लोहड़ी से अगले दिन ही मकर संक्रांति का पर्व होता है, जो अपने अनेक पर्यायवाची नामों से समूचे उत्तर-भारत में बड़ी निष्ठा के साथ मनाया जाता है। अब से लगभग अस्सी वर्श पहले 12 जनवरी को लोहड़ी तथा उससे अगले दिन मकर-संक्रांति मनाई गई थी पर, अब सूर्य परिक्रमा के विधान में ये पर्व 13 और 14 जनवरी को ही मनाएं जाते हैं।
विश्व के सभी काल-गणक, समय निर्णय में इस तिथि को प्रतिमान मानते हैं। क्योंकि इस शीतकालीन माहौल में समय-परिवर्तन के साथ ही सूर्य उर्जा का आवाहान ही इस तिथि-संक्रांति में, मानवीय मन को उत्साह से भर देता है और जब खेतों में फसल पकने को तैयार हो, शारीर शीत के कारण विवश-संकुचित बना हुआ हो, तब पौष मास को इस अन्तिम दिन या रात्रि को, शीत के दुशाले से मुक्ति पाने के लिए, उर्जा का आहवान ही तो, संक्रांति का आलंबन बन जाता है।
वस्तुतः ’संक्रांति’ बारह महीनों में, बारह राशियों पर सूर्य का संक्रमण या हस्तांरण है। ’रवैः संक्रमणं राशौ संक्रान्तिरिति कथ्यते।“ और मकर -संक्रन्ति नवम् धनु-राशि, जल संक्रान्तिरिति कथ्यते।” और मकर-संक्रांति नवम् धनु – राशी से दशम् मकर राशी में संक्रमण तो है अथवा यों कहें कि सूर्य-किरणों द्वारा धनुश से छूटा हुआ समय-बाण, जल जन्तु ’मकर’ को बधता हुआ वायुमंडल में परिवर्तन करता है। अर्थात् सूर्य के दक्षिण से ऊध्र्वमुखी होकर उत्तरस्थ होने की इस वेला को भारतीय मनीषा ने ’संक्रांति-पर्व’ रूप में स्वीकृत किया है। मेष, वृष, मिथुनादि बारहराशियों पर, सूर्य का बारी बार संक्रमण होता है। पर, राशि रेखाओं में कर्क अन्तराल पर सूर्य के दक्षिणायन, एवं उत्तरायण होने को प्रमाणित करती है।
पुराणानुसार ’उत्तरायण देवताओं का एक दिन तथा ’दक्षिणायन’ देवताओं की एक रात्रि मानी जाती है। इस मकर – संक्रांति के महत्त्व को स्मृति में बनाए रखने के लिए महाभारत के भीश्म की इच्छा-मृत्यु वाली कथा-घटना भी बड़ी सहायक रही है जिसमें अर्जुन के तीरों से छलनी होकर शर -शय्या पर पड़े संकल्पी भीष्म, अपने निकट दर्शनार्थ आए हंस रूप ऋषियों से सूर्य के उत्तरायण (उद्गायन) होने पर ही शारीर – त्याग करने की बात कहते हैं-
गमिष्यामि स्वयं स्थानमासीद् यन्मे पुरातन्म।
उदगायन आदित्ये हंसाः सत्यं ब्रवीमिवः।।
धारयिश्याम्हं प्राणांनुत्तरायण काऽ.क्षय
सूर्य उत्तरायण की घटना विशेशतौर पर मकर संक्रांति काल में अद्वितीय मानी जाती है। भारत एक कृषि प्रधान देश है और मकर-संक्रांति का पर्व कृषि प्रधान देश है और मकर-संक्रांति का पर्व कृषि उत्पाद से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। कृषि -श्री-सम्पन्नता से भरपूर यह पर्व पंजाब में ’लोहड़ी’ या माघी के नाम से जाना जाता है।
पूर्वांचल में यह ’बीहू’ तथा दक्षिणांचल में यह पोंगल,’ “औणम’ नाम से सपन्न होता है। महाराष्ट्र में इसे मकर-संक्रान्ति कहते हैं तो उत्तर प्रदेश -मध्य प्रदेश में यह तिल या खिचड़ी-संक्रांति नाम से अभिहित होता है। अतः यह एक सार्वजनिक पर्व है। क्योंकि यह ऋतु-चक्र के संक्रमण-काल से जुड़ा है, इसलिए इसमें पारम्परिक संवेदना की प्रधानता होना स्वभाविक ही है।
सूर्य का धनु-राशि से प्रवेश, ग्रहों का पारम्परिक संक्रमण ही तो है। कुल मिलाकर समय-चक्र और शिशिर ऋतु में , भावी – कृषि -उत्पाद की संभावनाओं से आषान्वित होकर एवं अनेक पौराणिक कथा विश्वाशों से अनुप्राणित बना रहकर आज भी भारत का जन-मानस अपनी संकल्पषीलता में मकर-संक्रान्ति का पर्व मनाता है।