the art of learning
आज मैं यहाँ अपना नाम तक लिखने में शर्मिंदगी महसूस कर रहा हूँ, और ये पत्र सर के माध्यम से आप सबों तक पहुँचा रहा हुँ। मैं जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में पढ़ने वाला एक छात्र हूँ। मैं विश्वविद्यालय की भीड़ में आपको कहीं मायूस सा पीछे खड़ा दिख जाऊँगा। कभी अपनी जनपक्षधरता को लेकर सदैव चर्चा में रहने वाला ये विश्वविद्यालय आज लोगों के लिए इतना बुरा हो गया है कि सोशल मीडिया पर जनता इसे बंद तक करने की मांग कर रही है। शायद उनका पक्ष ठीक भी है। ये वही जगह है जहाँ भारतवासियों की पूज्य दुर्गा माता को एक संगठन विशेष ‘अपशब्द’ मानता है, ये वही जगह है जहाँ 2010 में कॉलेज प्रशासन के सामने दंतेवाड़ा में मारे गए 75 CRPF नौजवानों की शहादत पर जश्न मनाया गया, ये वही जगह है जहाँ जम्मू-कश्मीर से सेना वापसी का लोग समर्थन करते हैं। यहाँ आपको हर एक राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के समर्थक मिल जाएंगे। ये वही जगह है जहाँ नक्सलियों का खुलेआम समर्थन होता है, ये वही जगह है जहाँ कुछ विद्यार्थियों का मकसद देश को विघटित करना है।
मगर क्या आपने कभी इस बात पर विचार किया कि इस विश्वविद्यालय में दाखिला लेना हर छात्र का सपना हुआ करता था, आज यहाँ ऐसा माहौल क्यों है? क्यों जेएनयू में आज वामपंथी विचारधारा के लोग राष्ट्रविरोध अपने झोले में लिए फिर रहे हैं? क्यों इशरत को शहीद और अफज़ल को निर्दोष कहा जाता है? सबसे बड़ी बात विद्यालय के अंदर इसका विरोध क्यों नहीं होता? क्या प्रशासन भी इस विचारधारा का समर्थन करता है?
भारत में गुरुओं को ईश्वर से बड़ा पद दिया गया है, और जब गुरु ही शिष्यों का मोहभंग करने पर उतारू हो जाए तो समस्याएं होना लाज़मी है। आज जेएनयू में दाखिला मिलने के साथ ही छात्रों का ब्रेनवाश करने का प्रयास कर उन्हें संगठन विशेष से जोड़ने का प्रयास किया जाता है। अगर आप संगठन विशेष से हैं तो विश्वविद्यालय प्रशासन भी आपका साथ देता है। भारतीय संस्कारों का मज़ाक बनाना यहाँ फैशन से कम नहीं है। इतने सबके बाद भी ये लोग ‘समझदार’ वर्ग का लेबल लगाए घूमते हैं, जिम्मेदार कौन है? क्या ऐसे लोग जो वामपंथ की आड़ में पाकिस्तान जिंदाबाद के बारे लगाते हैं, भारतीय पासपोर्ट के काबिल हैं? क्या इनकी पढ़ाई का खर्चा सरकार को उठाना चाहिए? क्या केंद्र सरकार इसपर कोई सख्त कार्यवाई नहीं कर सकती?
यहाँ से 15 मिनट की दूरी पर शहीद लांस नायक हनुमंतप्पा अपनी अंतिम सांसे ले रहे थे, और यहाँ भारत की बर्बादी की बातें हो रही थी। अब बात मीडिया मित्रों की, अफज़ल गुरु और याकूब मेमन जैसे लोगों के समर्थन में कुछ चंद लोगों द्वारा लगाए गए नारे एक घंटे में राष्ट्रीय खबर बन जाती है, और उनके विरोध में हो रहे तमाम प्रदर्शन को मीडिया के कैमरे नज़र अंदाज़ कर देते हैं, क्यों? मीडिया किसकी तरफ है? देश के, देशवासियों के या देशद्रोहियों के? आज अखंड भारत के सपने में सबसे बड़ा रोड़ा मीडिया में बैठे वामपंथी हैं। जिनमे से कई इसी विश्वविद्यालय से पढ़कर निकले हैं।
मैं ये सारे सवाल इसलिए उठा रहा हूँ क्यूंकि मैं भी इस प्रांगण का हिस्सा हूँ और मैं एक सच्चा भारतवासी हूँ। मुझे अफजल गुरु से उतनी ही नफरत है जितनी आपको है। ये वही विश्वविद्यालय है जहाँ से NDA के जवानों को डिग्री प्रदान की जाती है। जाहिर है समस्या का समाधान विश्वविद्यालय बंद करना नहीं है, समाधान है कुछ उपद्रवी तत्वों का इलाज़। वामपंथियों से भरे विश्वविद्यालय में प्रशासन ने क्या कभी यहाँ पढ़ने वाले अन्य छात्रों की समस्या से रूबरू होने की कोशिश की? नाक के नीचे सब कुछ होता रहा और आप देखते रहे?
मैं केंद्र सरकार से अनुरोध करता हूँ कि इस पूरे मामले पर राजनीति न हो। इसकी समीक्षा कर इसे एक बेहतर जगह में बदला जाए। देश के असली दुश्मन हेडली या कसाब जैसे लोग नहीं हैं। दुश्मन हैं देश के अंदर बैठ ऐसे लोग जो इनका साथ देकर देश को खोखला कर रहे है। अब इन्हें ना सिर्फ पहचानने का बल्कि सबक सिखाने का वक़्त है।