देश के लिए एक गंभीर समस्या नक्सलवाद, यह सिर्फ भटके हुए आन्दोलन के अलावा और कुछ नहीं है। यह अधैर्य की उपज है। इसकी बस्ती में मानवता की कोई बयार नहीं बहती।
यह पशुयुग की वापसी का आरंभ है जिसके मूल में है हिंसा और सिर्फ हिंसा। यह किसी जनकल्याण के लिए नहीं बल्कि राजनैतिक सत्ता के लिए संघर्ष मात्र है, जिनका जनता के कल्याण से कोई वास्ता नहीं है । नक्सलवाद कोई नई समस्या नहीं है। 1967 में पश्चिम बंगा के नक्सलबारी नामक गांव से जब हिंसक वामपंथी विचारधारा पर आधारित यह आंदोलन आरंभ हुआ तब किसी ने यह कल्पना भी नहीं की थी कि एक दिन यह आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन जाएगा।
नक्सलवाद ने झारखंड, बिहार, मध्यप्रदेश, आंध्र पश्चिम बंगाल, ओडि़शा, छत्तीसगढ़, और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में जड़े जाम ली हैं। नक्सलवाद मूल रूप से बुनियादी असुविधाओं के कारण उपजी एक गंभीर एवं चुनौतिपूर्ण समस्या है। सुप्रसिद्ध रूसी क्रांतिकारी एवं कम्युनिस्ट नेता लेनिन का मानना था कि प्रत्येक क्रांति का मुख्य प्रश्न राजस्थान का प्रश्न होता है। सभी राजनीतिक विचारधाराएँ जनसमर्थन जुटाती है और सत्ता पर काबिज होना चाहती हैं।
नक्सलपंथी भी यही चाहते हैं लेकिन वे जनसमर्थन जुटाने के बजाय हिंसा, हत्या के जरिए सत्ता पाना चाहते हैं। वह अपने-आप को शोषण वर्ग से स्वतंत्र होने के लिए हिंसात्मक गतिविधियों का सहारा लेते हैं। उन्हें लोकतंत्र एवं चुनावी प्रक्रिया पर भी विश्वास नहीं है तथा उन्हें ऐसा लगता है कि संवैधानिक संस्थाएं महज एक दिखावा है जो धन-बल से चलती हैं। 1967 में पशिचम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी गांव के स्थानीय जमीदारों के अत्याचारों के खिलाफ उठी यह हिंसात्मक आन्दोलन आज हिंदुस्तान के 22 राज्यों में फैल चुका है।
1969 में कम्युनिष्ट नेता कामरेड चारू मजूमदार ने भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी (माक्र्सवादी) से अलग होकर सीपीआर्इ (माक्र्सवादी-लेनिनवादी) का गठन किया है। नक्सलवाड़ी गांव से उठी आवाज नक्लपंथ बन गर्इ। नक्सलियों द्वारा की जा रही हिंसक गतिविधियों ने पूरी व्यवस्था को चुनौती दी। 1971 में नक्सली गतिविधियों पर लगाम कसने के लिए पशिचम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय ने एक व्यापक व प्रभावी मुहिम भी चलायी।
यह अभियान करीब 45 दिनों तक चला। एक – एक करके सभी प्रभावशाली नक्सली नेताओं को गिरफ्तार भी किया गया इनमें चारू मजूमदार भी थे, लेकिन दर्भाग्य वश 1972 में चारू मजूमदार की मृत्यु पुलिस हिरासत में ही हो गर्इ। तब ऐसा लग रहा था कि अब नक्सली आन्दोलन पर विराम लग जीयेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आज करीब 233 जिले नक्सलवाद से बुरी तरह प्रभावित हैं। प्रति दिन नक्सली गतिविधियों में इज़ाफा हो रहा है लेकिन सरकार की उदासीन नीतियों के कारण इसके उन्मूलन के प्रति गंभीरता कम ही दिखायी पड़ रही है।
छत्तीसगढ़ की सरकार ने नक्सली गतिविधियों पर लगाम कसने के लिए सामाजिक स्तर पर सवाल जूडूम की शुरूआत तो की लेकिन मानवधिकार कार्यकर्ताओं की वजह से शीर्ष न्यायालय के निर्देश पर इसे तत्काल समाप्त करना पड़ा।
सरकार की यह हमेशा से कोशिश रही कि नक्सलियों के साथ बातचीत की जाये एवं उन्हें समाज की मुख्यधारा में शामिल किया जाये लेकिन 1967 से प्रारंभ हुए इस नक्सली तांडव में नक्सलियों ने अब तक 6000 निरपराधों की बलि ले ली है, इसलिए रक्तपिचास नक्सलियों से वात्र्ता निरर्थक है। वे अपना हथियार डालने के पक्ष में भी नहीं दिखते, इसलिए नक्सल समस्या के मामले में सरकार की हथियार डालों अपील, एक विफल प्रयोग है और सीज फामर के दुश्प्रभाव का अनुभव आंध्रप्रदेश सन 2004 में आंध्रप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वार्इ. उस. राजशेखर रेड्डी नक्सलियों के साथ जहाँ एक ओर वार्ता कर रहे थे वहीं दूसरी तरफ नक्सली भी सरकार को भड़काने में लगे थे, शांति वात्र्ता प्रारंभ होने से एक दिन पूर्व दिल्ली में पीपुल्स वार संगठन व भूमिगत माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा माओवादी) नाम से नए संगठन का गठन कर सरकार के गाल पर एक तमाचा रसीद दिया।
नक्सली नेताओं का मानना है कि जब तक सरकार उनके खिलाफ़ हथियार का प्रयोग करती रहेगी वे भी हथियार का दामन नहीं छोड़ सकते हैं। नक्सली न सिर्फ सरकार व उनके प्रतिनिधियों के खिलाफ हिंसात्मक कार्यवाही करते हैं बलिक निर्दोष नागरिकों के खिलाफ भी उनका यही रवैया है। एक अनुमान के मुताबिक नक्सली अवैध तरीकों से सलाना 800 करोड़ रूपयों की उगाही करते हैं।
नक्सली हिंसा के बुते सत्ता हासिल करना चाहते है। ज्यादातर नक्सली वन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों के वन संपदा संबंधी अधिकारों की लड़ाई के रूप में था, लेकिन बदलते समय के साथ धीरे-धीरे इसने राष्ट्र विरोधी स्वरूप् ग्रहण कर लिया। आज नक्सली न केवल वन और खनिज संपदा पर काबिज हैं, बल्कि हर तरह की अपराधिक गतिविधियों में भी शामिल हो गए हैं।
उन्होंने बड़े पैमाने पर हथियार और गोला-बारूद जुटा लिया है। इसमें सुरक्षा बलों से लूटे गए हथियारों के साथ-साथ दूसरे देशो से चोरी-छिपे हासिल हथियार और उपकरण भी हैं। नक्सलियों को न केवल विदेशी शक्तियों से समर्थन मिल रहा है, बल्कि देश के भीतर भी अपने स्वार्थ को साधने के लिए कुछ लोगों का समूह इनकी सहायता करता है। इन्होने कुछ लोगों के कारण देश में नक्सलवाद को नियंत्रण करना नामुमकिन होता दिख रहा है। अब आलम यह हो गया है कि इन नक्सलवादियों पर नियंत्रण कसना तो दूर की बात लग रही है, रहां प्रशासन एक तरफ इनपर लगाम कसने की बात कर करती है उतना ही नक्सलियों का दुस्साहस भी बढ़ रहा है।
वे अपनी अदालतें लगाते हैं और बेवजह बिना किसी उचित कार्यवाही किये मृत्युदण्ड की सजा तक देते हैं। जो महिलायें उनके गुट में शामिल रहती हैं उनका भी शारीरिक व मानसिक शोषण किया जाता है। अनेक राजनीतिक दलों के नेताओं का मानना है कि नक्सली समस्या का निदान सैनिक कार्यवाहियों के तहत नहीं बलिक बुनियादी सुविधाओं को मुहैया करवा कर की जा सकती है, लेकिन जब तक नक्सली सरकार के समक्ष एक मंच पर नहीं आते तब तक क्या ऐसा करना संभव है? इनका यह भटका हुआ आन्दोलन कौन सी दिशा में जा रहा है, शायद यह खुद भी इससे अच्छी तरह वाकिफ नहीं और यह समाज और सरकार के लिए चिंता का विषय बन चूका है।