ऐसी स्थिति में स्वाभाविक हैं कि आम जनता के मूल मुद्दों को चुनाव से गायब करने के लिए व्यक्ति को ही मुद्दा बनना पड़ेगा। फलस्वरूप, आज देश में मूलरूप से तीन व्यक्ति देश के प्रमुख मुद्दों की तरह दिखाई पड़ रहे हैं – नरेन्द्र मोदी, राहुल गांधी और अरविन्द केजरीवाल। लेकिन लाख टक्के का प्रश्न यह है कि क्या वोटर सिर्फ मूकदर्शक बनकर ही रह जायेगा या मुद्दाहीन राजनीति को जोर का झटका देगा? प्रश्न यह भी है कि आम जनता के मुद्दे चुनाव से गायब क्यों हो रहे हैं? और क्या देश का तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग का दिमाग काम नहीं कर रहा है?
देखा जाये तो आजाद भारत के पास रोटी, कपड़ा, मकान, भूमि सुधार, सड़क, पानी, बिजली, शिक्षा और स्वस्थ्य जैसे बुनियादी मुद्दे थे। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने देश में औद्योगिक विकास को बढ़ावा देकर देश के बुनियादी समस्याओं का समाधान निकालने की कोशिश की लेकिन यह विकास मॉडल ही अन्याय पर आधारित था इसलिए समस्याओं का समाधान निकलने के बदले इस विकास मॉडल ने देश के लिए विस्थापन जैसी गंभीर समस्या उत्पन्न कर दिया। वहीं भूमि सुधार को ईमानदारी से लागू नहीं करने और औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने की वजह से ‘‘नक्सलवाद’’ की समस्या पैदा हुई जिसे भारत सरकार देश के अंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानती है।
नक्सलवाद की समस्या को खत्म करने के लिए केन्द्र सरकार ने अरबों रूपये खर्च किया है लेकिन यह समस्या घटने के बजाये बढ़ते ही जा रही है। हकीकत में देखा जाये तो राष्ट््रीय एवं क्षेत्रिये राजनीतिक दलों द्वारा प्रत्येक आम चुनाव में आम जनता के मूलभूत मुद्दों का निपटारा करने का दावा किया जाता है लेकिन चुनाव समाप्त होते ही पार्टी और नेता अपना वादा भूल जाते हैं। फलस्वरूप, आज आम जनता भी इसे उब चुकी है, जिसके बारे में नेताओं को अच्छी तरह से मालूम है इसलिए अब वे आम जनता के मुद्दों पर बात ही नहीं करना चाहते हैं और अपने केन्द्रीय नेताओं को ही मुद्दे की तरह अपने चुनाव क्षेत्र में पेश करने में जुटे हुए हैं।
इतिहास गवाह है कि भारतीय लोकतंत्र में औद्योगपति हमेशा से प्रमुख भूमिका में रहे हैं। देश के आजादी की लड़ाई में भी औद्योगपतियों का काफी योगदान रहा है लेकिन देश में लोकतंत्र की स्थापना के बाद औद्योगपतियों का लोकतंत्र में सीधा हस्तक्षेप नहीं था और चूंकि भारत लोक कल्याणकारी राज्य होने की वजह सरकारों का ज्यादा ध्यान भी आम जनता के हितों में था। लेकिन 1991 में उदारीकरण के बाद भारतीय लोकतंत्र में औद्योगिक जगत का बोल-बाला शुरू हो गया और वे अपने जरूरत के हिसाब से केन्द्र और राज्य सरकारों से कानून और नीतियों बनवाने लगे और यहीं से भारतीय लोकतंत्र का औद्योगिकरण शुरू हुआ।
वे इसके लिए नेताओं के चैंबर में लॉबी करते थे। लेकिन जब लोकसभा और राज्यसभा में लोगों के प्रतिनिधि पहुंचकर उनका रास्ता रोकने की कोशिश की तब उन्होंने स्वंय ही जनता का प्रतिनिधि बनना शुरू किया। फलस्वरूप, वे संसद सदस्य बनकर स्वयं हस्तक्षेप कर रहे हैं। वर्तमान में संसद के दोनों सदनों को मिला दें तो 100 से ज्यादा औद्योगपति संसद सदस्य हैं, जो इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि अब हमलोग कॉरपोरेट लोकतंत्र के हिस्सा बन चुके हैं।
बात यहीं खत्म नहीं होती है। आज हमारे देश का लोकतंत्र मुंबई शेयर बाजार की तरह एक और शेयर बाजार बन गया है, जहां नेता आम जनता का वोट खरीदते हैं, वोटर वोट बेचते हैं और औद्योगपति इसमें पैसा लगाते हैं। यह कौन नहीं जानता हैं कि एक विधायक बनने के लिए कम से कम 70 लाख से 1 करोड़ रूपये एवं सांसद बनने के लिए 3 से 5 करोड़ का खर्च होता है? यहां सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि ये पैसे कहां से आते हैं? जब सूचना अधिकार कानून राजनीतिक दलों में लागू करने की बात हुई तो कोई दल इसके लिए तैयार नहीं हो रहा है। क्यों? यह इसलिए क्योंकि सभी दलों को औद्योगपति पार्टी फंड में पैसा देते हैं और बदले में हमारे नेता उनको सस्ते दाम पर जमीन, बिजली, पानी, खनिज और अन्य सुविधा उपलब्ध कराते हैं।
कोलगेट प्रकारण इसका सबसे ताजा उदाहरण है, जहां देश के सबसे अमीर व्यक्ति मुकेश अंबानी और कई अन्य उद्योगपतियों को भारी फायदा पहुंचाया गया वहीं लीज नवीनीकरण के समय टाटा कंपनी को भारी छूट दी गयी। इतना ही नहीं औद्योगपतियों को प्रोत्साहन राशि और टैक्स में भारी छूट भी दी जाती है। जमीन अधिग्रहण के समय हमारे नेता रैयतों को समझाने या अपना गुंडा लगाकर उन्हें धमकाने से भी नहीं चूकते हैं। आज हमारा लोकतंत्र कॉरपोरेट लोकतंत्र बन चुका है, जहां कानून, नीति और नियम सिर्फ और सिर्फ औद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए बनाया जाता है।
एक मसला यह भी है कि जब वोटरों को इस बात का एहसास हुआ कि लोकतंत्र की बुनियाद ही पैसा, बंदूक और मशल पावर है तब उन्होंने भी अपना वोट बेचना शुरू किया और वे नेताओं से सीधा बरगेनिंग पर उतर गये। इसलिए अब हमारे नेताओं को इस बात का विश्वास हो चुका है कि चुनाव में आम जनता के मुद्दों को वे उठायें या न उठायें उसे कोई फर्क नहीं पड़ता है। बल्कि चुनाव में हार और जीत इस बात पर तय होती है कि एक नेता का वूथ मैंनेजमेंट कैसा है? उनमें कितना पैसा खर्च करने की ताकत हैं? और उनके पास नॉन-स्टेट एक्टर्स – अपराधी गिरोह, नक्सली या अन्य दूसरे ताकतों को अपने साथ रखने की कितनी क्षमता है?
आजकल राज्य प्रायोजित स्वयं सहायता समूह, एनजीओ और धार्मिक संगठन भी वोट मैंनेजमेंट में काफी काम आते हैं। प्रत्यासी लोग प्रत्येक स्वयं सहायता समूह को 10 से 20 हजार रूपये या उनके जरूरतों का समान खरीदकर पहुंचा देते हैं, एनजीओ और धार्मिक संगठनों के साथ पैसे के बल पर समझौता करते हैं। लेकिन हमें इस बात को याद रखना चाहिए यह लोकतंत्र को धोखा देने वाली बात है और लोगों के अभिव्यक्ति जैसे मौलिक अधिकार का घोर उल्लंघन है, जिसे नेता और आम जनता जानबझकर बरकरा रखे हुए हैं।
आजादी के 66 वर्षों के बाद भी दुनियां के महान लोकतंत्र के महान पर्व ‘‘आम चुनाव’’ में गधे के सिंग की तरह आम जनता का मुद्दा अचानक गायब हो जाना, एक स्वस्थ्य व्यक्ति के आम हत्या करने के बराबर है। इसे लोकतंत्र की निर्मम हत्या कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी। आज हमारे लोकतंत्र में मुद्दों और पार्टियों से बड़ा एक व्यक्ति का कद बन गया है और वह व्यक्ति दावा भी करने से नहीं चुकता है कि 125 करोड़ जनता के दुःख, दर्द और पीड़ा को वही मिटा सकता है।
क्या यह 125 करोड़ जनता की क्षमता को नीचा दिखाना नहीं है? क्या यह उनके आत्म विश्वास को तोड़ने वाली कदम नहीं है? और क्या लोकतंत्र में एक व्यक्ति की इस तरह पूजा की जानी चाहिए? क्या यह सही में लोकतंत्र या व्यक्तितंत्र है? निश्चित तौर पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश को एक कुशल नेतृत्व की जरूरत है लेकिन 125 करोड़ जनता की मेहतन, लगन और ईमानदारी के बगैर यह देश कभी भी अपने समस्याओं का समाधान नहीं निकल सकता है, आगे बढ़ने की बात तो दूर की कौड़ी है। जब 125 करोड़ जनता सशक्त बनेगी तभी हम विकसित राष्ट्र बन सकते हैं और उसी दिन महान लोकतंत्र का सपना भी पूरा होगा। लेकिन क्या हम इसके लिए तैयार भी हैं?