समाज के आखिरी व्यक्ति के कवि: बाबा नागार्जुन

निडरता, समानता, प्रेम, वात्सल्य, व्यंग, वास्तविकता, विरोध, समर्थन, निश्चलता और जीवंतता की परिचायक है बाबा नागार्जुन उर्फ वैद्यनाथ मिस्र की कविताएँ।

बिहार के विख्यात मधुबनी जिले का तरउनी गांव।
गोकुल मिसिर के घर पैदा हुए ठक्कन।ठक्कन महाशय का असल नाम रखा गया बैद्यनाथ मिसिर।
प्रारंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई,काशी से शास्त्रीय परीक्षा पास की और कलकत्ता से साहित्याचार्य की उपाधि प्राप्त की फिर संस्कृत,पाली, प्राकृतिक भाषा का अध्ययन किया। सन 1930 में इन्होंने ‘यात्री’ नाम से मैथिली में कविता लिखना प्रारंभ किया। सन 1936 में श्रीलंका के विद्यालंकार परिवेण में जाकर इन्होंने बौद्ध दर्शन और पाली का अध्ययन- अध्यापन किया और उसी समय बौद्ध धर्म के साथ-साथ नागार्जुन नाम भी अपनाया।

बाबा नागार्जुन आम जनता के कवि थे। उनकी कविताओं का एक बहुत बड़ा भाग जनादोलनों,ग्रामीण जीवन के अछूते पहलुओं और सामंत विरोधी लोक संस्कारों से भरा हुआ है। बाबा नागार्जुन ने सरकार के, नेताओं के दोगलेपन को सबके सामने उजागर किया,बाबा ने साफ बताया कि मौजूदा सरकार जनता के साथ नहीं बल्कि बड़े-बड़े उद्योग घरानों और कंपनियों के साथ है वा उनकी पक्षधर है-
“खादी ने मलमल से सांठ-गांठ कर डाली है
बिरला,टाटा और डालमियां की तीसो दिन दिवाली है
जोर-जुल्म की आंधी चलती,
बोल नहीं कुछ सकते हो,
समझ नहीं पाता हूँ कि
हुकूमत गोरी है या काली है।”

स्वतंत्रता के बाद का भारत अपनी वास्तविकता के साथ बाबा नागार्जुन की कविताओं में जीवंत हो उठा है। आजाद भारत में जितनी भी विषमता,दुख, परेशानियां घोटाले धोखेबाजी सामने आई बाबा ने उन सब पर अपनी कलम चलाई।आजाद भारत के केवल बाबा नागार्जुन ही ऐसे कवि थे जो इतनी बेबाकी और निडरता से सरकार और समाज का बुराइयों का विरोध करते थे। बाबा की कविताओं में हमारा समाज और हमारा जीवन अपनी वास्तविकता के साथ उजागर होता है। फटी बिवाइवो वाले खुरदरे पैरों से रिक्शा खींचते मजदूर, समान ढोते खींचते कुली, आग की लपटों में फेंके जा रहे हरिजन, लाठी खाते हुए जयप्रकाश नारायण तथा ट्रामो में सुरती फाकते हुए मजदूर इन सभी के दर्शन हमें नागार्जुन की कविताओं में होते हैं। निराला की तरह नागार्जुन का साहित्य भी दलित शोषित मजदूर किसान वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है, बाबा उनकी वास्तविक स्थिति को अपने साहित्य के माध्यम से उजागर करते हैं। नागार्जुन के साहित्य की जड़े इन सभी वर्गों से जुड़ी हुई हैं।
तात्कालिक विषयों को कविता में बदलना खतरनाक काम है परंतु इसके बावजूद नागार्जुन इस चुनौती को स्वीकार करते हैं और बखूबी इस दायित्व को निभाते हैं और जनकवि बन कर सभी के सामने उभरते हैं।नागार्जुन ने हमेशा अन्याय के विरोध में अपना कलम रूपी हथियार उठाते हैं फिर चाहे बात नेताओं के झूठे वादों को सबके सामने लाना हो या फिर समाज में फैले पाखंड को सभी के सामने उजागर करना हो । वास्तव में व्यंग नागार्जुन की कविताओं में शोषको के विरुद्ध पनपने वाले गुस्से का स्वरूप है।नेताओं के राम राज्य के प्रति आम जनता के मोह भंग की स्थिति को नागार्जुन ने कुछ इस प्रकार से व्यक्त किया है-
“रामराज्य में अब के रावन नंगा होकर नाचा है
सूरत शक्ल वही है भईया,बदला केवल ढांचा है नेताओं की नियत बदली,फिर तो अपने ही हाथों
भारतमाता के गालों पर कसके पड़ा तमाचा है।”

नागार्जुन अपनी चीर परिचित फकड़ी और मस्ती के बावजूद एक बेचैन कवि है वे सिर्फ बाहर हो रही घटनाओं की आलोचना नहीं करते बल्कि आत्मालोचना भी करते हैं जो कई बार आत्मा भर्त्सना तक भी पहुच जाती है तभी बौद्ध दर्शन के अनुसंधान में लगे नागार्जुन बीच यात्रा से ही लौट आते हैं और वे कहते हैं “मन में कहीं लग रहा था कि वर्तमान से मुंह मोड़ कर अतीत में भागना ठीक नहीं है”

नागार्जुन तमाम जीवन लालची सत्ता,अन्याय और पाखंड से लोहा लेते रहे। उन्होंने साफ उद्घोष किया ‘जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊं जनकवि हूँ मैं साफ करूंगा क्यों हकलाओ’
नागार्जुन इस देश के अंतिम आदमी को भी सुख चैन की नींद सोता देखना चाहते थे इसलिए बाबा ने किसी भी पंथ से गुरेज नहीं किया उनका मानना था कि जिस भी विचारधारा से देश के गरीबों को रोटी मिल जाए वह जायज है इसी बात को लेकर उनकी आलोचना भी हुई कि नागार्जुन कभी भी किसी की एक विचारधारा में टिक कर नहीं रह सकते तब नागार्जुन कहते हैं कि मेरी एक ही विचारधारा है जनवाद,जनता का लाभ,गरीबों के लिए दो जून की रोटी और तन ढकने के लिए कपड़ा और यह जिस भी विचारधारा से आए वही मेरी विचारधारा है।
नागार्जुन इस समाज से बाहर बैठकर कही से उपदेश नहीं देता बल्कि वह कबीर की भांति लुकाठी अपने हाथों में रखकर बीच बाजार में खड़े होकर शोषकों पर प्रहार करते हैं।
नागार्जुन बड़े कवि केवल व्यंग्य और सपाट बयानी के लिए ही नहीं थे आरती बल्कि सहज सरल जीवन के चित्रण, मधुर प्राकृतिक चित्रण, रागात्मकथा, सौंदर्य एवं कोमल संवेदनशील हृदय के कारण भी थे। बादल उनकी कविता का जैसे एक मुख्य पात्र है इस बादल का क्षेत्र काफी विस्तृत है,संस्कृत की क्लासकीय परंपरा में अगर इसका एक छोर है तो दूसरा ठेठ लोग जीवन से जुड़ा है।बादल का ख्याल आते ही नागार्जुन का मन झूमने लगता है-
अमल धवल गिरि के शिखरों पर
बादल को घिरते देखा है
छोटी छोटी मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को
मानसरोवर के उस स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है
बादल को घिरते देखा है

वहीं दूसरी ओर नागार्जुन का ह्रदय इतना कोमल और दृष्टि इतनी गहरी है कि वह शिशु की दंतुरित मुस्कान और बस में लटकी छोटी बच्ची की चूड़ियों पर भी सुंदर और मार्मिक कविता लिखते है।
नागार्जुन ने अपने अंतिम समय तक भारतीय राजनीति में चल रही उथल-पुथल और स्वराज्य के सपने को कविता में बांधना जारी रखा। हमेशा दरिद्रता और अभाव में रहे अलबेले,अव्यवस्थित,अकड़-फक्कड़ बाबा नागार्जुन 5 नवंबर 1998 शारीरिक तौर से प्रस्थान कर गए। कबीर- निराला परंपरा की तीसरी कड़ी बाबा नागार्जुन थे। बाबा नागार्जुन समाज के आखिरी व्यक्ति के कवि थे जो ताउम्र उस आखिरी व्यक्ति के अधिकारों और न्याय के लिए लड़ते रहे। जब भी किसी बस का ड्राइवर नन्ही बेटी की गुलाबी चूड़ियों की खनखन में जीवन का संगीत ढूंढेगा,जब भी आकाश में महामेघ के पर्वतराज से टकराने की ध्वनि प्रकृति का अनहद नाद बनेगी,जब भी हफ्तों से ठंडे पड़े झूले में दोबारा भात पकेगा,जब भी संसद के गलियारों मैं खद्दरधारी लूट मचाएंगे तब तब बाबा नागार्जुन की कविताएं हमारी साथी बन के हमारे साथ खड़ी रहेंगी।