जिस समय प्रेमचंद गोदान लिख रहे थे, उस समय उनके सामने स्वराज की नयी कल्पनाएँ और धारणाएं मौजूद थी. वे एक ऐसी स्वाधीनता चाहते थे जो राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक और सांस्कृतिक भी हो. वे उपनिवेशवाद से ही नहीं, सामंती और पूंजीवादी शोषण, पराधीनता, संकीर्ण राष्ट्रवाद और जाती व्यवस्था से भी भारतीय समाज की मुक्ति चाहते थे. वे अमीरों का नहीं, गरीबों का, शोषितों और पीड़ितों का, किसानों, दलितों, मजदूरों और स्त्रिओं की स्वाधीनता से पोषक समाज चाहते थे. इन्हीं सब बिन्दुओं को धरातल पर रख कर प्रेमचंद ने गोदान की रचना की. गोदान में प्रेमचंद ने जिस समाज को पाठक वर्ग से सामने रखा है वह सामंती और पूंजीवादी शोषण का साफ़ और सीधा उदहारण है.
प्रेमचंद ने गोदान में प्रस्तुत सभी पात्रों के मध्य रिश्तों के अलावा स्वार्थ के कारण जन्म लेने वाले संबंधों की भी चर्चा की है. होरी का यह कथन इस बात को सत्यापित करता है, ‘गाँव में इतने आदमी तो है, किस पर बेदखली नहीं आई. किसपर कुड़की नहीं आई. जब दूसरों के पाँवों तले अपनी गर्दन दबी हुई है, तो उन पाँवों के सहलाने में ही कुशल है.’ गोदान के पात्र एक दुसरे से अधिकतर इसलिए जुड़े रहते थे कि वक़्त आने पर उन्हें उनसे कोई लाभ मिल सके. महाजन किसानों से सूद की रकम न मिलने पर भी उनसे कभी कभी प्यार से बात करते थे क्योंकि वह किसी न किसी बहाने उनका शोषण कर ही लेते थे, या तो उनसे असल से जायदा रकम लेकर या फिर उनसे उनकी जमीन लिखवाकर. वहीँ किसानों को भी महाजनों से दब कर रहना पड़ता था क्योंकि वह उनसे पैसे के बल पर दबे हुए थे. इस तरह की आर्थिक दृष्टि से बदलते सम्बन्ध प्रेमचंद ने अपने गोदान में अनेकों प्रसंगों में प्रस्तुत किये हैं. यहाँ तक की होरी और गोबर के बीच भी एक संवाद में गोबर के पास पैसे आ जाने पर वह होरी के ऊपर खर्च करना नहीं चाहता और पैसे देने से साफ मन कर देता है, ‘तुमने खाया है, तुम भरो। मैं क्यों अपनी जान दूं ?’
‘गोदान उपन्यास में नागरिक और ग्रामीण पात्र एक बड़े मकान में दो खंडों में रहने वाले दो परिवारों के समान हैं, जिनका एक-दूसरे में जीवनक्रम से बहुत कम संपन्न है। वे कभी-कभी आते-जाते मिल लेते हैं और कभी-कभी किसी बात पर झगड़ा भी कर लेते हैं, परन्तु न तो उनमें मिलने और न झगड़ने में ही ऐसा कोर्इ संबंध स्थापित हो पाता है जिसे स्थायी कहा जा सके.
‘गोदान’ का नायक होरी महज तीन बीघे जमीन का जोतदार है और जन्मना वह महतो जाति के दलित परिवार से आता है। उत्तर भारत के कुछ सूबों में अब भी महतो को अनुसूचित जाति का दरजा हासिल है। पत्नी धनिया, बेटा गोबर (गोबरधन धनाभाव में गोबर का संबोधन पाता है), बेटी सोना-रूपा, बहू झुनिया का समूचा परिवार तीन बीघे की खेती पर ही निर्भर है, जिसमें आधी उपज उधार बीज देने वाले दातादीन को ही देनी पडती है। दलित होने के नाते न तो होरी और उसके परिवार को सम्मानजनक ढंग से जीने का हक है, न अच्छा खाने-पहनने का ही। उच्च वर्ण कदम-कदम पर शोषण करता है, कभी धर्म-परम्परा-रूढ-कुरीति का भय दिखाकर तो कभी बहला-फुसलाकर। जब अपना स्वार्थ साधना हो तो होरी दातादीन जैसे ब्राह्मण को भी अपने परिवार का सदस्य ही नजर आता है। वह होरी को पुचकारते हुए कहता है, ‘तुम शूद्र हुए तो क्या, हम ब्राह्मण हुए तो क्या ! हैं तो सब एक ही परिवार के।
गोदान उपन्यास में समाजिक संबंधों के परिप्रेक्ष्य में शोषित वर्ग के प्रति पूंजीवाद की विचारधारा पर मि. मेहता टिप्पणी करते हैं, “मैं प्रश्नों का कायल नहीं. मैं चाहता हूँ, हमारा जीवन हमारे सिद्धांतों के अनुकूल हो. आप कृषकों के शुभेच्छु हैं, उन्हें तरह–तरह की रियायत देना चाहते हैं, जमींदारों के अधिकार छीन लेना चाहते हैं, बल्कि उन्हें आप समाज का शाप कहते हैं, किर भी आप जमींदार हैं, वैसे ही जमींदार जैसे हजारों और जमींदार हैं। अगर आपकी धारणा है कि कृषकों के साथ रियायत होनी चानए, तो पहले आप खुद शुरू करें –काश्तकारों को बगैर नजराने लिए पट्टे लिख दें, बेगार बंद कर दें, इजाफा लगान को तिलांजलि दे दें, चरावर जमीन छोड़ दें। मुझे उन लोगों से जरा भी हमददी नहीं है, जो बातें तो करते हैं कम्युनिस्टों की–सी, मगर जीवन है रईसों का–सा, उतना ही विलासमय, उतना ही स्वार्थ से भरा हुआ।“
प्रेमचंद को अपने समकालीन सभी परिस्थितिओं एवं समस्याओं की समझ थी. समाज का हर वर्ग किस रूप में अपना जीवन निर्वाह कर रहा है इसका उनको भली-भांति ज्ञान था. यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद ने वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में भविष्य की कल्पना कर ली थी. जिसके आधार पर उन्होंने ‘गोदान’ की रचना की होगी. गोदान का समाज निम्न वर्ग की घरेलु दिनचर्या से शुरू होता है और सामंतवाद की शोषण प्रक्रिया पर जाकर समाप्त हो जाता है.