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मीडिया और नारीदेह

media  mahilaमीडिया समाज का दर्पण है। यह सामाजिक अच्छाई, बुराई को हू-ब-हू समाज के सामने रखने का प्रयास करता है, रखता भी है। परन्तु, आज मीडिया अपने इस दर्पण में सामाजिक अच्छाईयों और बुराईयों

के साथ-साथ नारी देह को भी दिखाने लगा है। मीडिया ने इस दर्पण में एक ऐसे शीशे का प्रयोग किया है जिसमें नारी समाज के सामने धीरे-धीरे नग्न दिखायी देने लगी है। इंटरनेट पर नेकेड न्यूज के नाम का गूगल पर सर्च करने से तो देखने को मिल जाता है कि ‘‘समाचार पढ़ते वक्त न्यूज रीडर व एंकर किस प्रकार अपने वस्त्रों को धीरे-धीरे उतारती हैं, और पूर्ण नग्न अवस्था में समाचार का प्रसारण करती है।’’
    
20वीं सदी के दौर में मीडिया (दूरदर्शन) नारी को प्रायः हर तरह से पूर्ण वस्त्रों में दिखाती थी। उदारीकरण की नीति तथा पश्चिमी सभ्यता के हावी होने के कारण एवं निजी चैनलों के प्रवेश होने से एक ऐसी क्रांति का उद्भव हुआ, जिसने सब कुछ बदलकर रख दिया। क्या अच्छा? क्या बुरा? क्या दिखाना चाहिए? और क्या नहीं? इस पर भी विचार करना छोड़ दिया।

 नारी का मीडिया ने ‘‘द्रौपदी की भांति चीर हरण करने का प्रयास किया है। द्रौपदी की लाज बचाने के लिए श्री कृष्ण ने अपनी लीला दिखाई थी, और द्रौपदी को भरी सभा में अपमानित होने से बचाया था।’’ हालांकि, वर्तमान समय में मीडिया द्वारा नारी का चीर हरण किया जा रहा है और नारी को श्री कृष्ण की तरह किसी का भी आसरा नहीं दिखाई दे रहा है। नारी के इस चीर हरण में मीडिया ने  दुःशासन की भूमिका निभायी है।
    
मीडिया भी आज नारी के चीर हरण पर उतारू है। चाहे जैसे हो नारी का चीर हरण होना ही चाहिए। और, वह उसकी देह को समाज के सामने कुछ इस तरह प्रसारित/प्रकाशित करने का प्रयास कर रहा है जिससे नारी की देह को समाज के सामने प्रसारित भी कर दिया जाये और उसका दामन भी दागदार न हो।
    
देखा जाए तो नारी आज उसी प्रकार सशक्तिकरण के रूप में पुरूष प्रधान समाज में उभर कर सामने आयी हैं, जिस प्रकार कैक्टस के पौधों की कोई देखभाल नहीं करता, पर वह बहुत काम का होता है, यदि थोड़ी-सी देखभाल मिल जाये तो सभी पौधों को पीछे छोड़ देता है। अब हकीकत यह है कि मीडिया तो उद्योगपतियों के हाथ की कठपुतली बन गया है।

यह बात कहने में भी कोई कोताही नहीं होनी चाहिए कि मीडिया उद्योगपतियों का पालतू बन चुका है, जो अपना पेट पालने के लिए इन उद्योगपतियों के द्वारा डाली गई हड्डियों पर जीवित रहता है, और उसके लिए कुछ भी कर गुजरता है। क्योंकि, एक अविवेकी और वफ़ादार की भांति अपने मालिक की नहीं भंजायेगा तो किस की भंजायेगा। चाहे उसके लिए कुछ भी क्यों न करना पड़ें? मीडिया भी अपना पेट पालने के लिए इन उद्योगपतियों से विज्ञापन की दरकार करते हैं, और उद्योगपति भी यही चाहते हैं कि उनके द्वारा निर्माण की जाने वाली वस्तु की ज्यादा-से-ज्यादा बिक्री हो और उन्हें ज्यादा- से-ज्यादा मुनाफा। इस पर मीडिया भी पीछे नहीं रहती।

वह भी इस तरह के विज्ञापन का निर्माण करती है, जिसको सभी देखे, खास तौर से पुरूष वर्ग। ये बात सही है कि पुरूष स्त्री को हमेशा से ही दोयम दर्जे का (उपभोग की वस्तु) समझता रहा है, लेकिन वह नारी की देह के आकर्षण से कभी बाहर नहीं हो पाया। पुरूष वर्ग की मानसिकता को ध्यान में रखते हुए ही मीडिया हर विज्ञापन में किसी-न-किसी नारी को अर्धनग्न अवस्था में उस वस्तु का प्रचार करते दिखाता है।

भले ही नारी का उस वस्तु से दूर-दूर तक ताल्लुक हो अथवा न हो, जैसे ट्रक की बैटरी या फिर पुरूष अंतःवस्त्र। इस वस्तु का नारी से क्या संबंध है? फिर भी विज्ञापन में नारी होती है। ऐसा क्यों किया जाता है? इसका एक मानसिक कारण यह है कि पुरूष वर्ग स्त्री देह को ही देखना चाहते हैं, उसके अर्धनग्न शरीर का दर्शन करना चाहते हैं। इन विज्ञापनों में दिखने वाली स्त्रियों को पुरूष कामुक दृष्टि से देखते हैं, जैसे यह नारी उनको अभी ही मिल जायेगी।

इस प्रवृत्ति पर कैथरीन मैकिनॉन ने ‘येल लॉ एण्ड पॉलिसी रिव्यू’ में प्रकाशित अपने लेख ‘नॉट ए मॉरल इश्यू’ में लिखा है कि ‘‘अश्लीलता का मानक पुरूष नजरिये से बनाया गया है’’। और, यही हाल मीडिया द्वारा दिखाये जाने वाले अश्लील विज्ञापनों का है। मर्द  उन अश्लील सामग्री (विज्ञापन) से उत्तेजित होते हैं, जहां स्त्री को अर्द्धनग्न और कामुक अंदाज में पेश किया जाता है।  

या यूं भी कह सकते हैं कि पुरूष समाज नारी की देह को ही देखना चाहते हैं। जान बर्जन ने अपनी पुस्तक ‘वेज ऑफ सीयिंग’ में लिखा है कि ‘‘ मर्द अभिनय करता है, जबकि औरत पेश होती है। मर्द औरत को देखता है, जबकि औरत खुद को देखे जाते देखती है’’4 जिसमें मीडिया भी उनकी मदद करता है। तभी तो समाचार पत्रों से लेकर इंटरनेट पर भी नारी देह का खुला रूप आज दिखाया जाने लगा है।
    
मीडिया, नारी देह का प्रयोग दलाल के रूप में करता है। जिस प्रकार दलाल स्त्री को पुरूष ग्राहक के सामने इस प्रकार दिखाता है या प्रस्तुत करता है कि पुरूष ग्राहक उस दलाल की बातों में आ जाता है। इस प्रकार के अनुबंध में भी नारी और दलाल को कुछ-न-कुछ मिल ही जाता है। चाहे ग्राहक उस वस्तु से संतुष्ट हो अथवा नहीं? मीडिया भी नारी को माध्यम बनाकर कुछ-न-कुछ हासिल करता रहता है।
    
बहुत बार तो मीडिया नारी को खबरों के रूप में भी प्रसारित करने से नहीं चूकता। पूजा नामक एक स्त्री को अर्धनग्न अवस्था में मीडिया ने काफी उछाला था और उसको उकसाने वाला मीडिया के ही तंत्र थे। एक तरफ मीडिया नारी को पुरूष के बराबर लाने का निरंतर प्रयास कर रही है। नारी के साथ हो रहे असमानता का व्यवहार, दहेज, भू्रण-हत्या, बलात्कार आदि को रोकने तथा न्याय दिलाने का प्रयास मीडिया करता है। परन्तु, वह कहां तक नारी को न्याय दिला पाने में सक्षम होता है यह तो विचारणीय है। एक तरफ मीडिया नारी का इस्तेमाल करता है, दूसरी तरफ उसे न्याय दिलाने की मांग भी उठाता है। यहां तो वही कहावत लागू होती है कि ‘एक तो चोरी ऊपर से सीना जोरी।’
    
मीडिया, नारी को अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग कर रहा है। शायद, इसमें नारी भी एक प्रकार से मीडिया का पूरा साथ दे रही है। नहीं, तो मीडिया नारी को इस प्रकार धीरे-धीरे नंगा नहीं कर सकता था, जैसे जब तक चोर को पुलिस वालों की शह न मिले तब तक चोर, चोरी को अंजाम नहीं दे सकता।
    
मीडिया सभी प्रकार की खबरें, चाहे वह राजनैतिक, सामाजिक, खेल, हत्या, हमला आदि क्यों न हो? इन सब खबरों पर उस की प्रतिक्रिया होती तो है, पर उतनी नहीं जितनी होनी चाहिए। वह तो इन खबरों को प्रायः इसलिए प्रसारित करता है ताकि उसके पास खबरों का अभाव तथा सरकार का दबाब न पडे़। पर जहां नारी से संबंधित कोई भी मामला प्रकाश में आता है, उसको वह इस प्रकार उछालती है मानों उसे कोहनूर मिल गया हो। वह तब तक इस खबर को प्रकाशित या प्रसारित करने में लगा रहता है, जब तक कि उसको धीरे-धीरे शर्मसार न कर दे और, उसके साथ-साथ अपनी टीआरपी न बढ़ा ले। मीडिया अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए किसी भी हद तक गुजर सकता है।
    
एक तरफ एक न्यूज चैनल के संपादक अपनी साफ छवि दिखाने की कोशिश करता है। वे ‘सीधी बात’ में मल्लिका, राखी सांवत को बेइज्जत करने तथा उनके पहनावे पर टिप्पणी व्यक्त करने से नहीं चूकते। और, उनके पहनावों पर इस प्रकार का प्रश्न उठाते हैं कि उसके पास कोई जबाव ही नहीं बचता। यदि वह जबाव देती है, तो उसे गिरी हुई करार दे दिया जाता है।

दरअसल, वे अपने गिरेबान में या अपने घरों में झांक कर नहीं देखते कि उनके बच्चे किस प्रकार के कपड़े पहन रहे हैं और क्या गुल खिला रहे हैं। यदि आग पड़ोसी के घर में लगी हो तो हाथ संेकने जरूर पहुंच जाते हैं। आग स्वयं के घर में लग जाये फिर देखो, मचती है हाय-तौबा। कोई तो बचा लो। पर बचाने कोई नहीं आता। जैसा करोगेे, वैसा ही भरोगे। इस तर्ज पर प्रकृति का नियम चलता है। चलता रहेगा। वह कहावत भी उचित है कि ‘प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करोगे, तो भूचाल अवश्य ही आयेगा’। प्रकृति का भूचाल जब आता है, तब केवल विनाश ही विनाश होता है, इसके अलावा कुछ नहीं।

आज इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में आश्चर्यजनक रूप से बाजार और विज्ञापन की संस्कृति का वर्चस्व स्थापित हो गया है। समाज का संकीर्ण व्यक्तिवादी रूप बदल गया है। वैश्वीकरण ने बाजारवाद के चलते पूंजी के बढ़ते वर्चस्व को स्थापित किया है। पूंजीवाद, संचार माध्यम, उदारीकरण और भूमंडलीकरण आदि प्रवृत्तियों ने मूल्यों का विघटन किया है। उपभोक्तावाद ने स्त्री को बाजार और विज्ञापन के माध्यम से देह के रूप में प्रस्तुत किया है।

विज्ञापन में नारी देह को दिखाने का कोई विरोध करता है तो ‘‘बाजारवादी समाज का कहना है कि ‘वी यंग’ यानी अब तो समझदार बनो।’’ समझदार का तात्पर्य क्या नारी देह से है, जिसका प्रदर्शन करने से हम सभी समझदार की श्रेणी में आ जायेंगे? ये बात और है कि मीडिया वास्तव में ‘वी यंग’ हो चुका है। मीडिया ने नारी को भोग्या से वस्तु के रूप में तब्दील कर दिया है। चाहे दांतून का विज्ञापन हो या साबुन का। सब में स्त्री को दिखाया जा रहा है।

सवाल यह है कि विज्ञापन अपनी विज्ञापित वस्तुओं के लिए है या नारी देह के लिए। उदारीकरण से पहले स्त्री देह के विज्ञापन इस तरह खुले और बेशर्म नहीं हुआ करते थे। और, न ही समाज ने इसे खुलेपन की स्वतंत्रता प्रदान की थी। अभी कुछ समय से टीवी पर अश्लील विज्ञापनों की संख्या में इजाफा हुआ है, जिसे आप पूरे परिवार के बीच नहीं देख सकते, या देखकर शर्म महसूस कर सकते हैं।
पहले ऐसे विज्ञापन केवल कंडोम या अन्य गर्भनिरोधकों के ही हुआ करते थे। ये विज्ञापन बडे़ सादा और प्रभावी हुआ करते थे। कंडोम के विज्ञापन में दो लोगों की परछाई समुद्र में डूबते सूरज की ओर बढ़ती थी या फिर एक दाम्पत्य हाथों में हाथ डालें राजकपूर की फिल्म ‘आवारा’ का गाना (प्यार हुआ, इकरार हुआ, प्यार से फिर क्यों डरता है दिल) गाते हुए दिखाया जाता था। सिर्फ इतना होने से ही विज्ञापन का काम पूरा हो जाता था। बच्चे कुछ समझ नहीं पाते थे। बड़ों तक परिवार नियोजन का संदेश पहुंच जाता था।

इन विज्ञापनों में अश्लीलता कुछ भी नहीं हुआ करती थी। फिर भी इन विज्ञापनों को परिवार के बीच देखना गवारा नहीं समझा जाता था। आजकल तो विज्ञापन ही ऐसे आ गये हैं जो दृश्य और श्रव्य दोनों ही रूपों में अश्लीलता की श्रेणी में आते हैं। इन विज्ञापनों की लिस्ट बहुत लंबी होती जा रही है, जैसे कंडोम का ही विज्ञापन लें, तो एक अर्द्धनग्न स्त्री स्विंगपूल में नहाते हुए निकलती है, और वह वहां खड़े पुरूष से पूछती है कि आज कौन-सा फिलेवर इस्तेमाल करोगे? एक सीमेंट के विज्ञापन में एक लड़की को लाल रंग की बिकनी पहने समुद्र से निकलते दिखाया जाता है।

इस विज्ञापन की पंच लाइन ‘विश्वास है इस में कुछ खास है’। इस श्रेणी के विज्ञापनों में डिओडेंट और परफ्यूम को प्रदर्शित किया जाता है। डिओडेंट के विज्ञापन में कुछ विदेशी बालाएं बिकनी और कम कपड़ो में डिओ लगाने वाले हंक के पीछे दौड़ती दिखाई जाती हैं। इन सभी विज्ञापनों में अपना उत्पाद बेचने के लिए अश्लीलता की हद तक भाव और परिधान का प्रयोग किया जाता है।

डिओ के विज्ञापन में यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि फंला डिओडेंट लगाने से नारी काममुग्ध होकर उसके पीछे दोड़ने लगेंगी। ये वे विज्ञापन हैं, जो खुले आम हमारे घरों में प्रवेश भी कर गये हैं। क्योंकि, विज्ञापन कभी कोई ऑप्सन नहीं छोड़ता। ये तो टीवी पर आ ही जाते हैं। जैसे घर में कोई बिन बुलाये मेहमान आ जाता है जिसे भगाया नहीं जा सकता है। केवल झेला जा सकता है।

ठीक उसी प्रकार यह विज्ञापन होते हैं। जब तक आप इनकी शीलता या अश्लीलता समझें, तब तक ये समाप्त हो चुके होते हैं, और, आप सोफे में बैठे नजरें कहीं और गड़ाये चुप रहते हैं, ये सबित करने के लिए कि आपका ध्यान तो कहीं और था। इस बारे में हिडेन परसुएड्म ने कहा है कि ‘‘विज्ञापन के जादू को ‘वन्स पे कार्ड’ यानि छुपे रूस्तम कहते हैं जो हमारी मानसिकता पर सरेआम डाका डलते हैं।’
    
अब आप ’’अमूल माचो’’ नामक अडंरवियर के विज्ञापन को ही लें, ये किसी तरह की फंतासी का निर्माण अपने अन्दर करता है। जब नयी नवेली दुल्हन तालाब के किनारे अपने पति के अंर्तवस्त्र को धो रही होती है, तब वे और वहां पर जलती-भुनती अन्य औरतें क्या सोच रही होती हैं, वो नयी नवेली दुल्हन सारी लोक लाज त्यागकर घुटनों तक अपनी साड़ी उठाकर, अजीब- अजीब मुंह बनाकर अंर्तवस्त्र धोने लगती है।

आप भी देखना चाहते हैं, तो देखिये क्या है- यह? एक फंतासी के जरिये उत्पाद बेचने की कोशिश और बिक भी रहा है। अंडरवियर के ऐसे बहुत से विज्ञापन आजकल दिखाये जा रहे हैं। कुछ लोगों के मुताबिक ये सृजनात्मकता (क्रियेटिवटी) है। लेकिन, क्रियेटिवटी क्या केवल अश्लील ही होती है? इस विज्ञापन के प्रसारित होने के कुछ समय बाद इस विज्ञापन पर रोक लगा दी गई थी। परन्तु, इस तरह का विज्ञापन समाज के सामने लाया गया, जिसे लगभग सारी दुनिया ने देखा। तब जाकर इस पर रोक लगी।

इसी तरह से अन्य विज्ञापन में एक अर्धनग्न बाला बडे़ ही सिड्युसिंग तरीके से कहती है………’निकालिये ना…………………. कपड़े’, ‘ये तो बड़ा टोइंग है’, ‘न सोने दे रात भर’ ये क्यों है? इस तरह द्विअर्थी वाक्यों का प्रयोग दादा कोड़के की फिल्मों में होते थे। ’’अंधेरी रात में दिया तेरे हाथ में’’ या ’’खोल दे मेरी ……. जबान’’ तो आपको याद ही होगंे, जब लोग इन फिल्मों को कोसते थे और ये फिल्में ’’ए’’ सर्टिफिकेट के साथ हाल में आती थीं। लेकिन आजकल के विज्ञापन बिना किसी सेंसर के हमारे ड्राइंग रूम में आ रहे हैं।

इसी तरह के द्विअर्थी विज्ञापन रीडिफमेल का- जिसमें लड़कियां एक छोटे से राजू के बड़े साइज के बारे में बात कर रही होती हैं। यहां तक की राजू का बाॅस भी शौचालय में अपनी दृष्टि राजू के शरीर पर गड़ाये रखता है। और, अंत में एक बेशर्म मित्र पूछ ही लेता है- क्या ये सचमुच बहुत बड़ा है? तो राजू कहता है कि- ये बड़ा ही नहीं वरन् अनलिमिटेड है। तब पता चलता है कि वे लोग राजू के मेल बॉक्स के साइज के बारे में बात कर रहे होते हैं।

मीडिया अपनी सारी मार्यादाएं तोड़कर केवल-और-केवल समाज के समक्ष अश्लीलता परोसने का काम कर रहा है। जिसका बुरा प्रभाव युवा वर्ग पर साफ देखने को मिल रहा है। चाहें फिल्म हो, न्यूज हो, सीरियल हो या फिर विज्ञापन। सभी जगह अश्लीलता हावी है। समाचार पत्र ‘‘पोर्नाग्राफी और इरोटिक सामग्री के सामाजिक असर पर नियमित इस प्रकार की सामग्री प्रकाशित करता है। फेंडशिप क्लबों, फोन सेक्स, मसाज पार्लरों और एस्कोर्ट सर्विसों के विज्ञापन छापकर वह देह व्यापार के नए-नए रूपों और उसके अभूतपूर्व प्रसार का वाहक बना हुआ है।

यदि फिल्मों की बात करें तो, फिल्म निर्माता, निर्देशक अपनी फिल्मों में नारी देह का बखूवी इस्तेमाल कर रहे हैं। अभी हाल ही में रिलीज हुई फिल्में, दबंग और तीस मार खान, के आइटम सॉग की बात करें, तो ‘मुन्नी बदनाम हुई, डॉर्लिंग तेरे लिए या ‘शीला की जवानी’। मुन्नी को बदनाम और शीला की जवानी को फिल्म निर्माताओं ने ही प्रस्तुत किया है। ये तभी होता है, ’जब फिल्में बाक्स आॅफिस पर फ्लाॅप जा रही हो या किसी चैनल की रेटिंग गिरने लगी हो। वह अचानक सुहाना सेक्स, गरम पोर्न की ओर दौड़ लगाने लगता है।’

यहां एक बात तो साफ हो जाती है कि चाहे विज्ञापन हो, फिल्में हो, या कुछ भी हो, नारी स्वयं ही अपनी देह का प्रदर्शन करना चाह रही है। क्योंकि, नारी पश्चिमी सभ्यता की नारी की तरह उन्मुक्त होना चाहती है। भारतीय नारी समाज जिस स्वतंत्रता की बात पर जोर दे रहा है, वो मात्र एक छलावा है। पश्चिमी सभ्यता में स्वतंत्र-सी दिखने वाली नारी असल में स्वतंत्र नहीं हैं।

पैसों के लालची पश्चिमी औरतों की देह का वैश्विीकरण हो चुका है। उन्होंने कामशास्त्र और अर्थशास्त्र पर आधारित अपनी देह को जीवन दृष्टि में उतार लिया है। इस जीवन दृष्टि के प्रसार में मीडिया परम सहायक की भूमिका में है। कुछ स्त्री लेखिकाओं का मत है कि देह की स्वतंत्रता हो समाज में और उसमें मीडिया की भूमिका भी होनी चाहिए, जिससे वह अपनी देह का पूरा उपयोग कर सके। मीडिया उनकी देह की स्वतंत्रता में एक माध्यम के रूप में उनका सहयोग करे। यही हकीकत है नारी देह और मीडिया का।