14 अप्रैल 1919 में जन्मी भारतिय सिनेमा को मेरे पिया गए ’रंगूर’ और ’कजरा मोहब्बत वाला’ सरीखे कई यादगार गीत देने वाली खनकती आवाज ने 23 अप्रैल 2013 को आखरी सांसे ली और हमेशा के लिए खामोश हो गई है। लंबे समय से गमनामी में जी रहीं गायिका शमशाद बेगम का मंगलवार रात निधन हो गया। 94 वर्ष की शमशाद लंबे समय से बीमार चल रही थी। उन्होंने यहां पवई स्थित अपनी बेटी के घर में अंतिम सांस ली। 1955 में अपने पति गनपत लाल बट्टो की मौत के बाद वह बेटी उषा और दामाद योग रत्रा के साथ ही रह रही थीं। बुधवार को बेहद करीबी दोस्तों और रिश्तेदारों की मौजूदगी में उनका अंतिम सस्कार कर दिया गया।
दिग्गज संगीत निर्देशक गुलाम हैदर को शमशाद की आवाज में झरने की गति और सहजता दिखती थी तो ओपी नैयर को उनकी आवाज मंदिर की घंटी से निकली गूंज की तरह की तरह लगती थी। कुंदन लाल सहगल से प्रभावित शमशाद की आवाज पतली नहीं थी। वह खुले गले से गाती थी। किशोर उम्र के चुलबुले कंपन से गाए उनके गीत कानों में अठखेलियां करते थे। ’कहीं पे निगाहे कहीं पे निशाना’ ’कजरा माहब्बत वाला’ ’रेशमी सलवार कुर्ता जाली का’ ’काहे कोयल शोर मचाए रे’ ’तेरी महफिल में किस्मत आजमा कर हम भी देखेंगे’ जैसे गीत शमशाद बेगम की खासियत रही है।
आजादी के पहले की वह अकेली आवाज थी, जो लता मंगेशकर की गायकी का साम्राज्य स्थापित होने पर भी स्वायत्त रूप से श्रोताओं का चित्त बहलाती रही। लंबे समय तक शमशाद की आवाज ही उनकी पहचान बनी रही। फिल्म इंडस्ट्री के बाहर उन्हें कोई जानता-पहचानता नहीं था।दरअसल, गायकी में कदम रखने के साथ उन्होंने अपने पिता से वादा किया था कि वह कैमरे के सामने कभी नहीं आएंगी। तब गायिकाओं को नायिकाओं के रूप में फिल्में मिलती थीं। उनके पिता नहीं चाहते थे कि वह कभी अभिनय करें। पिता की बात रखते हुए वह लंबे समय तक न तो फिल्मी कैमरे के सामने आई और न स्टिल कैमरे के।
लगभग बीती सदी के आठवें दशक के अंत में संभवतः पिता के निधन के बाद उन्होंने तस्वीरें खींचने की मंजुरी दे दी। तब उनके प्रशंसकों ने उन्हें पहचाना। आज के संगीत सुनने वाले लोगों को अनुमान नहीं होगा, लेकिन यह सच है कि शमशाद बेगम ने 500 से अधिक फिल्मों में गाने गाए। उनकी गयाकी ने हमेशा श्रोताओं को सुकून दिया है।
गुलाम हैदर ने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को तीन आवाजों का तोहफा दिया-शमशाद बेगम, नूरजहां और लता मंगेशकर। गुलाम हैदर इन गायिकाओं की खूबियों को जानते थे। उन्होंने पंजाबी लोक धुनों पर शमशाद और नूरजहां की मदस्त आवाज को नटखट होने के साथ कशिश लिए हुई थी। गुलाम हैदर, नौशाद और सर रामचंद्र उनके प्रिय संगीतकार रहे। उनकी गायकी से ही नौशाद को आरंभिक कामयाबी मिली। उनके इस एहसान को नौशद कभी नहीं भूले। यही वजह है कि गायकी के मौके निकालते रहे। शमशाद भी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की लुप्त हो चुकी कड़ी लाहौर से मुंबई आई थीं। आजादी के पहले 1943 में ही उनकी आवाज का जादू पंजाब से निकल कर मुबई आ पहुंचा था। तभी तो मेहबूब ने उन्हें मिन्नतों से मुंबई बुलाया था और ’तकदीर’ (1943) के आठ गाने गवाए थे।