आजादी के पहले एक बार महात्मा गांधी ने अपने लिखित वक्तव्य में कहा था “याद रखना, आजादी करीब हैं। सरकारें बहुत जोर से यह जरूर कगेंगी कि हमने यह कर दिया, हमने वह
कर दिया। मैं अर्थशास्त्री नहीं हूँ, लेकिन व्यावहारिकता किसी भी अर्थशास्त्री से कम नहीं हैं उन्होंने कहा कि आजादी के बाद भी जब सरकार आएगी, तो उस सरकार के कहने पर मत जाना, इस देश के किसी हिस्से में एक किलोमीटर चल लेना, हिन्दुस्तान का सबसे लाचार और बेबस बनिहार मिल जायेगा, अगर उसकी जिन्दगी में कोई फर्क नहीं आया तो उसी दिन, उसी क्षण के बाद चाहें वह किसी की सरकार हो उसका कोई मतलब नहीं“।
लेकिन पिछले 67 सालों में हमारी सरकारों ने इस देश को उस रास्तें पर लाकर खड़ा कर दिया है कि बनिहार (डेली वेजेज वर्कर) भी अपनी स्थिति से गिर से गये हैं और उनको बनिहारी भी सरकार ही उपलब्ध करा रही है क्योंकि उनके लिए भी अब काम की कमी हो गयी है इस देश में। कुछ यहीं हाल मीडिया का भी हो चला है।
प्रिन्ट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के स्ट्रींगर एक तरह से बनिहार ही हैं। और इन बनिहारों के इतर भी ऐसे बहुत से लोग है जिनको यह भी नसीब नहीं हो रहा। ऐसे में वेब मीडिया अभिव्यक्ति का माध्यम बनकर उभरा हैं। जहां न तो स्पेस की कमी है न ही सरकारी खौफ है। ऐसे में देशभक्ति की भावना से ओत प्रोत लेखकों अथवा मुख्यधारा के मीडिया में अपनी बात सही तरीके से न रख पाने वाले लोगों के लिए वेब मीडिया निश्चय ही अवतार सरीखा बनकर उभरा है।
भारतीय मीडिया का समग्र ढांचा कहीं न कहीं पाश्चात्य मीडिया के अनुसरण पर आधारित है। इतिहास गवाह है मीडिया शब्द को वैश्विक स्तर के अनेक पत्रकारों ने अपने खून-पसीने से सींचा है। प्रख्यात द टाईम्स ने एक सिद्धान्त बनाया था कि समाचार पत्र भण्डाफोड़ से जीवित रहते है। द टाईम्स को उस समय सरकार की आवाज कहा जाता था।
सरकारों द्वारा द टाइम्स को अपने पक्ष में करने की कोशिश की गई थी तब इसने इस सिद्धान्त को बनाया था। अमेरिका के निक्सन जैसे राष्ट्रपति को वाशिंगटन पोस्ट ने इस्तीफा देने पर विवश कर दिया था। साहस, दिलेरी, हौसला, हिम्मत, निडर, अटल आदि शब्द पहले पत्रकारों के लिए प्रयोग किये जाते थे। शायद इसीलिये एक बार अकबर इलहाबादी ने कहा था ” खीचों न कमानों को न निकालों तलवार, जब तोप मुकाबिल हो तो निकालों अखबार“।
बहुत पहले संपादक की परिभाषा के परिप्रेक्ष्य में मास काम के कोर्स में एक जगह लिखा हुआ पढ़ा था कि ”हर सम्पादक अपने को कुतुब मीनार से कम नहीं समझता।“ वर्तमान सम्पादकों के मीडिया हाउसों के बाजारवाद के भेंट चढ़ते-चढ़ाते देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि अब कुतुब मीनार का कुनबा गिर सा गया हो। ठीक ऐसे जैसे कुतुब मीनार आसमान की ओर न जाकर पाताल की ओर गया हो।
प्रेस कौन्सिल में व्याप्त पेड न्यूज से लेकर लेकर अनेकों मामले इसके डिफेन्स में आ खड़े होंगे जो ऐविडेन्स है कि वर्तमान पत्रकारिता कहा पहुंच गयी हैं। आजादी पश्चात मीडियाईयों और खासकर के सम्पादकों के रुतबे हुआ करते थे। उस समय पत्रकारिता कमीशन नही वरन मिशन हुआ करती थी और चार लाइन की खबर पर शासन से लेकर प्रशासन तक में हलचल मच जाती थी। उस समय खबरों के असर से सब वाकिफ थे।
कहते हैं न कि ज्यादा जोगी मठ उजार। वैसे ही आजकल प्रिन्ट मीडिया में जारी है। डमीवाद का संकीर्ण चेहरा मीडियाई नैतिकता को अपने गर्त में निरन्तर समाहित करने में लगा है और बहुधा सौ पचास कापी छापकर प्रिन्ट मीडिया के कुछ लोग अपनी दुकानदारी चमकाने में लगे हैं। मीडिया के जोगियों की मात्रा में उछाल सा आ गया है। और मीडियाई मठ बेचारे चीख रहे है कि मुझे बचाओं। आजकल हर रोड हर गली में जो प्रेस का लेबल दिख रहा है वैसा आजादी के पश्चात् तो कतई नहीं था। लेकिन आज का माहौल ऐसा हो गया है कि पत्रकारों के भीड़ में मिशन और कमीशन वाले पत्रकारों की पहचान पुलिस की पहचान से बाहर सा हो गया है।
रंगा सियार मानिंद। कुकुरमुत्तों की भाषा अगर पत्रकारों को आती और अगर कोई पत्रकार उनसे उनकी जमात और अखबारों के जमात के बारे तुलना करता तो निश्चय ही वे अखबार और पत्रिका के आगे शर्म से गड़ जाते। ब्रिटिश इंडिया में सम्पादकों की भूमिका को समझने के लिए एक विज्ञापन ही काफी है जो मीडिया सेवकों के रोंगते खड़े कर देने वाला विज्ञापन है।
फरवरी 1907 में स्वराज्य इलाहाबाद के लिये विज्ञापन जोकि ‘जू उन करनीन’ में छपा था ”एक जौ की रोटी और एक प्याला पानी, यह शहरे-तनख्वाह है, जिस पर ”स्वराज्य“ इलहाबाद के वास्ते एक एडीटर मतलूब है (आवश्यकता) है। यह वह अखबार है जिसके दो एडीटर बगावट आमेज्ञ (विद्रोहात्मक लेखों) की मुहब्बत में गिरफ्तार हो चुके है। अब तीसरा एडीटर मुहैया करने के लिए इस्तहार दिया जाता है, उसमें जो शरदे तलख्वाह जाहिर की गयी है, वास्ते ऐसा एडीटर दरकार है, जो अपने ऐशो आराम पर जेलखाने मे रहकर जौ की रोटी एक प्याला पानी तरजीह दे“।
वर्तमान में आमजन के बीच मीडिया का वह पुराना स्वरूप मैला हो चला है। मीडिया को यह नहीं भुलना चाहिए कि देश का आंतरिक पक्ष मीडिया पर निर्भर है। असहाय जनता मीडिया से आशान्वित है की मीडिया के होते हुए प्रजातंत्र कायम रहेगा। लेकिन मीडिया अपने दायित्वों का पालन नहीं कर पा रही है। मीडिया के बुद्धिजीवी पत्रकार मीडिया में काम तो करते हैं लेकिन तोप मुकाबिल हिम्मत उनमें नहीं बचा है।
मीडिया व्यापार बन चुका है। देशहीत से ज्यादा विज्ञापन हीत मायने रखने लगा है। बहुत कम लोग देशहित में मीडिया में लिख रहे है। और शायद उन्हीं लोगों के वजह से मीडिया की मार्यादा कायम है। वर्तमान में कुछ सम्पादकों, पत्रकारों के लेखनी की स्याही सरकारी पैसे से भरी जा रही है। तो आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि उस कलम से कैसी खबरें बनेंगी।
1947 में आजादी के अवसर पर बीबीसी के एक पत्रकार ने गांधीजी से पूछा देश तो आजाद हो गया अब आप किससे लड़ेंगे तो गांधीजी ने कहा था ”अभी देश आजाद नहीं हुआ, अभी तो अंग्रेज सिर्फ भारत छोड़ के जा रहे हैं, अभी तो अंग्रेजों की बनाई गयी जो व्यवस्था है, जो नियम है, जो कानून है, अभी तो हमको उसे बदलना है, असली लड़ाई तो अब होगी”। शायद पत्रकारिता के क्षेत्र में भी ऐसे महात्मा गांधी जैसे विचारधारा वाले लोगों की आवश्यकता हैं।