आज देश की हालत देखकर तो ऐसा लगता है कि इस देश ने ऐसे नेता पैदा करने ही बन्द कर दिये हैं जो कि देश के हित के लिए इमानदारी से काम कर सके और जो कुछ कुशल नेता माने जाते हैं उन्हें नई पीढ़ी के नाम पर किनारे बैठाने की कोशिशें हो रही हैं। चाहे कांग्रेस हो या भाजपा अथवा कम्युनिस्ट सभी में लगभग एक जैसी स्थिति है।
संसदीय लोकतंत्र की सफलता विचारधारा की व्यावहारिक उपयोगिता पर निर्भर करती है। यह विचारधारा ही बड़े – बड़े नेताओं को पैदा करती है जो राजनीति में प्रवेश करके आने वाली पीढि़यों के सापेक्ष सुनिश्चित करते है। मगर इसके लिए ऐसा शुद्ध राजनीतिक वातावरण होना बहुत जरूरी है जिसमें राष्ट्र व जन सामान्य के हितों की चिन्ता करने वाला ईमानदार व्यक्ति राजनीति में प्रवेश कर सके।
दुर्भाग्य से आज भारत का लोकतंत्र वहां आकर खड़ा हो गया है जहां ऐसे चरित्र के लोगों की राजनीति में जाने की हिम्मत ही नहीं होती और जो हिम्मत कर भी लेते हैं उन्हें मौजूदा चुनावी राजतीति को प्रभावित करने वाला तन्त्र कचरे की तरह बाहर निकाल फैकता है। क्योंकि आज राजनीति एक ऐसा दलदल है कि इंसान के कदम गलती से भी इसमें पड़ जाए तो वह इस कदर इसमें डूब जाता है कि इसकी आत्मा तक दूषित हो जाती है। हमारे देश की हालत उस भिखारी की तरह हो गई है, जिसके सामने रोटी तो पड़ी है लेकिन उसे उठाने के लिए हाथ नहीं हैं। सरकार के बस में न तो पहले कुछ था, न अब कुछ है।
जरा सोचिए जिस देश के राज नेता ही अपने कर्तव्य को भूलकर भ्रष्टाचार को अपना कर्तव्य मान चुके हों उस देश की राजनीति कैसे चलेगी जब देश का मुखिया ही अपनी रोती बिलखती देश और जनता से मुंह मोड़ ले तो देश की चिन्ता कौन करेगा? लेकिन हमारे राजनेताओं को इसकी परवाह नहीं है क्योंकि सरकार ने अपना मतदाता क्षेत्र आम जनता की जगह बड़े – बड़े पूंजीपतियों को बना लिया है। हमारे राजनेता यह सोचते हैं कि इनकी डूबती नैया को नामी – गिरामी लोग ही बचा सकते हैं। इसलिए ये हर हाल में इनका हाथ थामें रहती है। ये दोनों एक दूसरे का सहारा बन कर हमारे देश और देश की जनता को बेसहारा कर रहे हैं। देश की जनता की निगाहों में वह उतनी ही बड़ी ’चोर’ साबित होती जा रही है जितना कि वह अपने आप को पाक साफ साबित करना चाहती है।
सड़को पर हर आदमी राजनेताओं की ईमानदारी की चर्चा कर रहा है कि इनके विवादों में उद्योगपतियों के कूदने का साफ मतलब यही है कि मुल्क की नीतियाँ आम लोगों के लिए नहीं बल्कि उद्योगपतियों के लिए बनती हैं और हमारे नेता लोग इन्हीं उद्योगपतियों के बूते पर अपने देश का भविष्य तय कर रहे हैं। सब जानते है कि कौन सा नेता भ्रष्ट है। इस देश के लोगों को मूर्ख नहीं बनाया जा सकता वे कानून की मर्यादाओं के तहत जुबान नहीं खोलते है मगर ये जानते हैं कि कौन भ्रष्टाचार में शामिल है। आखिर यह मूर्ख किसको बनाते हैं? अपनी सरकार को बचाने के लिए यह पूरी शासन व्यवस्था और लोकतान्त्रिक प्रणाली को हिला कर रख देते हैं। इससे तो यही साबित होता है कि राजनीति जनता के आँखों में धूल झोकने के अलावा और कुछ नहीं है।
राजनीतिक दलों का लक्ष्य लोकतंत्र में चुनावी विजय होना कोई गलत बात नहीं है मगर इसके लिए जो साधन लगभग सभी दल अपनाते हैं उनकी इज़ाजत न तो इस देश का संविधान देता है और न जाग्रत समाज। इसलिए जब चुनाव जीतने के लिए साधन की शुद्धता समाप्त हो चुकी है तो इस प्रक्रिया से मिलकर लोकसभा या विधानसभाओं में पहुँचने वाले लोग किस प्रकार शुद्धता कायम रख सकते हैं। आज जो पूरी लोकतान्त्रिक प्रणाली बेइमानी की गर्त में दब चुकी है उसकी मुख्य वजह यही है और इसी वजह से राजनीतिक दलों में नेता नहीं बल्कि इसका व्यापार करने वाले लोग भर रहे हैं।
हमारे संविधान में गरीब से लेकर अमीर तक किसी भी व्यक्ति को चुनाव में खड़े होने का अधिकार है। लेकिन भारत एक समाजवादी लोकतान्त्रिक गणराज्य है। संविधान में ’समाजवादी’ शब्द के अर्थ को समझना होगा और अब समय आ गया है, हमें अपने अधिकारों का पालन कर लोकतंत्र को बचाना होगा।