शोध कार्य की प्रबल इच्छा से वे रामगढ़ की उत्तर-पश्चिम दिशा में स्थित “वरटोली” में रहकर शोध कार्य में जुट गये। प्रथम-चरण में शोध करते हुए उन्हें पर्वत की तलहटी में एक खोह दिखाई दी, जिसके बायीं तरफ उन्होंने “सुतनुका” शब्द खुदा हुआ पाया। उन्होंने पाया कि 10 फीट ऊपर की तरह एक प्रस्तर “कालिदास” शब्द खुइदा हुआ है। काफी शोध-सर्वेक्षण के पश्चात वाराणसी के पूर्व कुलपति और विद्वान डाॅ. रामकरण शर्मा ने यह अभिमत दिया। यह सत्यावित हो चुका है कि महाकवि कालिदास के “मेघदूत” का यक्ष इसी जोगीमरा गुफा में निर्वासित था वहाँ से उसने अपनी प्रिया को प्रेम संदेश दिया।
म्हाकवि द्वारा यहाँ के अप्रतिम प्राकृतिक सौंदर्य एवे जलकुण्ड का उल्लेख अपनी रचना में किया गया है। सन् 1848 में कर्नल औसले तथा जर्मन विद्वान डॉ. बलाख ने जोगीमारा तथा सीती बोंगरा पर प्रकाश डाला। इन विद्वानों के मुताबिक सरगुजा की सीता बोंगरा ही विश्व की सबसे प्रसिद्ध तथा सबसे प्राचीन रंगशाला है। सीता बोंगरा की बनावट नाट्यशास्त्र के प्रसिद्ध स्वायित भरतमुनी द्वारा मण्डल जैसी है। सीताबोंगरा की गुफा 441 फुट लम्बी तथा 15 फुट चैड़ी है। दीवार सीधी है तथा प्रवेश गोलाकार है। इस धरोहर की ऊंचाई 6 फुट है जो भीतर की ओर 4 फुट की होकर रह जाती है। मुख्य द्वार के सम्मुख शिला निर्मित सोपान हैं, जो द्वार से कुछ पीछे हैं। उन पीठों पर बैठकर दर्शकराण नाटकीय दृश्यों, संगीत, नृत्य आदि सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आनंद लिया करते थे।
ठस रंगशाला की तुलना यूनानी “एकों थियेटर” से की जाती है। नाट्यकला के विद्वानों की राय में महाकवि भवभूति का उत्तर रामचरित्र नाटक इसी नाट्यशाला में राजा थमोवर्मन के काल में अभिनीत किया गया था। सरगुजा जिले का रामगढ़ पर्वत रामायण काल की भी यादा ताजा करता है। अयोध्या से भगवान श्रीराम के दक्षिण दिशा की तरफ जाने का मार्ग सरगुजा होकर ही था। अपने वनवास काल में श्रीराम, माता सीता तथा सुमित्रानंदन लक्ष्मण ने चित्रकूट से पर्वत पर कुछ समय विश्राम किया। इसी कारण इस पर्वत का नाम “रामगढ़” पड़ा। चूंके भगवान श्रीराम और माता सीता ने गुफा पर विश्राम किया, इसलिए इस गुफा में विश्राम किया उसे आज भी लक्ष्मण बोंगरा के नाम से जाना जाता है।
यहीं पास में झरना व सीताकुंड है, जहाँ माता सीता स्नान किया करती थीं। एक प्रस्तर पर भी श्री राम के पदचिन्ह होने की मान्यता है। इन गुफाओं में भारतीय भित्ति चित्रों के अधिकांश भाग मिट गये हैं और सदियों की नमी ने इसे और प्रभावित किया है। कला की दृष्टि से इन चित्रों को श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता, लेकिन इनकी प्राचीनता पर सेदेह भी नहीं किया जा सकता है।
ळमारे देश में शिलाखंडों को काटकर चैतन्य विहार और मंदिर बनाने की प्रथा थी और उनकी भित्तियों पर पलस्तर लगाकर चूने जैसे पदार्थों से चिकना कर चित्र बनाये जाते थे उन्हरं के अनुरूप् ही यहाँ की चित्रकला को ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी की मानते हैं।