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सियासत में भाषा की गिरती दीवार

 

bbbbbbbbbbbbbbbbbbbbbbbbbbbbbbकई नेताओं ने एक बार फिर से चुनाव के पूरे संदर्भ को बदल दिया है । यही काम मोदी  करते हैं । यही काम राहुल करते हैं । यही काम मुलायम करते हैं। कुछ भी बोल रहे हैं इस चुनाव में नेता।

आप कह सकते हैं चुनाव तो होते ही हैं नेताओं के बोलने के लिए। बिल्कुल ठीक कहते हैं आप लेकिन बात सिर्फ इतनी सी नहीं है। आजम बोलते हैं । मायावती बोलती है। नरेन्द्र मोदी बोलते हैं । आप कहेंगे नेता चुनाव में नहीं बोलेगा तो कब बोलेगा। लोगों तक अपनी बात पहुंचानी है तो बोलना तो पड़ेगा।

नेता तो बड़ा होती ही वही है जो बहुत बोलता है। चुनाव के मैदान में अपने विरोधी को अपनी बोली से चित्त कर देता हो । बयानों के इसी कला के तो लोग कायल है । इसी पर तो तालियां बजती है । इसी पर वोट मिलते हैं। इसी से सरकार बनती है। शहरी सियासत को ये बोल भले ही कड़वे लगे लेकिन गांव के गली कूचे में लोगों को गाली से बड़ा आनंद आता है।

राजनीति दलों का वर्चस्व बना रहे गाली देते रहते हैं, देते रहते है। इमरान मसूद और आजम खान ही क्यों जो पीएम पद के दावेदार है । वो भी बोलने में कहां पीछे रहते । हां इतना जरुर है । बड़ी पार्टी है । बड़े पद की उम्मीद है तो बेलगाम हो जाने की छूट बाकियों की तरह नहीं है । अच्छा है राजनीति में बयानबाजी लेकिन एक हद तक और जब ये हद पार होती है तो सियासत की सफेद परत उधड़ जाती है। उसके पीछे की स्याह सतह दिखाई देने लगती है। ये सतह परेशान करने वाला है।

लोगों के लिए । लोकतंत्र के लिए । इसे जुबान की फिसलन की तरह साबित करने की तैयारी में लगे हैं नेता लेकिन ये एक बड़ी साजिश का हिस्सा है।  ऐसे बोलों की राजनीति शर्मिंदा करती है लेकिन अब तो ऐसा लग रहा है इस चुनाव में बड़ी चालाकी से चालें चली जा रही है राजनीति की । पूरे चुनाव को जनता के मुद्दे से दूर कर दिया गया है । और इसे समेट दिया गया है नेताओं की भाषा पर।

इस साजिश को समझने की जरुरत है क्योंकि हमार राजनीति सरोकारों से भाग खड़ी हुई है । गंदी भाषा ने गणतंत्र की गढ़ी हुई गरिमा को चकनाचूर कर दिया है । ये भाषा का सवाल है ही नहीं ये पूरी तरह राजनीति का प्रश्न है । इस देश के चुनाव में भविष्य की उम्मीद को छिन लेने की एक सफेद साजिश । इस साजिश में सब शामिल है । नरेन्द्र मोदी, राहुल गांधी, सोनिया गांधी, मुलायम सिंह और इसलिए सबने मिलकर इस चुनाव को सांप्रदायिक और सिर्फ सांप्रदायिक बना दिया है ।

राजनीति का ये चेहरा अब किसी से छिपा नहीं है । की ये चुनाव डर का एक विसाल बाजार बना रहा है । जानबूझकर ताकि जनता कुछ मांग ना बैठे नेता से, कुछ उम्मीद ना कर बैठे । पूछ ना बैठे अभी तक दिया क्या है । और नहीं दिया तो कयों नहीं दिया । इसलिए इतिहास के हवाले से भविष्य का भय खड़ा किया जा रहा है ।

इस चुनाव के बड़े चालाकी से भाषा, इतिहास और भविष्य के इर्द गिर्द समेट दिया गया है । इसलिए हम कह रहे हैं ये भविष्य का नहीं । भय का चुनाव है । पूरी राजनीति मिलकर हमें डराने में लगी है । और डर भी किसका इतिहास का। पीछे पलटकर देखने के लिए उकसा रही है राजनीति। काश  कोई ये बताना, हमें चुना तो ऐसा नजर आएगा भारत । लेकिन अगर सबकुछ ऐसा ही साफ होता तो एक छटा चावल की चोरी के लिए क्यों मार दी जाती एक बच्ची । आप जानते हैं इस मौत का मतलब । एक मुल्क का मर जाना।