भारत वर्ष में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि को माना जाता है और कृषकों की मुख्य आय का साधन खेती है। लेकिन आत्म निर्भर कृषि प्रधान देश मात्र अब कर्जदार देश बनकर रह गया है। इन दिनों किसानों की मुसीबतें कम होने के बजाय बढ़ती जा रही हैं। एक तरफ किसानो को फसल का समर्थन मूल्य भी नहीं मिल रहा है, तो वहीँ दूसरी ओर बाजार से उम्मीद लगाकर खेती करने वाले किसानो कि दशा मानो दिन पर दिन बिगड़ती ही जा रही है।
आज किसानों पर चौतरफा हमला हो रहा है जिससे उनमें हाहाकार मचा हुआ है। पानी-बिजली का गहराता संकट, आधुनिक खेती में खाद-बीज, बिजली, डीजल की बढ़ती लागतें, जहरीली और बंजर होती जमीन और खुली बाजार में माटी मोल बिकती फसलों ने किसानों की मुसीबतें बढ़ा दी हैं।
कुछ लोग किसानों के संकट को प्राकृतिक कहते हैं, जो कभी सूखा, अकाल और अधिक वर्षा के रूप में दिखाई देता है। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। सच यह है कि जब किसान की फसल बिगड़ती है तब तो वह नुकसान में रहता ही है लेकिन जब उसकी फसल अच्छी होती है तब भी बाजार में दाम गिरने से वह नुकसान में ही रहता है। आधुनिक खेती में लगातार लागतें बढ़ते जाना और फसलों का सही दाम न मिलना किसानों के संकट का बड़ा कारण है।
हमारी सरकार भले ही भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने की बात करती हो लेकिन सच्चाई यही है कि आज भी सिस्टम में भ्रष्टाचार मौजूद है। किसान कर्ज के जाल में फँसते जाता है। यदि किसी कारण से फसल बिगड़ गई तो किसान उसका नुकसान नहीं सह पाता। लागत के कर्ज की भरपाई नहीं कर पाता और यदि लगातार दो-तीन फसल बिगड़ गई, जैसा कि कई प्रान्तों से खबरें आती रहती हैं, किसान के लिए कर्ज चुकाना मुश्किल हो जाता है। इन सब संकटों से घिरे किसान जान देने को मजबूर हैं।
फिर यहाँ सवाल यह उठता है कि ऐसे किसानो तक लाभ कैसे पहुंचेगा जिन्हे सरकारी नियमो और कानून का ज्ञान तक नही है। उत्तर भारत के सैकड़ों गाँव ऐसे हैं जहाँ आज भी छोटे और मझोले किसानो की तादाद ज़्यादा है। यह किसानो का वह तबका है जो सरकारी कानून और नियमो की दृष्टि से आज भी निरक्षर है।
दरअसल, आयात-निर्यात नीति के तहत् जिन वस्तुओं को मुक्त आयात के लिए खोला गया है उनमें कई खेती-किसानी आधारित उद्योगों से जुड़ी हैं। हरित क्रान्ति से जुड़े संकट से जूझ रहे किसानों का संकट खुली स्पर्धा ने और बढ़ा दिया है। किसान बर्बाद हो रहे हैं। खुली स्पर्धा के पक्ष में यह दलील दी जाती है कि उपभोक्ता को जो माल सस्ता मिले उसे खरीदने में क्या हर्ज है? लेकिन सवाल यह भी है कि इससे हमारी खेती पर दीर्घकालीन क्या असर होगा, इसे नजरअन्दाज कर दिया जाता है। फिर बाजार में सस्ता माल कब तक मिलेगा, यह भी निश्चित नहीं है। दूसरा जिसे सस्ता माल बताकर गरीब देशों में बेचा जा रहा है वही कहीं घटिया माना जाता है। कुल मिलाकर, प्रकृति, सरकार, विश्व व्यापार संगठन, सेठ, साहूकार, व्यापारी सबके सब किसान को तबाह करने में लगे हैं।
पता नहीं कब वास्तिवकता मे जय जवान जय किसान का नारा सही अर्थ मे सार्थक होगा कब हमारे देश मे जवान और किसान की दशा सुधरेगी कब हमारा देश सही मायने मे कृषि प्रधान देश कहलायेगा और कब हमारी सरकार कृषि को सही मायने मे प्रोत्शाहन देगी कब कृषि भूमि का अधिग्रहण नहीं वितरण करेगी ताकि कृषि के साथ साथ पर्यावरण का भी भला हो।
यहाँ सोचने वाली बात यह है कि इन दिनों सरकार के मंत्री जहाँ भी जा रहे हैं वे किसानो को मुआवजे से ज्यादा नए भूमि अधिग्रहण बिल के बारे में बता रहे हैं। ऐसे में सरकार से उम्मीद लगाये बैठे किसानो को नाउम्मीदी का रास्ता नजर आ रहा है । यही कारण है कि किसान मजबूरन ख़ुदकुशी कर रहे हैं।
अन्दाता कहे जाने वाले किसान जो धरती का सीना चीरकर अपने अपने खून-पसीने से फसल उगाता है, लेकिन उसके पुराने और पारंपरिक तरीकों के कारण उसकी मेहनत का उतना फल नहीं मिलता जितना वह सोचता है। इसका मुख्य कारण है किसानों द्वारा अभी भी कृषि के उन्नत तकनीक को सही तरीके से नहीं अपनाना है।
किसान समय-समय पर खेत की मिट्टी, पानी की जांच नहीं कराता है और बिना जांच के ही लगातार रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग करता है, जिससे पैदावार प्रभावित होती है और उर्वरा शक्ति भी खत्म हो जाती है। पौधों में उचित फासला नहीं रखने से भी उपज कम होती है।
ऐसी परिस्थितियों में सरकार को चाहिए कि अपने मंत्रियों को निर्देश दे कि फिलहाल किसानो के समक्ष भूमि अधिग्रहण बिल पर जुमले सुनाने के बजाय किसानो का दुःख समझने और उसे हल करने का प्रयास करें ।
आज भी हमारे देश के किसान ईश्वरीय कृपा पर ही निर्भर हैं। इसके मद्देनजर कृषि शिक्षा का व्यापक प्रचार-प्रसार ग्रामीण क्षेत्रों में होना चाहिए और प्रत्येक शिक्षण संस्थान में न्यूनतम माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा अवश्य होनी चाहिए। उन लोगों का उपयोग कृषि के निचले स्तर के व्यापक प्रचार-प्रसार और उत्पादन वृद्धि में किया जाना चाहिए।
सरकार यह अनिवार्य कर दे कि निजी बीमा कंपनियां अपने कारोबार का कम से कम 40 फीसदी कृषि को समर्पित करेंगी, और यह सुनिश्चित करे कि सरकार की नीति किसान केंद्रित है, तभी आत्महत्या का विकल्प चुनने वाले विवश किसानों को बचाया जा सकता है।
इस सबके मद्देनजर जरूरत इस बात की है कि इस संकट को गम्भीरता से समझकर किसानों की बुनियादी जरूरतों को पूरा किया जाए। समर्थन मूल्य पर उनकी उपज खरीदी जाए। खाद-बीज की समय पर उपलब्धता सुनिश्चित की जाए। साथ ही इसके लिए जरूरी है कि हम प्रकृति को नुकसान पहुँचाने वाली तकनीकें न अपनाएँ। जिनसे मिट्टी का उपजाऊपन खत्म हो, जिनसे जलस्रोतों में रसायन घुलें, जिनसे पर्यावरण का संकट न बढ़े, ऐसे प्रयास करने चाहिए।