मुलायम और मायवती इन सीटों पर राज करते रहे हैं लेकिन नरेन्द्र मोदी को दिल्ली पहुंचना है तो विकास के ओट में धर्म की दुहाई देनी पड़ रही है । मोदी धर्मनिरपेक्षता की नई परिभाषा गढ़ रहे हैं ।
मायवती सांप्रदायिकता की दुहाई दे रही है और मुलयाम मुसलमानों का सबसे बड़ा मसिहा साबित करने में जुटे हुए हैं । अगर ऐसा नहीं है तो मोदी गुजरात छोड़कर बनारस क्यों पहुंच गए । मुलायम ने आजमगढ़ का रास्ता क्यों पकड़ा। शाजिया इल्मी मंदिरों में पूजा करती हुई नजर क्यों आती है। अरविंद केजरीवाल गंगा में सार्वजनिक डुबकी क्यों लगाते हैं और यही वजह है देश में पांच साल तक बड़े बड़े मुद्दों पर चुप बैठी रही मायावती अचानक से उदार हो गई है।
भारत की इकलौती राष्ट्रीय पार्टी है बीएसपी जो बिना किसी लिखित एजेंडे के साथ चुनाव में आई है इसलिए उसने मोदी और गुजरात के दंगों को जुबानी एजेंडा बना लिया है। मुजफ्फरनगर में जब दंगे हो रहे थे तो 26 दिन तक अखिलेश सरकार चुपचाप देखती रही थी। किसी को सुध नहीं थी जाकर देखने की वहां के लोग रह कैसे रहे हैं।
समाजवादी पार्टी के नेताओं ने शरणार्थी शिविरों में रह रहे लोगों को चोर और उचक्का तक कहा था । लेकिन चुनाव से पहले आजम अखिलेश मुलायम सब इंसाफ का बैठखखाना सजा कर बैठ गए हैं । शक और भी गहरा तब हो जाता है जब नेता सवालों का जवाब देने की बजाय भागते हुए नजर आते हैं। क्योंकि राजनीति की कुछ तस्वीरें बड़ी साफ है उतनी काली नहीं । 2002 के गुजरात के दंगों को फिर से जिंदा किया गया है।
मोदी गुजरात के दंगों की तुलना यूपी के दंगों से कर रहे हैं। क्या इन घटनाओं का कोई मतलब नहीं है। मतलब है। ये सब वोटों के ध्रवीकरण के लिए किया जा रहा है। विकास को खारिज करके किया जा रहा है । आजम खान हो, मुलायम हो, मायावती हो , सोनिया हो , मोदी हो, इन सबकी लड़ाई किसलिए है। सत्ता के लिए और इसके लिए छोटे रास्ते तलाशे जा रहे हैं।
इस तलाश में देश की सारी तमन्नाओं के बीच धर्मों की दीवार खड़ी कर रहे हैं। हैरत की बात तो ये है । काली राजनीति के इन फरेबी चेहरों पर हम और आप कुर्बान होने जा रहे हैं। अब ये बात छिपी नहीं है की विकास के नाम पर हो रहे है इस चुनाव का असली चेहरा सांप्रदायिकता ही है। विकास सिर्फ इसका फरेब है और सच ये है सबको अपनी जीत के लिए उन्मादी नारों। सांप्रदायिक प्रतिकों और धर्म आधारित सामाजिक ध्रर्वीकरण की शरण में है। लेकिन ये कोई नई बात नहीं है।
सच तो ये है हम एक खतरनाक किस्म के आदर्शवाद के शिकार है। इसलिए हमने अपने इतिहास को बदलने की कोशिश नहीं की। इसलिए राहुल जब अपने पीढ़ियों को धर्मनिरपेक्षता का पैगंबर बताते हैं। तो उनकी मासूमियत छलक जाती है। ये राजनीति हमें कहां लेकर जाएगी । पूजा और प्रसाद के बीच फंसी हुई राजनीति ना रास्ता हो सकती है और ना मंजिल । सोचिए और अगर सोचेंगे नहीं तो ये देश सांप्रदायिकता के बीच फंसा रह जाएगा।