पिछले वर्ष राजधानी दिल्ली से महज़ सवा सौ किलोमीटर दूर मुजफ्फरनगर ज़िले के एक गांव में दो लोगों के बीच के झगड़े का दंगे में बदल जाना और अब सहारनपुर में दो गुटों के बीच हुई हिंसा जिसके कारण शहर में तनावपूर्ण सन्नाटा पसरा हुआ है, यदि हम इन दंगों पर गौर करें तो हमारे देश के लिए यह कोई नई बात नहीं है। आज़ाद हिंदुस्तान का अतीत ऐसे अनेक मज़हबी जुनून का तमाशाई रहा है।
ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नजर आता है। इन सांप्रदायिक दंगों ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है, और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है, और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं।
ऐसे हालात में सायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठण्डा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे लाठियाँ, तलवारें, छुरें हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर फोड़-फोड़ कर मर जाते हैं। बाकी कुछ तो फाँसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं।
देश में दंगे और राजनीति
इतिहास गवाह है कि जब भी देश में चुनाव करीब आते हैं, सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में एकाएक इज़ाफा हो जाता है। अचानक फिज़ा में मोहब्बत और भाईचारे की जगह डर, दहशत, खौफ, नफ़रत और इंतकाम का डेरा डल जाता हैं। लेकिन सच में ये सब जैसे अचानक दिखते हैं वैसे नहीं होते, बल्कि इसके पीछे साजिश की एक लंबी दास्तान छिपी होती है।
धर्म के नाम पर बनते बिगड़ते सामाजिक ताने-बाने की समझ रखने वाले एक्सपर्ट दंगों की अलग-अलग कारण बता रहे हैं, और बताएंगे भी क्यों नहीं? यह बात सच है कि किसी घटना के खूनी खेल में बदलने का सिर्फ एक कारण हो इंसाफ की कसौटी पर यह तर्क सही नहीं हो सकता, लेकिन जब हम अतीत के पन्नों को पलटते हैं तो पाते हैं जब भी इस देश में चुनाव नज़दीक आते हैं हिंदू-मुस्लिम के रिश्तों के बिच हमेशा दीवारें खड़ी कर दी जाती हैं।
भारत में दंगों की शुरुआत आजादी के आंदोलन में छुपी हुई है, जब अंग्रेजों को हिन्दू और मुसलमानों की एकता तोड़कर यहां राज करना था। वे इस कार्य में सफल भी हुए। दंगों ने हिन्दू और मुसलमानों के बीच खाई पैदा कर दी जिसके परिणामस्वरूप भारत का विभाजन हुआ। सभी भारतीय राजनेता दोहरी नीति का पालन करते हैं। मौजूदा राजनेताओं में से बहुत से राजनेता का न तो कोई धर्म है, न जाति और न ही उनकी कोई संतुलित विचारधारा। आजादी से लेकर आज तक ना जाने कितने ही सांप्रदायिक दंगे करवाए, जिसकी आग की लपटों में देश झुलस रहा है।
उदाहरण के तौर पर लाहौर के दंगे ही ले लीजिये किस तरह मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिन्दुओं को मारा है और वश चलते सिखों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। यह मार-काट इसलिए नहीं की गयी थी कि फलाँ आदमी दोषी है, बल्कि इसलिए कि फलाँ आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का सिख या हिन्दू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था।
आज भी देश में आये दिन होने वाले सांप्रदायिक दंगों का यही रूप देखने को मिलता है, जहाँ धर्म के नाम पर न जाने कितने ही निर्दोषों को मौत के घाट उतार दिया जाता है। जब देश की स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है।
इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली है। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्रा दिवस पर सवतन्त्र भारत कि दुहाई देते हैं और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य’ के क़सीदे पढ़ते नहीं थकते, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं, या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं।
यहाँ सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी कम नहीं है, लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आन्दोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं। जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं, और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।
दंगों में अफवाह को जन्म देती मीडिया
दरअसल दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, मीडिया वाले हैं। यहाँ तक देखा गया है कि इन साम्प्रदायिक दंगों के पीछे नेताओं के साथ-साथ मीडिया का हाथ भी होता है। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो।
जहाँ पत्रकारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन ये सब भूल कार आज इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से खून के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि,आखिर कार आज़ाद कहे जाने वाला हमारा भारत किस दिशा में जा रहा है?
भारत की आर्थिक दशा और दंगे
जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है। कहाँ थे वे दिन कि स्वतन्त्राता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहाँ आज यह दिन कि स्वराज्य एक सपना मात्र बन गया है। बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है। जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था, कि आज गयी, कल गयी वही नौकरशाही आज अपनी जड़ें इतनी मजबूत कर चुकी हैं कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है।
देश के ऐसे हालात को देखते हुए यही लगता है कि, बस सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है, दरअसल भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को रूपये का लालच देकर उससे कुछ भी करवा सकता है। यही देश का दुर्भाग्य है कि भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है।
भारत में जो वर्तमान स्थिति बनी हुई है उसे सुधारने के लिए कोई नहीं आएगा इसके लिए देश के लोगों को ही आगे बढ़ना होगा। क्योकि सत्ता संभालने वाली हमारी सरकार कभी खुद लोगों कि स्थिति नहीं सुधार सकती है, इसलिए जब तक सरकार बदल न जाये तब तक लोग चैन की सांस न ले। भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए। उन्हें यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, और दंगे हों ही नहीं।
दिशाहीन लोगों में वर्ग-चेतना की जरूरत
देश में बने इस माहौल में लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की बहुत जरूरत है। देश के लोगों को यह समझने कि जरुरत है कि कौन आपका दुश्मन है और कौन दोस्त। इसलिए जो आपका बुरा चाहते हैं उनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ भी ऐसा न करे जो आपको गलत दिशा में लेजाकर छोड़ दे ।
संसार के सभी लोग, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, सबका अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों में लेने का प्रयत्न करो। इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तब तुम्हें सही माइनो में स्वतन्त्राता मिलेगी।