मोल की खबरें, खबरों का मोल

paid-newsमीडिया एक, चेहरे अनेक। अनेकता में एकता सजोए हुए हमारा मीडिया। जिसके परिप्रेक्ष्य में लगातार मीडियाविद् का कथन, उसके कारनामों पर हमेशा पर्दा डालते हुए

कहा जाता रहा है कि वो तो अभी बच्चा है। परंतु उन्हें अब मामूल हो जाना चाहिए कि जिसके कारनामों को नादानी का नाम देकर छोड़ा जाता रहा है यह अब बच्चा नहीं रहा, बढ़ा हो चुका है। इसने जवानी की दहलीज पर अपने कदमों को रखने के साथ ही अपनी मर्यादाओं को लांघना शुरू कर दिया है यानी अब यह बेशर्म हो चुका है।

 

वैसे मर्यादाएं तो इसने बचपन में ही लांघनी शुरू कर दी थी, क्योंकि किसी ने इस पर रोक लगाने या इसको दंड देने की कोशिश नहीं की, ताकि यह वक्त रहते सुधर तो जाता। अब यह बेशर्म बन चुका है। छुट्टा सांड़, जिस पर लगाम लगाना, बिल्ली के गले में घंटी बांधने के समान प्रतीत होता है। आखिर मुसीबत कौन मोल ले?

अभी विगत कुछ दशकों से इसके एक चेहरे यानी पेड न्यूज पर बहुत सारी बहसें देखने और सुनने को मिलती रही हैं। वैसे पेड न्यूज का जिक्र इतिहास के पन्नों में भी मिलता है। जिससे यह ज्ञात होता है कि यह कोई नई विधा नहीं है इसका प्रयोग मीडिया सदियों से अपने हित के लिए करता आ रहा है। पहले यह लुकछिप कर होता था, परंतु वैश्विकरण के दौर में इसका उपयोग खुलेआम होने लगा है। पेड न्यूज एक ऐसा बहुरूपिया है जो समय-समय पर अपना रूप बदलता रहता है। जिसका प्रतिरूप को वर्तमान सामाजिक यथार्थ में साफ देख सकते हैं कि किस प्रकार मीडिया पर हावी बाजारीकरण इनकी आर्थिक जरूरतों की पूर्ति करता है। इस पूर्ति हेतु मीडिया अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों से भटकता जा रहा है और पेड न्यूज का सहारा ले रहा है।

हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं कि मीडिया की प्रक्रियाओं में प्रकट या अप्रकट रूप से नियंत्रण का तत्व मौजूद रहता है। इस नियंत्रण की प्रक्रिया को ढ़ाल बनाकर मीडिया अपना हित साधने में सदा ही प्रत्यनशील रहा है। जिसके लिए कीमत का कोई मोल नहीं होता। मीडिया में दावन की भांति हावी पेड न्यूज आज एक गंभीर चुनौती बन चुकी है।

जिसके संदर्भ में चाहे मीडिया चिंतक हो, मीडिया विद् हो, विश्लेषक हो या फिर आलोचक सभी इस दावन रूपी बाजारवाद के प्रभाव से सकते में हैं, कि क्या होगा आने वाले समय में इस मीडिया का? वैसे पेड न्यूज मीडिया का एक चेहरा ही है। जिसमें मीडिया खबरों के स्थान को बेचकर अपना उल्लू सीधा करता है। परंतु अब एक और चेहरा जिस पर आज तक सभी की नजरें होते हुए भी किसी ने इसके खिलाफ आवाज उठाने की जहमत नहीं उठाई। चाहे वो मीडिया के ठकेदार हो या समाज।

मैं बात कर रहा हूं खबर के बदले दाम की। जी हां, खबर के बदले दाम। जिसको मैंने अपने पिछले लेख मैं मीडिया से बोल रहा हूं, में कुछ हद तक प्रतिबिंबित करने कोशिश की थी कि, किस प्रकार मीडिया कर्मी अपने दायित्वों का पूर्णतः से निर्वाहन न करते हुए खबरों को बेचने का काम कर रहे हैं। जितनी बड़ी खबर, उतना ज्यादा रुपया।

खबर के बदले रुपया से आशय है कि ‘यह वो कीमत है जिससे पत्रकार अपना मुंह बंद रखते हैं और पूरी के पूरी खबर को डकार जाते हैं’ और जहां से इनकों खबर के एवज में रुपए मिलने की दूर-दूर कोई संभावना नजर नहीं आती, या यूं कहा जाए कि डरा-धमकाने के बाद खबर से संबंधित व्यक्ति रुपए देने से इंकार कर देता है तो उसके खिलाफ बढ़ा-चढ़ाकर, नमक-मिर्च लगाकर खबरों को परोस दिया जाता है।

साथ-ही-साथ उसका अगले अंक में फॉलोअप भी किया जाता है ताकि खबर से संबंधित व्यक्ति पर कार्यवाही करवा सकें। इस प्रकार नमक-मिर्च लगाकर, बढ़ा-चढ़ाकर खबरों को परोसना और उसका फॉलोअप करना, दूसरे लोगों को सींख देता है कि देखा उस शख्स से रुपया नहीं दिया था तो उसका हमने यह हश्र करवाया। अगर तुम्हारे से संबंधित भी कोई खबरें हमारे हाथ लगती हैं तो रुपया देना ही पड़ेगा, नहीं तो तुम्हारा भी यही हश्र होगा। क्योंकि मीडिया अब भौंकने के साथ-साथ काटने पर उतारू हो चुका है। अपनी सारी मर्यदाओं को तांक पर रखकर।

अब सवालात यह उठते हैं कि मीडिया के द्वारा परोसी तथा गौण की जा चुकी सभी खबरों व जानकारियों पर विश्वास किया जाए या नहीं? सोचना भी मुश्किल हो गया है, क्योंकि एक तरफ तो संपादक, संपादक नहीं प्रबंधक; जो मोल के बदले खबर को प्रकाशित/प्रसारित करने के काम में लगे पड़े हैं तो दूसरी तरफ मीडिया कर्मी खबर के बदले मोल के प्रभाव में उन खबरों को दबा देते हैं जो समाज के सामने आनी चाहिए थी।

जिस पर आज तक किसी भी मीडिया अखबार, चैनल ने कभी चर्चा-परिचर्चा करने की जहमत नहीं उठाई, और न ही इसको खत्म करने की कभी वकालत की। इसके मूल में जो भी हो या रहा हो, परंतु मीडिया अपने सामाजिक सरोकर से इतर होकर अपनी नैतिकता भूलता जा रहा है, जो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मीडिया को शर्मसार करने के लिए काफी है।

यह स्थिति देश और समाज दोनों के हित में नहीं है। क्योंकि, जिस प्रकार मोल की खबरों तथा खबरों का मोल दोनों को बढ़वा दिया जा रहा है। उससे साफ प्रतीत होता है कि मीडिया और मीडिया कर्मी अपनी भूख मिटाने के चलते अपनी नैतिकता दांव पर लगाते जा रहे हैं। यह कहीं न कहीं मीडिया की प्रतिष्ठा पर एक बदनुमा दाग के समान ही उभर कर सामने आया है। जिसको किसी भी सर्फ एक्सल या टाइड से क्यों न धोया जाए, साफ नहीं हो सकता।