शिक्षा का बढ़ता व्यवसायीकरण बना चिंता का विषय

हमारे देश में शिक्षा के क्षेत्र का क्या महत्व है ये किसी को बताने की जरूरत नहीं है। भारत के करोड़ों बच्चे हर सुबह अपना बस्ता लेकर स्कूल जाते हैं। हर माता-पिता की तमन्ना रहती है कि उनका बच्चा पढ़-लिखकर एक काबिल इंसान बने और दुनिया में खूब नाम रोशन करे। इन स्वप्नों को पूरा करने में स्कूल और हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं।

ज़ाहिर सी बात है किसी भी देश की संपन्नता उस देश की जनसंख्या के साक्षरता अनुपात पर निर्भर करती है। यद्यपि संपन्नता के लिए साक्षरता के अलावा अनेकों अन्य कारण भी होते हैं, लेकिन यह पूर्ण विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि बिना शिक्षा के किसी देश राज्य या परिवार की प्रगति संभव नहीं है। शिक्षा के बिना मानव पशु के समान है, क्योंकि शिक्षा ही सभ्यता एवं संस्कृति के निर्माण में सहायक होती है और मानव को अन्य प्राणियों की तुलना में श्रेष्ठ बनाती है।

लेकिन विडंबना यह है कि लोगों के जीवन को गढ़ने वाली यह पाठशाला आजकल एक ऐसा व्यवसाय का रूप ले चुकी है.. जिसने अच्छी शिक्षा को पैसे वालों की बपौती बना कर रख दिया है। यहाँ तो अब साधारण तथा मध्यमवर्गीय परिवार बस बड़े स्कूलों को दूर से टकटकी लगाकर देखते हैं और सोचते हैं कि काश उनका बच्चा भी ऐसे स्कूलों में पढ़ पाता।

आजकल शहरों में तो क्या, गांवों में भी शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया है। यदि आंकड़ों को देखा जाए तो सरकारी स्कूलों में केवल निर्धन वर्ग के लोगों के बच्चे ही पढऩे के लिए आते है, क्योंकि निजी शिक्षा संस्थाओं के फीस के रूप में बड़ी-बड़ी रकमें वसूली जाती है, जिन्हें केवल पैसे वाले ही अदा कर पाते है।

आज अच्छी और उच्च शिक्षा का व्यवसायीकरण हो रहा है। निजी शिक्षण संस्थानों के संचालक मनमर्जी की फीस वसूल कर रहे है या यूँ कहें शिक्षा का बाज़ार लगाकर लूट मचा रखी है। जहाँ एक तरफ जितनी स्कूल की फीस बढ़ती जा रही है, वहीँ दूसरी तरफ उतना ही शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है। लेकिन क्या कभी आपने सोचा है की इस सबके लिये कही ना कही हम सब भी जिम्मेदार हैं।

पता नहीँ हम सब किस रेस में आगे निकलने की कोशिश कर रहे है। ज्यादातर लोगों की यह सोच है कि शहर का सबसे महंगा स्कूल ही सबसे अच्छा स्कूल है, और हम अपने बच्चों को उसी महंगे रेस का हिस्सा बना देते है।

स्कूल में एडमिशन की रेस

आज के दौर मैं आपके मनपसंद स्कूल में प्रवेश लेना ही अपनेआप में एक बडी चुनौती हो गया है। मध्य वर्गीय परिवार अपने बच्चों को उनकी पसंद के स्कूल में नही पढ़ा सकते आज आलम यह है की नर्सरी कक्षा की फीस ही करीब एक लाख रुपए हो गयी है। यदि आपको अच्छे स्कूल मॆ बच्चे को पढ़ाना है तो आपके बैंक अकाउंट में अच्छी खासी रकम होनी चाहिये। वरना आपका अपने बच्चे को अच्छे कहे जाने वाले स्कूल में पढ़ाने का सपना बस एक सपना बन कर ही रह जायेगा।
शिक्षा की अंग्रेजी से तुलना 

शिक्षा को आजकल अंग्रेजी से भी आँका जाने लगा है। जिसको जितनी अंग्रेजी आती है उसकी तुलना बहौत ही बुद्धिमान लोगों में होने लगती है। शिक्षा को शिक्षा के व्यापारियों ने वेस्टर्न कल्चर कि तरफ़ ढकेल दिया है। आजकल लोगों को मात्रभाषा बोलने में शर्म मेह्सूस होती है तथा अँग्रेजी बोलने में गर्व मेहसूस होता है।

इसके दुष्परिणाम यह है कि आज आई.ए.एस., आई.पी.एस. तथा अच्य उच्च श्रेणी की परिक्षाओं में गांवों के 10 प्रतिशत विद्यार्थी भी सफल नहीं हो पाते। आज शहरों के संपन्न परिवारों के नवयुवक उच्च सेवाओं में आ रहे है। उन्हें न तो गांव का ज्ञान होता है और न ही गांव के लोगों से किसी प्रकार की हमदर्दी। बस आती है तो अच्छी अंग्रेजी।

स्कूल बने बाज़ार

फीस ना होने के कारण कुछ लोग तो अपने बच्चों को स्कूल भेजने में भी अस्मर्थ है। फीस तो है ही, उसके साथ -साथ पुस्तकें, यूनिफॉर्म के खर्चे भी बहुत हो गये है। स्कूल का व्यवसाय इतना लाभदेय हो गया है कि स्कूल वालों ने पुस्तक और स्कूल ड्रेस का व्यापार भी करना शुरू कर दिया है। अपने ही रिश्तेदार को ठेका दे देते है पुस्तकों और ड्रेस का। जिससे लाभ वो भी लेते है और उनके रिश्तेदार भी।
शिक्षा में सुधार के लिए आवश्यक कदम की जरुरत

शिक्षा के ऐसे हालातों को देखते हुए सरकार को कुछ सख्त कदम उठाना चाहिये और शिक्षा का मौलिक आधार प्रत्येक बच्चे तक पहुँचाना चाहिये। हमारी सरकार को यह भी सोचना चाहिए कि वो आम जनता को क्यों इस प्रकार लुटने दे रही है। इन व्यवसायिक निजी स्कूलों के स्तर की ही शिक्षा मिशनरी स्कूल (मसलन सेंट पॉल, कॉन्वेन्ट, सेंट जेवियर, सेंट रैफल, सेंट नारबर्ट आदि) भी दे रहे हैं और अपेक्षाकृत काफी कम फीस में, तो कुछ स्कूलों को ऐसा अधिकार क्यों कि वो बच्चों के भोले-भाले अभिभावकों को शिक्षा के नाम पर बेवकूफ बना कर उनसे मनमाना फीसवसूल करें।

इस मनमानी को रोकने के लिए सरकार को चाहिए कि वह शिक्षा का व्यवसायीकरण पर रोक लगाये। निजी शिक्षण संस्थाओं की फीस सरकार द्वारा तय की जानी चाहिए तथा इस फीस इतनी हो कि निर्धन वर्ग के बच्चे भी उन शिक्षण संस्थाना में शिक्षा ग्रहण कर सके, क्योंकि भारत देश की अधिकतर आबादी ग्रामीण आंचल में बसती है, जो निर्धन वर्ग में आती है।

यदि हमारी शिक्षा व्यवस्था में सुधार नहीँ हुआ तो यक़ीनन हमारे युवाओं का भविष्य अँधेरे की और चला जायेगा। शिक्षा को व्यवसाय नही गौरव बनाये। ताकि हर एक बच्चा शिक्षा को प्राप्त कर सके और देश का नाम रोशन करे।