लोकतंत्र का महापर्व समापन की ओर है। कौन होगा देश का प्रधानमंत्री ? किसके सिर सजेगा ताज ? कांग्रेस इतिहास दोहराएगी या देश में मोदीयुग आएगा या नहीं। ये 16 मई को पता चलेगा। भारतीय जनता पार्टी में मोदी युग का प्रारंभ हो गया। व्यक्ति के जीवन में नहीं। संगठन के जीवन में ऐसा मौका आता है। जब खामोशी ज्यादा मुखर होती है। 7 अप्रेल को भाजपा मुख्यालय में कुछ ऐसा ही हुआ। पार्टी का पूरा राष्ट्रीय नेतृत्व मंच पर मौजूद था। सबमें जैसे होड लगी थी कि कौन मोदी की ज्यादा प्रशंसा करेगा। मोदी भाव शून्य चेहरे के साथ मंच पर मौजूद थे। उनके अंदर क्या चल रहा था उनके चेहरे से अंदाजा लगाना संभव नहीं था। लेकिन एक बात तो तय थी पिछले एक साल में चल रहा तुफान उनके मन मे शांत हो गया होगा।
हालाकिं उन्होंने अपने भाषण में कोई ऐसा संकेत नहीं दिया। पर मोदी ने अपने मन में अंदर की ही नहीं भाजपा के अंदर की लडाई जीत ली है। किसी को कोई शक नहीं होगा। क्योंकि लालकृष्ण आडवाणी जी ने अपने भाषण से दूर कर दिया। आखिर हो भी क्यों न। इस चुनावी तुफान का दीया नरेन्द्र दामोदरदास मोदी ने बुझने नहीं दिया। पुरा शीर्ष मंडल कही न कही मोदी के पक्ष में नहीं था परंतु मंजिल उनको मिलती है जिनका इरादा मजबूत होता हैं। इतना ही नहीं नरेन्द्र मोदी ने दैनिक जागरण के साक्षात्कार में स्पष्ट कर दिया कोई कुछ भी कहे मैं हर अपमान सहने को तैयार हु।
दिनरात कमरतोड प्रचार के बाद भी चेहरे पर जरा सी थकान के निशान नहीं है। सात चरणों के मतदान के बाद भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार आत्मविश्वास से लबरेज नजर आते है। भाजपा और राजग के अब तक के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन का दावा कर रहे मोदी को सबसे ज्यादा भरोसा देश के युवा मतदाता से है। साम्प्रदायिक धुव्रीकरण की राजनीति के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराते हुए कहते है कि लोगों का मिजाज बदला है। वोट बैंक की राजनीति करने वाले दलों को सबक सिखा कर जनता ने इस दफा भाजपा को पूर्ण बहुमत देने का निर्णय ले लिया है।
मोदी युग का आगाज-पार्टी का घोषणा पत्र देर से आने की वजह शीर्ष मंडल से मोदी वह सलाह दी है कि वादें वहीं करेंगे जो पूरा कर सकेंगे। इसी कारण लिखे हुए घोषणा पत्र को पुनः लिखना पडा। शीर्ष मंडल को मोदी के सामने झुकना पडा। भाजपा में मोदी युग वाजपेयी युग से बिल्कुल अलग होगा। अटल बिहारी वाजपेयी बडे आंदोलन पर सवार होकर सत्ता में आए थे। जिस अयोध्या आंदोलन ने जिन्हें सत्ता में पहुंचाया वह वाजपेयी का आंदोलन नहीं था। वाजपेयी उस आंदोलन के समर्थक भी नहीं थे।
शायद यही वजह है कि वाजपेयी ने कभी संगठन के कामकाज में ज्यादा दखल अंदाजी नहीं की। परंतु नरेन्द्र मोदी के साथ ऐसा नहीं होगा। मोदी किसी आंदोलन के रत पर सवार होकर सत्ता के मूहाने पर नहीं खडे है। वह अपनी पार्टी के नेताओं की वजह से यहां तक नहीं पहुचे है। वह उनके बावजूद इस मुकाम पर पहुंचे है। वाजपेयी उत्तर भारत के थे। और ब्राह्मण भी थे लेकिन मोदी के साथ ये दोनों बाते नहीं है। भाजपा में मोदी युग का प्रारंभ पार्टी के नेतृत्व में पीढी का ही परिवर्तन नहीं है। या नेतृत्व के स्तर पर बदलते सामाजिक समीकरण की भी दस्तक है। मोदी की स्वीकार्यता में उनकी जाति का कोई योगदान नहीं है। लेकिन नेतृत्व संभालने के बाद उनकी जाति भी उनकी ताकत बन गई है। वाजयेपी और मोदी में एक समानता है दोनों एक अच्छे कोम्यूनिकेटर है। ये अलग बात है कि मोदी के पास वाजपेयी जैसी भाषा नहीं है।
इस समय भाजपा में मोदी एक ऐसे अकेले नेता है जिन्हें लोग सूनने और मानने को तैयार है। मोदी भाजपा से बडे हो गए। या ऐसा कहें कि मोदी का कद भाजपा से बडा हो गया हैं। भाजपा के लिए 2014 के चुनाव का यही सच है। यही कारण है कि विरोध राजनैतिक दलों का हमला भाजपा से ज्यादा मोदी पर है। भाजपा इस समय 2014 के फिल गुड की मनोदशा से गुजर रही है। उस समय वो सत्ता में थी उस समय ऐसा लग रहा था कि चुनाव परिणामों की घोषणा की औपचारिकता भर बाकी है। सत्ता में है और वो बनी रहेगी। आज फर्क इतना है कि वह सत्ता में नहीं है। पर उसे एक बार फिर पार्टी को लग रहा है कि सत्ता में आने के लिए महज परिणामों का इतजार है।
मोदी अपनी सभाओं मे कह रहे है कि फैसला हो चुका है। वह अपने मूल मुद्दों में 2004 में खडी थी और आज भी खडी है। भारतीय जनता पार्टी ने अपने को जितना बदलने की कोशिश की है। उतनी वह पहले जैसी नजर आ रही है। पार्टी के विचारधारा में झंडावरदार माने जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी ने 1998 में मान लिया था कि सत्ता चाहिए तो विचारधारा में परिवर्तन करना पडेगा। 7 अप्रेल को उन्होंने मान लिया कि सत्ता चाहिए तो नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व को स्वीकार करना चाहिए।
मोदी युग का आगाज तो पार्टा अपने अंदर महसूस कर रही है। परतु देश की सवा सौ करोड जनता ईवीएम में क्या फैसला देगी। यह 16 मई को पता चलेगा। अगर देश के 543 सीटों पर नजर डाले तो स्थितियां कही न कही सबसे ज्यादा सीटें भाजपा के पाले में नजर आती है। बहुत से कांगे्रसियों को मौके पर किनारा करते देखा गया है कि भीतर से लगा झटका पार्टी को साल रहा है। खासकर गृहमंत्री पी चिदम्बरम एवं सूचना प्रसारण मंत्री का चुनाव दौर से अलग हो जाना एक असामान्य घटना है।
कांग्रेस की छवि को जहां एक ओर प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह के उर्जाहिन नेतृत्व से नुकसान पहुचा है। वहीं पिछले पांच सालों में सुर्खिया बनाते रहे नेताओं का ऐन वक्त में किनारे हो जाने से भाजपा की इस दलील ने बहुत से मतदाताओं के मानस को प्रभावित किया है। कांगेे्रस के मंत्री अपने कार्यकाल के किए गए और ना किए गए कामकाज का उत्तरदायित्व लेने के लिए तैयार नहीं है। वे मतदाता के सवाल का जवाब देने से दूर भाग रहे है हालाकिं यह बात अलग है कि सप्रंग के मंत्रियों को अकर्मण्य और भ्रष्ट के रूप में प्रचारित करती रही है। दूसरी ओर राजनीतिक लाभ के लिए पुरदेंश्वरी जैसे मंत्रियों को अपने खेमें में शामिल करने में कोई हिचक नहीं है। वरिष्ठ और जिम्मेदारी कांग्रेसी नेताओं की पलायनवादी प्रवृति से पहले ही कूद पडी। उसकी राजनीतिक संभावनाओं को ओर डामाडोल कर रही है।
नोएडा लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेसी उम्मीदवार रमेशचन्द्र तोमर का मामला जहां भारतीय राजनीति की साख विडम्बनाओं तथा विद्रपताओं की ओर इशारा करता है। वहीं पार्टी की मानसिक स्थिति को पता करती है। सपं्रग के अंतिम दिनों में तेजी दिखाने के बावजूद राहुल गांधी जैसे युवा एवं सक्रिय नेता साथ में नेतृत्व सौंपने के बाद भी कांग्रेस अपने संगठन के भीतर पनप रहे निराशावाद का समाधान खोजने में नाकाम रही। पार्टी के नेता उस दिशा को खोदने के लिए नए नए आरोप लगा रहे है जहां संभावनाए बेहतर है।
इन नेताओं के निजी राजनैतिक चरित्र एवं अवसरवाद मात्र को प्रकट नहीं करता है। वह उस राजनैतिक शून्यता की ओर इशारा करता है जो सोनिया गांधी के राजनीतिक परिदृश्य से पीछे हट जाने के कारण अचानक पैदा हो गयी है। राहुल गांधी धीरे धीरे अपना प्रभाव बना रहे है। फिलहाल वह सोनिया गांधी का विकल्प नहीं बन सकते है। नहीं वे पिछले पांच साल के दौरान बनी अपनी सरकार के विरूद्ध जनभावनाओं को अपने भाषणों, वादों और रेलियों को निष्प्रभावी कर सकते है।
हार को लेकर भय क्यों-
पी चिदम्बरम एवं मनीष तिवारी जैसे नेताओं का चुनावी दौर से पिदे हट जाना और पूरदेश्वरी, जगदम्बिका पाल, सतपाल महाराज जैसे सियासतदानों का भाजपा की ओर मुख करना कांग्रेस कार्यकर्ताओं के उत्साह को बढाने वाला नहीं है। जिस अंदाज में नरेन्द्र मोदी रैलियां कर रहे है। और 2009 से मतदान प्रतिशत से बढने से खासा उत्साह देखा जा सकता है। भाजपा का उनका उनके नाम से जुडना एक उत्साह ही है। ऐसी दशा में वरिष्ठ नेताओं को युद्ध स्तर पर प्रचार करने की जरूरत थी। क्यूकिं जाने माने नेताओं की छवि नए नेताओं से बेहतर होती है।
चुनावी पराजय को लेकर भयभीत होने की जरूरत नहीं है। वह तो राजनीति का अनिवार्य पहलु है। इदिरा गांधी एवं अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता चुनाव हार चुके है। उससे उनका राजनैतिक कद कम नहीं हुआ। सब ने चुनाव ना लडने के अलग अलग कारण बताए है। पार्टी के कद्दावर नेता नई पीढी को आगे लाना चाहते है। फिर अपने कार्ति चिदम्बरम के लिए राजनीतिक जमीन तैयार करनी है। दूसरी ओर मनीष तिवारी ने बिमारी का बहाना बनाया है। अनेक नेता इस बात से परेशान है कि उन्हें अपना संसदीय क्षेत्र नहीं बदलने दिया। कांग्रेस में अनेक नेताओं ने इसका आग्रह किया था लेकिन पार्टी कार्यकर्ताओं के विरोध के चलते राहुल गांधी ने इसे स्पष्ट रूप से मना कर दिया।
चुनाव क्षेत्र में परिवर्तन-
हालाकिं चुनाव क्षेत्र की सीमा में परिवर्तन करना कोई बुराई नहीं है। आरोप लगाने वाली पार्टी कांग्रेस खुद इस बार राज बब्बर, मोहम्मद अजहरूद्दीन, सीपी जोशी जैसे नेताओं के क्षेत्र में क्रम सा परिवर्तन किया । सुरक्षित मांगने के बावजूद पार्टी में उन्हें स्वीकृति नहीं मिली। भाजपा में भी ऐसा हुआ है नरेन्द्र मोदी गुजरात के साथ साथ उत्तरप्रदेश से चुनाव लड रहे है। पार्टी अध्यक्ष राजनाथसिंह, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती आदि भी नए क्षेत्रों में गए है। अरूण, जेटली, स्मृति ईरानी, हेमामालिनी को राज्यसभा सदस्यता के बावजूद ऐसे क्षेत्रों से चुनाव में उतारा है जहां उनके चुनाव लडने की संभावना नहीं देखी जा रही थी।
हालांकि कुछ नेताओं को इधर उधर करने से उम्मीदवारों में नाराजगी देखी गई। संसदीय क्षेत्र बदलकर पार्टी अपनी चुनावी तालिका बेहतर बनाने के लिए आश्वस्त दिखती है। कांग्रेस इन मुद्दों में असहज क्यों हो गई। समझना मुश्किल है खासकर तब जब पार्टी का इतिहास ऐसी मिसालों से भरा पडा है। इंदिरा गांधी ने रायबरेली में हार के बावजूद चिकमलूर से चुनाव लडा और जीत भी गई। राजनीति में धर्म गुरूओं या धार्मिक संस्थाओं से जुडे लोगों की रूचि नही है।
मौजूद चुनाव में कही धर्म ध्वजा धारी राजनीतिक दलों के प्रचार में जुटे है इनमें बाबा रामदेव शीर्ष पर है जो कि न केवल योग शिविर के माध्यम से भारतीय जनता पार्टी को वोट देने की अपील करते है। बल्कि चुनाव आयोग से पंगा लेने के लिए तैयार रहते है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, उपाध्यक्ष राहुल गांधी को लेकर जितना तीखा रामदेव बोलते है, शायद ही कोई नेता बोलता हो। बजाय इसके जब शाही इमाम ने कांग्रेस के पक्ष में वोट देने की बात कही तो भाजपा आग बबुला होने का स्वांग कर रही थी कि इन सबके बीच सबसे बडा सवाल है कि कांग्रेस दिग्गजों का कौशल चुक गया है। या फिर नरेन्द्र मोदी के आंधी से बौखला गए है।
पाकिस्तान की बौखलाहट मोदी और कश्मीर नीति-
पाकिस्तान और कश्मीरी नीति का विश्व स्तरीय झगडा है। कांग्रेस का लचीलापन इन स्थितियों को साफ तौर पर सुलझाने में असमर्थ रहा है। मगर नरेन्द्र मोदी की चुनावी लहर को देखकर पाकिस्तान ने स्पष्ट किया कि दोनों देशों के बीच शांति सौहार्द्ध बिगड सकता है। परतु ऐसा नहीं है मोदी देशभक्त है। उनका इस तरह का रूख एकदम नहीं है। लेकिन एक बात स्पष्ट है कि गलत नीति बिल्कुल स्वीकार नहीं करेंगे। कडे कदम उठा सकते है। और खामियाजा भी भुगतना पड सकता है। परंतु सवाल उटता है कि क्या कश्मीर पर मोदी की कोई योजना है भाजपा नेताओं को राष्टीय अस्मिता से जुडे मुद्दों पर अपनी बात कहने के लिए जाना जाता है इसके राजनैतिक लाभ होते है। लेकिन वो ऐसे मुद्दे में स्टैण्ड लेने में समक्ष है।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को याद कर किजिए उनकी पहली सरकार 13 दिन चली। लेकिन दूसरी बार उन्होने परमाणु परीक्षण का साहसिक कदम उठाने में परहेज नहीं किया भले ही जवाब में पाकिस्तान ने परमाणु परीक्षण कर दिया हो। अटलजी ने सिद्ध कर दिया कि संवेदनशील मुद्दों पर ठोस फैसले लेने में सक्षम है। इस प्रकार संदेश दूर तक जाता है। इससे राजनीतिक लाभ भी है। परतु मोदी को लेकर देशभक्त ज्यादा राजनैतिक लाभ कम दिखता है।
नरेन्द्र मोदी के मन में कश्मीर को लेकर कोई योजना होना आश्चर्य की बात नहीं है। पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कुछ दिन पहले उधमपुर में कहा था कि पार्टी सत्ता में आने के बाद कश्मीर मुद्दे पर पहली प्राथमिकता देगें। मगर कश्मीर पर मोदी की विचारधारा क्या है, स्पष्ट विवरण उपलब्ध नहीं है। बहरहाल इतना तय है कि मोदी की नीति में अधिक लचीलापन की गंुजाइश नहीं है। भाजपा का कश्मीर के साथ भावात्मक संबंध है। कश्मीर के लिए पार्टी के पितृ पुरूष डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी के बलिदान की गाथा पार्टी कार्यकर्ता गांव, शहर शहर में दर्शकों को सुनाते आए है।
धारा 370 के प्रतिरोध में भाजपा सबसे आगे रहे है विस्थापित कश्मीर पंडितों के साथ पार्टी का भावात्मक जुडाव है। मोदी धारा 370 के आलोचक रहे है। पिछले साल कश्मीर पर महत्वपूर्ण भाषण में इंसानियत, जम्हूरियत, कश्मीरियत की नीति का जिक्र किया था। वास्तव में इस नीति के मूल वास्तुकार अटलजी है। जिन्होंने कहा था कि कश्मीर समस्या का समाधान लोकतंत्र एवं मानवीयता के दायरे में रहते हुए किया जाएगा। स्पष्ट है पार्टी अटलजी की नीति पर अडिग है।
इस नीति में भारत की एकता और अखंडता के साथ झलक मिलती है। चर्चा भले ही गिलानी से हो या पाकिस्तान से कश्मीर के भविष्य पर भाजपा या मोदी के रूख को लेकर किसी भी किस्म की आंशका अनावश्यक है।
मतदान के प्रति युवा उत्साह-सोशल मीडिया के माध्यम से इसकी सही स्थिति का आकलन लगाया जा सकता है बढा मतदान प्रतिशत इस बार साफ संकेत दे रहे ह ैअबकी बार परिवर्तन की सरकार। देश के युवा को रोजगार चाहिए। आर्थिक व्यवस्था अच्छी होनी चाहिए। अंतराष्टीय संबंध सुदृढ होने चाहिए ताकि विदेशों में शिक्षा और रोजगार का स्तर बेहतर हो। नीति स्पष्ट हो। ढुलमूल नीति से देश की अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचती है। लेकिन एक बात स्पष्ट है नरेन्द्र मोदी ने युवाओं को जोडने का सार्थक प्रयास किया है।
सभी चाहते है कि एक परिवर्तन ऐसा हो जो देश की तस्वीर बदल दें। ठीक उसी प्रकार भाजपा ने नारा दिया है सबका साथ सबका विकास। अलग अलग शहरों में अलग अलग स्थिति दिख रही है। युवाओं की स्थिति में लगभग एक मत सा है। चुनाव के दौरान कई लोगों से बात करने से पता चलता है वास्तव में लहर तो है लेकिन यह लहर कितनी लम्बी है इसका अंदाजा लगाना थोडा कठिन काम है। शहरों और देहातों में बडा अंतर देखने कों मिला। जहा शहरों में युवा का आकर्षण मोदी हुआ ग्रामीण इलाको में जातिवादी समीकरण पूरी तरह व्याप्त है। उन्हें किसी लहर का असर नहीं दिख रहा है। ठीक उसी प्रकार मुस्लिम वोटों का नजरिया स्पष्ट है। लेकिन मुस्लिम वोट बसपा, सपा, कांग्रेस और आप में बटता नजर आ रहा है। जिसका सीधा असर भाजपा को होगा।
इस लहर का प्रभाव बनारस में नामांकन के दिन देखने को मिला। कई चैनलों ने इसे सीधा प्रसारण दिखा कर चुनावी समीकरण को बदलने में अहम भूमिका निभाई। चुनाव अपनने अंतिम दौर में है। कांग्रेस अपना आखिरी दांव फंेककर मोदी को घेरने का पूरजोर प्रयास कर रही है। मोदी को च्रकव्यूह तोडना विरोधियों ने बखूबी सिखा दिया है। लोकतंत्र के इस महापर्व में परिवर्तन की लहर है। मतदाताओं में खासा उत्साह है। ऐसा लगता है कोई वीर धीर पुरूष आकर इनकी सारी समस्याओं को छूमंतर कर देगा। यह तो वक्त ही बताएगा आखिर दो चरण बाकी है। मतदाता कुछ भी कर सकता है। सभी पार्टीया गंभीर कयास लगाए बैठी है।
मोदी ने बदला मेढकी नजरिया-भारतीय जनता पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी को अमेरिकी वीजा मामले को अमरीका और भारत में काफी तनातनी रही है। गुजरात के मुख्यमंत्री होने के बावजूद अमरिका ने वीजा देने से इनकार कर दिया। राजनसिक दृष्टि से अनुचित माना गया था लेकिन अमरिका के लिए भी मोदी के प्रधानमंत्री बनने की सूरत में ठीक नहीं होगा।
मोदी स्पष्ट कर चुके है कि अमेरिकी फैसले के बाद वीडियो कान्फ्रेसिंग के जरीए दो बार अमेरिका में कार्यकमों को सम्बोधित किया अमेरिका सरकार हमेशा ही अपने अपनी कंपनी के व्यवसायिक हितों की रक्षा के लिए प्रयासरत रहती है। अमेरिकी कांग्रेस के एक प्रतिनिधि मंडल ने गुजरात में मोदी से मिलकर उनके साथ संबंध बनाने का प्रयास किया था।
हालाकिं विदेश नीति को लेकर नरेन्द्र मोदी की सोच सामने नहीं आ पायी। इस बात का आभास जरूर है कि चीन में जो वर्तमान भारत की ढुलमूल नीति के बदले विस्तारवादी सोच रखता है। जिसे अब थमना पडेगा। पाकिस्तान मीडिया और टेलिविजन के कार्यक्रम में कोई पैमान होतो यह स्पष्ट है कि पाकिस्तान भारत में एक मजबूत नेतृत्व के उभरने के डर से ग्रस्त है।
पाकिस्तानी सुरक्षा एजेसी भी इस बात में गंभीरतापूर्वक विचार कर रही है। अमेरिका, यूरोप और जापान आने वाले समय में अपने व्यवसायिक हितों को लेकर मोदी के साथ संबंध सुधारने में लगे है। तो दूसरी ओर शत्रु राष्ट तमाम घटनाक्रमों पर नजर गडाए दिखाए देते है। ऐसे में दुनियाभर में अपनी दादागिरी के लिए प्रसिद्ध अमेरिका का नरेन्द्र मोदी के प्रति अपना व्यवहार बदलने की बात में कोई आश्चर्य नहीं चाहिए। लेकिन इन तमाम घटनाक्रम में मोदी को अमेरिका की विडम्बना साफ दिखाई देती है।
चुनाव नतीजों के बाद नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी बदलेगी और अटल बिहारी वाजपेयी की तरह नरेन्द्र मोदी संगठन और सरकार के मामले में विरक्त का भाव लेकर उपस्थित नहीं रहेंगे। सत्ता संचालन के सूत्र उनके हाथ में होंगे। गुजरात में पार्टी ओैर सरकार दोनों नरेन्द्र मोदी के अभिन्न है। नरेन्द्र मोदी ऐसे नेता मेें है जो निजी और दलगत सरकार के तौर पर अपनी ताकत को और बढाना चाहेंगे। वो केवल प्रधानमंत्री की कूर्सी पाकर सन्तुष्ट हो जाने वालों में नहीं है।
शायद यही वजह है कि बहुत से राजनैतिक विश्लेष्क उनकी तुलना पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से करते है। दोनों नेताओं मे यह फर्क है कि इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद ताकत हासिल की। वहीं नरेन्द्र मोदी ताकत हासिल करने के बाद प्रधानमंत्री पद की ओर बढ रहे है। प्रधानमंत्री बनेंगे या नहीं इसका फैसला देश का मतदाता करेगा हालाकिं भाजपा में यह फैसला हो गया है।