सोशल मीडिया का आविष्कार लोगों को आपस में जोड़ने के लिए हुआ था लेकिन आजकल यह लोगों को एक दूसरे से दूर कर रही है। फेसबुक, व्हाट्सएप,यू-ट्यूब, इंस्टाग्राम, टि्वटर आदि के माध्यम से माध्यम से जहां यह सोचा गया था कि था कि लोग आपस में जुड़ेंगे और एक दूसरे के साथ अपने अनुभव साझा करेंगे। एक दूसरे की भावनाओं को समझ कर व उनके अनुभवों से सीखते हुए समाज एक से अधिक विचारों से समृद्ध होगा। इससे लोगों में विचार-विनिमय होगा जिससे एक दूसरे को बेहतर ढंग से समझ पाएंगे और एक दूसरे के विचारों का आदर करना सीखेंगे।
इस प्रकार ज्यादा समावेशी समाज अस्तित्व में होगा, जिससे नस्ल, भाषा, देश, जाति, धर्म, लिंग, विचारधारा आदि के कारण होने वाले टकराव समाप्त होंगे। विविधताओं का सम्मान होगा व दोतरफा संवाद के द्वारा गलतफहमियाँ समाप्त होंगी। लोग सारे भेद भुलाकर एक दूसरे के निकट आएंगे। मतभेदों को स्वीकार करके मानव मात्र की एकता पर बल दिया जाएगा। सभी एक इंसान और नागरिक के रूप में होंगे।
ऐसे में यह देखना बहुत दुखद है कि आज यहाँ भी लोगों को आपस में जोड़ने से ज्यादा तोड़ने वाली चीजें दिखाई देती हैं। लोग किसी को भी ट्रोल कर देते हैं। किसी के ड्रेस को लेकर अभद्र टिप्पणियां करते हैं। लोगों की निजी जिंदगी में भी हस्तक्षेप करते हैं। खुलेआम धमकियां दी जाती हैं।
लोग एक दूसरे की बातों से जब सहमत नहीं होते तो वह अपशब्दों का प्रयोग करने में संकोच नहीं करते हैं। कई बार तो वास्तविक हिंसा की स्थिति बन जाती है। आये दिन किसी के द्वारा सोशल मीडिया पर कुछ टिप्पणी करने पर उसपर हमलों की घटनाएं देखने को मिल जाती हैं।
हम असहमति का सम्मान करना भूलते जा रहे हैं।
असहमति को अपराध मानने की मानसिकता लोकतांत्रिक भावना के विरुद्ध है। लोकतांत्रिक होने का अर्थ है असहमति को भी सम्मान देना। यदि हम बिना किसी पूर्वागह के दूसरे की बात को गौर से सुनेंगे तो उसके सत्य को भी जान पाएंगे।
जिसे हम सत्य मानते हैं वह हमारा विश्वास होता है सत्य नहीं। यही नहीं हम जो सोचते हैं और जो दूसरा व्यक्ति हमसे अलग बोल रहा होता है वह भी सत्य हो सकता है।
छः अलग-अलग व्यक्ति जिन्होंने कभी हाँथी नहीं देखा था, जब वे आंखों में पट्टी बांधकर उसके आकर का अनुमान लगाते हैं तब वे सभी अपनी जगह सही होते हुए भी सच्चाई से दूर ही होते हैं। सच्चाई का पता सबके अनुभवों को एक साथ रखने पर चलता है। उनसब के खंडित सत्य को मिलाकर ही सम्पूर्ण सत्य की खोज की जा सकती है। अकेला व्यक्ति कितना भी अनुभवी क्यों ना हो संपूर्ण सत्य की खोज नहीं कर सकता है। इसके लिए अन्य लोगों के साथ संवाद बेहद आवश्यक है।
हमें समझना होगा कि विभिन्न प्रकार के विचारों व अनुभवों वाले व्यक्तियों के आपस में संवाद से ही तमाम समस्याओं का हल निकल सकता है। इनमें जातिगत विद्वेष, धार्मिक उन्माद, लैंगिक विभेद आदि शामिल हैं।
सोशल मीडिया के द्वारा हमें सार्थक संवाद स्थापित करना चाहिए। इस प्लेटफार्म के रचनात्मक इस्तेमाल से हम एक समरस समाज बनाने में योगदान कर सकते हैं। इसके विवेकपूर्ण प्रयोग से हम सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं।