मलवांचल में कौरवों ने अनेक मंदिर बनाएं थे जिसमें से एक है सेंधल नदी के किनारे बसा यह कर्णेश्वर महादेव का मंदिर। करनावाद (कर्णावत) नगर के राजा कर्ण यहां बैठकर ग्रामवासियों को दान दिया करते थे इस कारण इस मंदिर का नाम कर्णेश्वर मंदिर पड़ा। ऐसी मान्यता है कि कर्ण यहां के भी राजा थे और उन्होंने यहां देवी कर कठिन तपस्या की थी।
कर्ण रोज देवी के समक्ष स्वयं की आहूती देते थे। देव उनकी इस भक्ति से प्रसन्न होकर रोज
अमृत के छींटे देकर उन्हें जिंदा करने के साथ ही सवा मन सोना देती थी। जिसे कर्ण उक्त्त मंदिर में बैठकर ग्रामवासियों को दान कर दिया करते थे। मालवा और निमाड़ अंचल में कौरवों द्वारा बनाए गए अनेकों मंदिर में से सिर्फ पांच ही मंदिर को प्रमुख माना गया है जिनमें क्रमशः ओमकारेश्वर में ममलेश्वर, उज्जैन में महांकालेश्वर, नेमावर में सिद्धेश्वर, बिजवाड में बिजेश्वर और करनावाद में कर्णेश्वर मंदिर। इन पांचों मंदिर के संबंध में किंपदंति है कि पांडवों ने उक्त्त पांचों मंदिर को एक ही रात में पूर्वमुखी से पश्चिम मुखी कर दिया गया था।
कर्णेव्श्वर महादेव मंदिर के पुजारी हेमंत दूबे ने कहा कि ऐसी किंवदंतिम है कि अज्ञात वास के दौरान माता कुन्ति रेत के शिवलिंग बनाकर शिवाजी की पूजा किया करती थी तब पांडवों ने पूछा कि आप किसी मंदिर में जाकर क्यों नहीं पूजा करती? कुंति ने कहा कि यहां जितने भी मंदिर हैं वे सारे कौरवों द्वारा बनाए गए हैं जहां हमें जाने की अनुमति नहीं है। इसीलिए रेत के शिवलिंग बनाकर ही पूजा करनी होगी।
कुंति का उक्त्त उत्तर सुनकर पांडवों को चिंता हो चली और फिर उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से उक्त्त पांच मंदिरा के मुख को बदल दिया गया तत्पश्चात् कुंति से कहा की अब आप यहां पूजा – अर्चना कर सकती हैं। क्योंकि यह मंदिर हमने ही बनाया है। कर्णेश्वर मंदिर की भव्यता देखते ही बनती है। बताया जाता है कि इस मंदिर कि इस मंदिर में स्थित जो गुफाएं हैं वे उज्जैन के महांकालेश्वर मंदिर के अलावा अन्य तीर्थ स्थानों तक अंदर ही अंदर निकलती है। गांव के कुछ लोगों द्वारा उक्त्त गुफाओं को बंद कर दिया गया है ताकि वह सुरक्षित रहे। यहां प्रतिवर्ष श्रावण मास में उत्सवों का आयोजन होता है और बाबा कर्णेश्वर महादेव की झांकियां निकलती हैं जो कि बहुत ही भव्य होती है।