रोजा रखना व पाकिजकी के साथ इबादत करना इस महीने का खास मकसद है, और
रोजा रखने का मतलब केवल भूखे-प्यासे रहना नहीं बल्कि हर तरह से पाक रहना भी है। हदीश के अनुसार, रोजादार हैं जिन्हें उनके रोजे के सिवाये भूख और प्यास के कुछ नहीं मिलता। इस्लामी इबादात में इंसान की जिन्दगी में इसके गहरे प्रभाव होते हैं। मजहब-ए-इस्लाम ने कोई ऐसा अम्ल फर्ज नहीं किया है जिसके परिणाम वह प्रभाव इंसानी जिन्दगी में जाहिर न हो।
इस्लाम में इबादत की हैसियत टैक्स व जुर्माना की नहीं है के जिसका मकसद बोझ उतारना हो। इबादत की हैसियत अल्लाह और उसके बंदे के दरम्यान एक मुकदष और मजबूत तअल्लूक की आइनादार होती है। रोजा एक रूहानी दवा भी है जो पूरा साल इस दवा में सर्फ कर दिया जाता तो यह गैर फितरी इलाज कहलाता और मुसलमानों के जिस्मानी जदोजहद के खात्मा का सबब होता।
इसी तरह अगर एक दो रोज की तहदीद कर दी जाती तो यह मुद्दत इतनी कम थी के दवा का असर भी जाहिर नहीं होता। यही कारण है कि इस्लाम में रोजा के लिए एक माह का समय निर्धारित किया। रोजा का एक अहम फायदा यह भी है कि यह इंसान को बेहतर तरबीयत देता है। इंसानी दिमाग व रूह की सफाई के लिए मुनासिब वह बेहतरीन इलाज भी है। रोजा की भूख अनेक सबक भी सिखाता है।