिंग करते हुए एक 18 सूत्री माँग पत्र अध्यक्ष, आईआरसीटीसी को सौंपी. इसके बाद माँग पूरा करने के वजाये मगरूर प्रबन्धन ने 6 वर्कर नेताओं को नौकरी ने निकाल दिया. मगर निकले गये वर्करगण ऑफिस के बाहर ही धरना पर बैठ गये. जिससे घबराकर प्रबन्धन ने चापलूस वर्करों की सहायता से ऑफिस के अंदर के वर्करों के डर का फायदा उठाया. वर्करों से यह लिखकर साइन करवा किया कि बाहर धरना पर बैठे लोग गुंडे हैं और अंदर के वर्करों से उनका कोई लेना देना नही हैं. अपनी नौकरी बचाने के लिए वर्करों ने खुद ही यूनिटी तोड़कर उस लेटर पर साइन करके परबंधकों की मुराद पूरी कर दी. फिर क्या था आनन फानन में प्रबन्धन ने 92 वर्करों को नौकरी से निकाल दिया. जबकि सभी वर्करो पर्मानेंसी का केस लेबर कोर्ट में लगा हैं. 92 वर्करों में से 40 वर्कर ने स्टे के लिए लेबर कोर्ट में अपील विचाराधीन है, जबकि प्रबन्धन ने 1 फ़रवरी 2016 से ऑफिस में अंदर जाने से रोक दिया  है. मगर बहादुर वर्कर कहां मानने वाले हैं, पिछले एक सप्ताह से गेट के बाहर बैठकर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहें हैं. यह तो तय हैं कि जो 52 वर्कर जंग का मैदान छोड़कर घर चले गए उनको कुछ नही मिलेगा.

 

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