लेखक, फिल्म एवं टीवी पटकथा-संवाद लेखक, हिंदी जगत के प्रमुख व्यंगकार शरद जोशी जी का जन्म 21 मई 1931 को मध्यप्रदेश के उज्जैन शहर में हुआ। देश की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक उठा-पटक और ज़मीनी राजनीति का जितना सटीक चित्रण जोशी जी की पैनी कलम ने पेश किया उसका कोई जोड़ नहीं। 1990 में पद्मश्री से सम्मानित शरद जोशी कवियों के मंच पर गद्य पढ़ने वाले अनूठे व्यंगकार थे। पिछले दिनों मई की झुलसती गर्मी और चुनावी सरगर्मी के बीच जोशी जी की जयंती मनाई गई। बात चुनाव और राजनीति की हो और जोशी जी के व्यंगों का ज़िक्र ना हो ऐसा तो हो नहीं सकता है, प्रस्तुत है उनके श्रेष्ठ व्यंग लेखों के कुछ अंश-
– राजनीति के चरित्र में एक खूबी है कि उसका कोई चरित्र नहीं होता। न चरित्र होना ही उसका चरित्र है। चरित्रवान लोग जब राजनीति करते हैं, वे निरन्तर अपने आप को सच्चरित्र और दुश्चरित्र करते हुए एक क़िस्म से चरित्र-रहित हो जाते हैं। व्यक्तित्व जहाँ बेपेंदी के लोटे होनें लगते हैं, वहाँ से राजनीति की शुरुआत होती है। राजनीति एक केंद्रहीन गोल चक्कर या चक्करों का सिलसिला है, जिसका व्यास, परिधि और केंद्रबिंदु अनिश्चित होते हैं। दसों दिशाओं में उसकी गति है जो अपने-आप में दुर्गति है, मगर किया क्या जा सकता है, क्योंकि यही राजनीति है। जहाँ अधोगति अक्सर प्रगति और प्रगति दुर्गति लगती हो, उस बिन्दु को राजनीति कहते हैं।
(वोट ले दरिया में डाल’ संग्रह से)
– झोपड़पट्टी के बाहर खेलते रहते हैं गंदे काले बच्चे। इम्पाला में रविशंकर का लेटेस्ट एल. पी. खरीद लौटती हुई औरत सोचती है, ये लोग अपने बच्चों को स्कूल क्यों नहीं भेजते? रेल के बाहर से खिड़कियों में हाथ फैला रोटी, बची हुई सब्ज़ी या पाँच-दस पैसे मांगते हैं, गन्दे घिनौनें भिखारी। एरकंडीशन कार में अपने टोस्ट पर मक्खन लगाता रेलवे केटरिंग को नापसंद करता वह शरीफ आदमी आमलेट खाते सहयात्री से पूछता है राष्ट्रिय प्रश्न, ये लोग भीख क्यूँ माँगते हैं। कोई मेहनत-मजदूरी क्यों नहीं करते? हर विषय में खास राय रखते हैं सभ्य जन। पॉलिटिक्स में दो टूक बात करते हैं सलाद पर नमक छिड़कते हुए। रिज़र्व बैंक की पॉलिसी का विवेचन करते हुए क्लब के सम्भ्रान्त सदस्य कनखियों से नापते रहते हैं दूसरे की पत्नी की कमर। खूब मजा है इस देश में। कितना रंगीन और ख़ुशबूदार है प्रगति का चित्र। नासिक और देवास के कारखाने छापते रहते हैं नोट। पेरिस, लंदन, न्यूयार्क से रिसती रहती है विदेशी सहायता। खेलता है डनलपिलो पर लेटा बालक हांगकांग का खिलौना, रोज़ेज़ लगवाती है नये माली से मैडम खुद खड़ी हो गार्डन में, अन्दर साहब युवा आया को इशारे से स्टडी में बुलाता है। आगे बढ़ रहा है सुसंस्कृत देश। भ्रष्टाचार के नल, नाली, चहबच्चे, तालाब, नदी, सींच रहे हैं राष्ट्र का नया व्यक्तित्व। देश की आत्मा चुपके से खा रही है स्मगल कि ऑस्ट्रेलियन पनीर और घिघिया कर देखती है काले धन से उठे समन्दर किनारे के आकाश छूते भवन! प्रगति कर रहा है देश।
(हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे)
जोशी जी के व्यंग लेख सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक हालात पर वर्तमान समय में भी उतने ही सार्थक और प्रासंगिक लगते हैं जितने उनके समय में थे। आज जब लिखने वाले जिसमे व्यंगकार भी शामिल हैं ये सोच कर लिखते हैं कि उनका लिखा कहीं ज़िल्ले-इलाही और लीडरान-ए-कराम को नागवार न गुज़रे उनके लिए शरद जोशी प्रेरणा श्रोत साबित हो सकते हैं बशर्ते भूले बिसरे उन्हें पढ़ लें।