संयुक्त राष्ट्र में नरेन्द्र मोदी ने दिया ‘‘ऑल इन वन’’ का संदेश

27 सितम्बर 1893 को स्वामी विवेकानंद ने शिकागो धर्म सम्मेलन में आध्यात्मिक उद्बोधन देकर आत्मतत्व को परिभाषित किया था, जो कालजयी संभाषण था। ठीक 121 वर्षोपरान्त 27 सितम्बर 2014 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा को सम्बोधित किया, यह मात्र सुखद संयोग ही कहा जा सकता है, दोनों के नाम भी एक ही हैं- ‘‘नरेन्द्र’’। किन्तु देश-काल-परिस्थिति के कारण वैचारिक प्रवाह के अंतर के बावजूद दोनों उद्बोधनों में आध्यात्मिक दृष्टिकोण से साम्यता स्पष्ट दिखाई देती है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र के होते हुए अलग-अलग जी समूह बनने के औचित्य पर सवाल उठाया। ‘‘सभी देशों का एक समग्र समूह जी-आल बनाया जाना चाहिए जिसके लिए संयुक्त राष्ट्र से अच्छा और कोई मंच नहीं हो सकता। संयुक्त राष्ट्र अगले वर्ष 70 वर्ष पूरे करने जा रहा है और इस अवसर का उपयोग करते हुए उसे आत्मचिंतन करना चाहिए।’’ स्पष्टतः जी-ऑल से तात्पर्य अद्वेतवाद ‘‘ईश्यावास्यमिदं सर्व’’ का संदेश मोदी ने अपने अंदाज में दिया। ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ का भारतीय चिन्तन आज अधिक प्रासंगिक है, जिसे स्वामी विवेकानन्द के बाद अटलविहारी बाजपेई और नरेन्द्र मोदी नेम अमेरिका की धरा पर सात्विक धारणाशक्ति के रूप में प्रस्तुत किया। ‘‘भारत में प्रकृति के प्रति आदर अध्यात्म का अंग है। योग व्यायाम नहीं है, बल्कि पुरातन और अमूल्य देन है। योग खुद से और दुनिया से जुड़ने का साधन
है।

संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय योग दिवस घोषित करे।’’ मोदी का यह कथन उस विकृत योगा (व्यायाम) पर कुठाराघात है, वास्तव में अष्टांगयोग की सिद्धावस्था ही आत्मतत्व से साक्षात्कार है, ‘‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’’ का अनुशीलन मोदी ने अंतरराष्ट्रीय योग दिवस की मांग उठाकर किया कि कम से कम एक दिन ही सभी खुद से जुड़ें जो विश्व से जुड़ने का साधन है।

विश्व भर में आतंकवाद (आसुरी प्रवृत्ति) बढ़ने का उल्लेख करते हुए मोदी ने कहा – ‘‘यह समस्या नए रूप और नए नाम धर रही है। कोई भी देश, भले ही वह बड़ा या छोटा हो, इस खतरे से मुक्त नहीं है। प्रधानमंत्री ने कहा कि आज भी विभिन्न देश अपनी भूमि को आतंकवाद की पनाहगाह बनने दे रहे हैं या आतंकवाद को अपनी नीति का एक अंग बना रहे हैं। क्या हम वास्तव में उन शक्तियों का सामना करने के लिए ठोस अंतरराष्ट्रीय प्रयास कर रहे हैं या हम अभी भी अपने विभाजन, देशों के बीच अपने भेदभाव और अच्छे आतंकवाद-बुरे आतंकवाद की राजनीति से बंधे हैं।’’ यह कथन भी ‘‘देवासुर-संग्राम’’ का लक्षणात्मक रूप को प्रस्तुत करता है।

सद्वृत्तियों और दुर्वृत्तियों के बीच बुद्धि पर एकाधिकार कर मन, चित्त और आत्मा को प्रभाव में लेने के आध्यात्मिक द्वन्द की तरह है। क्या आतंकवाद (आसुरी-प्रवृत्ति) के सफाये के लिए ‘‘बज्र’’ बनाने का प्र्रयास नहीं होना चाहिए? – देवेश शास्त्री27 सितम्बर 1893 को स्वामी विवेकानंद ने शिकागो धर्म सम्मेलन में आध्यात्मिक उद्बोधन देकर आत्मतत्व को परिभाषित किया था, जो कालजयी संभाषण था। ठीक 121 वर्षोपरान्त 27 सितम्बर 2014 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा को सम्बोधित किया, यह मात्र सुखद संयोग ही कहा जा सकता है, दोनों के नाम भी एक ही हैं- ‘‘नरेन्द्र’’। किन्तु देश-काल-परिस्थिति के कारण वैचारिक प्रवाह के अंतर के बावजूद दोनों उद्बोधनों में आध्यात्मिक दृष्टिकोण से साम्यता स्पष्ट दिखाई देती है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र के होते हुए अलग-अलग जी समूह बनने के औचित्य पर सवाल उठाया। ‘‘सभी देशों का एक समग्र समूह जी-आल बनाया जाना चाहिए जिसके लिए संयुक्त राष्ट्र से अच्छा और कोई मंच नहीं हो सकता। संयुक्त राष्ट्र अगले वर्ष 70 वर्ष पूरे करने जा रहा है और इस अवसर का उपयोग करते हुए उसे आत्मचिंतन करना चाहिए।’’ स्पष्टतः जी-आॅल से तात्पर्य अद्वेतवाद ‘‘ईश्यावास्यमिदं सर्व’’ का संदेश मोदी ने अपने अंदाज में दिया। ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ का भारतीय चिन्तन आज अधिक प्रासंगिक है, जिसे स्वामी विवेकानन्द के बाद अटलविहारी बाजपेई और नरेन्द्र मोदी ने अमेरिका की धरा पर सात्विक धारणाशक्ति के रूप में प्रस्तुत किया।

भारत में प्रकृति के प्रति आदर अध्यात्म का अंग है। योग व्यायाम नहीं है, बल्कि पुरातन और अमूल्य देन है। योग खुद से और दुनिया से जुड़ने का साधन है। संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय योग दिवस घोषित करे।’’ मोदी का यह कथन उस विकृत योगा (व्यायाम) पर कुठाराघात है, वास्तव में अष्टांगयोग की सिद्धावस्था ही आत्मतत्व से साक्षात्कार है, ‘‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’’ का अनुशीलन मोदी ने अंतरराष्ट्रीय योग दिवस की मांग उठाकर किया कि कम से कम एक दिन ही सभी खुद से जुड़ें जो विश्व से जुड़ने का साधन है।