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मायावती ने एक बार फिर की सोशल इंजीनियरिंग की बात

mayawatiलखनऊ। लखनऊ में अपने जन्मदिन के अवसर पर मायावती ने लगातार डेढ़ घंटे भाषण दिया। मायावती के भाषण में चुनावी जोड़ – घटाने  और नफ़ा – नुकसान का आंकड़ा तो दिया। मगर इस दौरान मायावती ने एकबार फिर सोशल इंजीनियरिंग की बात कही। हाल के चार विधान सभा चुनाव के परिणाम और साल 2012 में उत्तर प्रदेश के सत्ता से बेदखल हो चुकी मायावती अब अपने रणनीति में बदलाव करने को भी तैयार है।  जिसको लेकर मायावती ने मंच से ही एलान कर दिया।

हमेशा दलितो और पिछड़ो की बात करने वाली बहन मायावती के सुर अपने जन्मदिन के अवसर पर सावधान महारैली में बदले नजर आये। साल 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव को देखते हुए मायावती ने मंगलवार को लखनऊ के रमाबाई रैली स्थल में अपने चुनावी रैली का बिगुल तो फूंका मगर पुरे लेखा जोखा के साथ। मायावती ने अपने भाषण की शुरुवात सबसे पहले साल 2012 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में मिली शिकस्त और साल 2009 के लोकसभा चुनाव में मिले सीटों का लेखा जोखा देने के साथ हाल में हुए चार विधान सभा चुनाव में कम हुए सीटो का भी वजह बताया। मायावती ने कहा कि उन्होंने ये कभी नहीं सोचा था कि जो पार्टियां एक दूसरे की दुश्मन है। वो बीएसपी के खिलाफ मिलकर चुनाव लड़ेंगी। मगर इसके पीछे का उनका तर्क यही था कि वो एक दलित वर्ग की लड़की है जो बीएसपी को लीड कर रही है। जो इन पार्टियों से बर्दाश्त नहीं हो रहा था अगर कोई और जाति का होता तो शायद ये बर्दाश्त कर लेते।

मायावती का मानना है कि इन पार्टियों के जातिवादी सोच का नुकसान उठाना पड़ा है। मगर अब मायावती खुद मानती है कि बदलते वक़्त के साथ इन पार्टिओं के जातिवादी सोच के खिलाफ कोई ठोस उपाय करना बेहद जरुरी है। और इसके लिए बीएसपी के कार्यकर्ताओं को पुरे देश में दलित और पिछड़े वर्ग के लोगो को जो आज भी जातिवादी व्यवस्था के शिकार है। उन्हें एक जुट होना होगा। मगर इसके साथ साथ पार्टी कार्यकर्ताओ को दलित वर्ग और पिछड़ा वर्ग के साथ मुश्लिम और फारवर्ड वर्ग के लोगो को भी जोड़ना होगा। मतलब मायावती एक बार फिर सोशल इंजीनियरिंग की बात कर रही है। वही सोशल इंजीनियरिंग जिसकी शुरुवात मायावती ने साल 2007 में शुरू किया था, जब कैप्टन सतीस चन्द्र मिश्रा को पार्टी में एक कद प्रदान किया था।

कांग्रेस के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के नेता तारिक सिद्धकी का भी मानना है कि उत्तर प्रदेश की जनता द्वारा साल 2012 में विधानसभा चुनाव में सत्ता से बेदखल कर देना, और हाल में हुए चार राज्यो के विधान सभा चुनाव में उनके सीटो का गिरावट ये प्रमाणित करता है कि उनका मुस्लिमो और फारवर्ड वर्ग में पैठ कमजोर पड़ चूका है। हांलाकि मायावती ने साल 2007 में सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला चलाया था। और एक नारा दिया था सर्वजन हिताय – सर्वजन सुखाय का। मगर उसपर उन्होंने कोई अमल नहीं किया। ये केवल बस एक नारा बनकर रह गया। उन्होंने जो भी हित और सुख की बात की वो सिर्फ एक वर्ग विशेष के लिए किया, जबकि अब देश की राजनीति में बदलाव आ चूका है। क्योकि हम भी ये मानते है और इसका सबसे बड़ा उदाहरण दिल्ली है। अगर ऐसा नहीं होता तो आज एक बार फिर दिल्ली में कांग्रेस की ही सरकार बनती। मगर उत्तर प्रदेश की सत्ता से मायावती का बेदखल होने की सबसे बड़ी वजह करप्सन है। जिसे वो टाल रही है।

उधर कांग्रेस के ही एक मुश्लिम नेता मारूफ खान के अनुसार बसपा प्रमुख की लखनऊ में आयोजित सावधान रैली एक ‘राजशाही रैली कहा। उन्होंने कहा जिस तरह करोड़ों रूपये पानी की तरह बहाकर रैली का इंतजाम किया गया, वह गरीबों का अपमान है। मायावती करोड़ों रूपये खर्च कर रैली के माध्यम से मुजफ्फरनगर दंगे के पीडि़तों पर घडि़याली आंसू बहाया है। अगर रैली के खर्च का 10प्रतिशत भी मुजफ्फरनगर दंगे के पीडि़तों पर खर्च करतीं तो वहां के शिविरों में रह रहे लोगों को कुछ राहत अवश्य मिलती। मुजफ्फरनगर दंगा हुए पांच माह बीत जाने के बाद भी मायावती आज तक दंगा पीडि़तों का हालचाल लेने मुजफ्फरनगर नहीं गयी और बात मुसलमानो को जोड़ने की करती है। मायावती एक लम्बे अर्से से प्रदेश में जाति एवं धर्म की राजनीति करके प्रदेश की जनता को गुमराह कर रही हैं। उन्होने कहा कि वर्ष 1989 के बाद से प्रदेश में गैर कांग्रेसी सरकारों द्वारा बिजली एवं पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिए कोई कार्य नहीं किया गया जिसके नतीजे में चाहे बसपा का शासनकाल हो या सपा का, प्रदेश के अधिकतर जिलों में 18-18 घण्टे बिजली नहीं पहुंच पायी। जिसके चलते प्रदेश औद्योगिकीकरण में फिसड्डी रह गया। भ्रष्टाचार के मामले में भी बसपा कहीं से भी कमतर नहीं रही, चाहे एनआरएचएम घोटाला हो अथवा स्मारक घोटाला, प्रदेश की जनता अभी इन घोटालों को भूली नहीं है।

उधर भाजपा के महिला अल्पसंख्यक मोर्चा की अध्यक्ष के अनुसार मायावती को अभी तक दलितों और पिछड़ा वर्ग के लिए राजनीति करती आयी है, जिसमे मुस्लिम वर्ग उनके लिए बोनस वोट के रूप में मिलता था। जो अब वापस लौट रहा है। क्योकि अब देश का मुसलमान भी ये जान गया है कि  उसका इस्तेमाल केवल वोट बैंक के लिए किया जाता रहा है। चाहे वो बीएसपी हो, सपा हो या फिर कांग्रेस। रही बात भाजपा की तो ये सब जानते है कि भाजपा हिन्दू प्रधान पार्टी है और इस पार्टी से मुस्लिम जल्दी जुड़ता नहीं है। मगर इसबार नरेंद्र मोदी को लेकर मुसलामानों का रुझान भी भाजपा की तरफ बढता जा रहा है। वैसे भी बीएसपी ने साल 2007 में सर्वजन हिताय – सर्वजन सुखाय का नारा दिया था मगर वो कितना अमल हुआ ये देश की जनता जानती है।

एक राजनीतिक विषेशज्ञ अशोक भठ्ठ के अनुसार हालिया चुनाव परिणाम और उत्तर प्रदेश की सत्ता गवाने के पीछे मायावती के दो कारण रहे। पहला कारण करप्सन और दूसरी वजह उनके हाथ से फिसलता मुस्लिम वोट।  इनकी माने तो दिल्ली में आप पार्टी की सरकार बनाना हर पार्टी के लिए एक बदलाव का संकेत दे चूका है। अब ट्रेडिशनल वोट बैंक की परम्परा ख़त्म होती जा रही है। और इस बदालव को अब हर पार्टी समझने की कोशिस कर रही है। ऐसे में मायावती का दलित, पिछड़ा वर्ग के साथ मुस्लिम और फारवर्ड वर्ग को जोड़ने की बात कर रही है। जो उनके उस सोशल इंजीनियरिंग को दर्शाता है जो उन्होंने पहले शुरू तो किया था मगर ध्यान नहीं दिया था। मगर अब मायावती को  लगता है कि अब वो समय आ गया है कि उन्हें पाने रणनीति पर विचार करने की जरुरत है, मगर उसपर अमलीजामा पहनना जरुरी है। उसी का ये एक कवायत है। क्योकि देश में मुश्लिम कौम भी वोट के लिए एक अहम् है ये हर पार्टी जानती है। भाजपा को छोड़ दे तो कांग्रेस, सपा और बीएसपी का फोकस मुस्लिम वोट पर ज्यादा रहता है।