आजादी के बाद बने भारतीय सविधान की प्रस्तावना में स्पष्ट तौर पर वर्णित हैं, हम भारत के लोग भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिको को सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय विचार, अभिव्यकित, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्र ता प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिशिचत करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए अपनी संविधान को अंगीकृत, अधिनियमत और आत्मार्पित करते हैं। लेकिन ये हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि
राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए बनाये गए संवैधानिक नियम कुछ स्वार्थी तत्वों के द्वारा खंडित हो गए।
वसुधैव कुटुक्बकम की सांस्कृतिक पृष्ठ भूमि वाले हमारे देश में न जाने कब जातिवाद, प्रातवांद, सांम्प्रदायवाद घर कर गया और जब तब सामूहिक तौर पर हिंसा होने लगी पता ही नहीं चला। यूँ तो हिन्दू समाज मूल रूप से ब्राह्राण समाज हैं। प्रारंभिक वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था पर आधारित समाज में चार मुख्य वर्ग थे, ब्राह्राण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र। लेकिन बाद में एक नया वर्ग शुद्रो का बहिष्कृत हो गया। इन्हीं वर्णो के कारण समाज हजारों जातियों में बंट गया। अछूत जातियां और भारत के मूल निवासियों को अनुसूचित जातियाँ तथा जनजातियों की राजनीतिक संज्ञाएं दे दी गर्इ। इस तरह भारत की सामाजिक व्यवस्था में जाति की भूमिका न केवल महत्वपूर्ण हुर्इ बलिक निर्णायक भी हो गर्इ।
समाज में व्यकित की प्रतिष्ठा और उसका स्थान भी जाति पर निर्भर करने लगा। शिक्षा, व्यवसाय, समारोह, पार्टियां और सत्ता सभी कुछ जातिगत प्रभावों के कारण विकृत होने लगी। समानता और अखंडता जाति विशेष के कारण तार-तार हो गर्इ। गरीब बदत्तर जीवन जीने पर मजबूर थे तो अछूत या शुद्र भी दयनीय जीवन जीने लगे। यद्धपि समय-समय पर कर्इ प्रगतिशील हिन्दू संगठनों ने अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की समस्याओं के प्रति आवाज उठाने की कोशिश की लेकिन उसका असर उतना नहीं हो पाया।
आरक्षण का जहर पूरे प्रशासनिक ढांचे में इस कद्र घुल गया है कि अंतत: विद्रोह बनकर सामने आया। सरकारी सेवाओं में आरक्षण के विरूद्ध आन्दोलन होने लगे। क्योंकि आरक्षित लोग दोयम दर्जे के नागरिक नहीं बनना चाहते थे। लेकिन आरक्षण विरोधी आन्दोलन के प्रणेता इस बात को भूल गए कि संविधान में की गर्इ व्यवस्था के अनुसार नौकरियों में अरक्षण सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए व्यकितयों के लिए की गर्इ है। यह व्यवस्था केवल उन लोगों के लिए है जिनके विरूद्ध समाज ने भेदभाव बरता है।
उदाहरण के तौर पर बताएं तो कोर्इ ब्राह्राण किसी यादव को सलाम नहीं करेगा चाहे समाज में उसका दर्जा कितना भी ऊँचा क्यों न हो, लेकिन जब वही यादव किसी ऊँचे पद आता है, तो वही ब्राह्राण उसे दस बार सलाम करता है संभवत: यही वह ग्रंथि है जिससे ग्रसित होकर आरक्षण का विरोध होता रहा है।
आज के संदर्भ में यदि हम आरक्षण की बात करे तो आज समाज में आरक्षण ने एक अलग ही रूप धारण कर लिया है। पिछड़ी हुर्इ जातियों को समाज में सम्मान के साथ जीने का अधिकार और समाज में एक समान दर्जा दिलाने के लिए एक अधिकार दिया गया था जिसे आरक्षण की संज्ञा दी गर्इ। किन्तु वर्तमान संदर्भ में देखें तो आरक्षण किसी भयंकर समस्या से कम नहीं है। ये एक आग का रूप ले चुका है जो दिन प्रति दिन फैलता ही जा रहा है। न जाने कितने ही लोगों के लिए जातिवाद आरक्षण सबसे बड़ा कांटा बन रहा है। दूसरी ओर देखें तो हमारे संवैधानिक समानता के अधिकार को भी आरक्षण धत्ता बता रहा है।
जिस तरह लोगों में अपनी- अपनी जातियों को लेकर आरक्षण की मांग बढ़ रही है इससे तो यही लगता है कि अब नौकरियो, शिक्षा और किसी भी अन्य क्षेत्रों में प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए योग्यता का कोर्इ महत्व नहीं रह जाएगा फिर तो किसी भी विधार्थियों, युवकों को शिक्षा ग्रहण करने या नौकरियों को प्राप्त करने के लिए उसे अपनी योग्यता की नहीं उसकी जाति की जरूरत होगी कि क्या उसकी जाति को कहीं कोर्इ आरक्षण प्राप्त है या नहीं जिससे वह अपनी मन मरजी शिक्षा व नौकरी को प्राप्त कर सके।
आरक्षण को लेकर अगर विकास की बात करे तो कहीं न कहीं आरक्षण भारत के विकास में बहुत बड़ी रूकावट पैदा कर रहा है। ये तो आप लोगों ने सुना ही होगा कि एकता में बल होता है और अब एकता ही नहीं रहेगी तो बल कहां से आएगा और जब बल ही नहीं होगा तो देश किसके सहारे विकास करेगा। क्योंकि ये आरक्षण जाति को लेकर लोगों को एक दूसरे से अलग कर रहा है। जिसके कारण लोगों में एक दूसरे को लेकर अलगाव की भावनाएं बढ़ती जा रही है।
उदाहरण के तौर पर, एक तरफ एक विधार्थी युवक जिसने किसी कालेज में एडमिशन और नौकरी के लिए सपना देखा हो और उसे पूरा करने के लिए उसने अपनी पूरी मेहनत लगा दी और वहीं दूसरी ओर उसी कॉलेज या नौकरी में सिर्फ किसी जाति के नाम पर दिए गए आरक्षण के बल पर उस व्यकित को बिना किसी मेहनत के एडमिशन या नौकरी मिल जाए तो दोनों के बीच वैमनस्य की भावना तो पनपेगी ही और साथ ही यह समस्या पूरे समाज में एक संक्रमण रोग की तरह फैल जाएगी।
हमारे समाज के लोगों में हमेशा से ही विभिन्नता में एकता की बात कहीं जाती रही है। हमारे समाज में अलग-अलग जाति, भाषा, क्षेत्र, और धर्म से होने के बावजूद भी लोगों में एकता है लेकिन अब ऐसा कहना अपने आप से झूठ बोलने के अलावा और कुछ नहीं माना जा सकता है।