होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय त्योहार है। यह पूर्व हिन्दू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मॉस की पूर्णिम को मनाया जाता है। होली ऐसा त्यौहार है जिसमें लोग रंगों का खूब आनंद लेते है, एक साथ मिलकर नाचना गाना धूम मचाना यही होली के त्यौहार के महत्व को बढाता है। रंगों का त्योहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। लोग इस दिन एक दुसरे से सभी गिले शिकवे भुलाकर एक दुसरे को गले लगते है और रंगों के साथ अपनी खुशियाँ बाँट लेते है। इसी के साथ फाल्गुन में कुछ दिन ऐसे होते है जिनमे कई बातो का विशेष ध्यान रखा जाता है। हिन्दू पंचांग की माने तो फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी से होलाष्टक लग जाता है। होलिका दहन तक मलमास और तारा अस्त की मान्यता लिए होने से इन दिनों में कोई भी शुभ कार्य नहीं किए जाते है। इन दिनों में कई स्थानों पर अंतिम संस्कार करने से पहले शांति कार्य भी किए जाते है।
राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही, पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है।
इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूं की बालियाँ इठलाने लगती हैं। किसानों का ह्रदय ख़ुशी से नाच उठता है। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक –झांझ –मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है।
होली भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है जो होली, होलिका या होलाका नाम से मनाया जाता था। वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा गया है। होली भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है जो होली, होलिका या होलाका नाम से मनाया जाता था। वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा गया है।
इसका पौराणिक कारण यह है कि प्रहलाद को भस्म करने के लिए फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से तैयारी शुरू कर दी गई थी। उनके पिता हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका के साथ मिलकर प्रहलाद को जीवित जलाने का षडयंत्र रचा था। प्रहलाद विष्णु भक्त थे और हिरण्यकश्यप उन्हें विष्णु की बजाय खुद को भगवान मानने के लिए जोर डाल रहा था।
प्रहलाद नहीं माने तो हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका से उन्हें जिंदा जलाने के लिए कहा। होलिका को यह वरदान था कि अग्नि उसे नहीं जला सकती। इससे जनमानस में आक्रोश के साथ ही भय व शोक की लहर भी छा गई थी। इसलिए उन दिनों सभी शुभ कार्यों पर रोक लगा दिया गया।
होलाष्टक में करें नरसिंह स्तोत्र का पाठ
प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने और उससे छुटकारा पाने के लिए होलाष्टक में विष्णु के साथ-साथ नरसिंह स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। इसी प्रकार अपने आराध्य देवों के चरणों मे निम्नानुसार रंग और पूजा सामग्री अर्पित करना चाहिए।
जैसे यदि सूर्य के कारण कोई निर्बलता आ रही है, तो सूर्य को कुमकुम अर्पित करें। चंद्रमा के लिए अबीर, मंगल ले लिए लाल चंदन या सिंदूर , बुध के लिए हरा रंग या मेहंदी, बृहस्पति के लिए केशर, हल्दी पाउडर, शुक्र के लिए सफेद चंदन, मक्खन व मिक्षी, शनि के लिए नीला रंग और राहू-केतु के लिए पंच गव्य अथवा गोबर गोमूत्र के साथ काले तिल अर्पण करने चाहिए।
ज्योतिषीय आधार पर अष्टमी को चंद्रमा, नवमी को सूर्य, दशमी को शनि, एकादशी को शुक्र, दादशी को बृहस्पति, त्रयोदशी को बुद्ध, चतुर्दशी को मंगल व पूर्णिमा को राहू उग्र होकर काम प्रधान रहने से मांगलिक कार्य वर्जित माने जाते है। फाल्गुन पूर्णिमा को उच्च अभिलाषी सूर्य विषुवत रेखा के करीब होता है। इससे अन्य ग्रह अपने प्रभाव के लिए स्वतंत्र हो जाते है। क्योंकि यह पूर्व शुक्र प्रधान, शक्ति संपन्न होता है। अत: मनुष्य में हीन मनोवृत्तियां उजागर होकर नीच भावों को दिखाने में भी हिचक नहीं करतीं।
होली से सम्बंधित कुछ पौरानिक बातें
प्रहलाद के पिता हिरण्यकश्यप भगवान विष्णु का विरोधी था। वह खुद को देवताओं से भी ज्यादा शक्तिशाली मानता था। उसकी मंशा थी कि जनमानस में सिर्फ उसी की पूजा की जाए। उसे अपने पुत्र प्रहलाद से ही चुनौती मिल गई थी कि संसार में हिरण्य यानी स्वर्ण धातु ही सबकुछ नहीं होता। अत: प्रहलाद ने विष्णुजी के नाम जप, स्मरण और कर्तव्यनिष्ठा का जागरण शुरु कर दिया था।
द्वापर युग में फाल्गुन की पुर्णिमा को श्रीकृष्ण ने पूतना का वध किया था। इसलिए पुतना यानी ढूंढा राक्षसी को जलाने के लिए मालवा, राजस्थान, पंजाब आदि क्षेत्रों में गोबर से बनी मालाएं आदि होलिका में जलाने का भी प्रचलन है। हिरण्यकश्यप की बढ़ती आसुरी प्रवृत्ति को देखतें हुए विष्णुजी ने नरसिंह अवतार लिया। हिरण्यकश्यप को यह वरदान मिला था कि वह न तो दिन में, रात में, घर में, घर के बाहर, आकाश में, धरती पर और इंसान या जानवर के मारने से नहीं मरेगा।
हिरण्यकश्यप को मिले वरदान के कारण नरसिंह भगवान ने घर की देहरी पर उसे अपनी गोद में लेकर उसका वध कर प्रहलाद को उनका अधिकार दिलाया। इसी वंश में प्रहलाद के पौत्र राजा बलि को वामन अवतार से लेकर असुरों की प्रसुप्त, सभ्दभावना को जगाया व तीनों लोकों पर अधिपत्य कर रहे, साम्राज्य से मुक्त कराकर वैभव संपदा को जनहित में वितरण करने में सफलता प्राप्त की थी।
होली के पर्व की तरह इसकी परंपराएँ भी अत्यंत प्राचीन हैं, और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी। वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अतः यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था, इस कारण इसे मन्वादितिथि कहते हैं।