सोनभद्र, उत्तर प्रदेश राज्य का सोनभद्र एक ऐसा जिला है जहां पर प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुर मात्रा है फिर भी यह जिला आज भी अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है। यहां के मूल निवासी, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिये आज भी दूसरें जिलों और राज्यों पर निर्भर है। इस जिले में एक से बढ़कर एक एनजीओ हैं, प्रख्यात साहित्यकार व लेखक हैं, आग की तरह दहकते हुये अपने आप को बतलाने वाले कलमकार व पत्रकार भी हैं। यह जिला, बेरोजगारी के लिये, अशिक्षा के लिये, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के लिये व आर्थिक पिछड़ेपन के लिये जाना जाता है। यहां तक ही नहीं देश के दस प्रदूषित शहरों में से एक है इसके लिये भी जाता है।
डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय आसाम के पूर्व कुलपति प्रो. सत्यमित्र दूबे, सोनभद्र को लेकर उनका कहना है कि, -सोनभद्र प्राकृतिक सम्पदा, वनो एवं पहाडि़यों, खनिज पदार्थों व देश में बिजली उत्पादन के एक प्रमुख केन्द्र, ऐतिहासिक अवशेषों और सांस्कृतिक विरासत से परिपूर्ण होते हुये भी पिछड़ापन, विपन्नता और आवश्यक सुविधाओं के अभाव से ग्रस्त क्षेत्र है।’ उन्होंने यह भी कहा कि, ‘इस जिले में गैर कानूनी ढंग से वनों की कटाई, बालू व पत्थर के खनन की बेतहासा लूट के कारण जहां पानी के प्रकृति स्रोत नदियां, नाले, झरने इत्यादि सूख रहे हैं वहीं फैक्ट्रियों से निकले विषैले रासायन नदियों को प्रदूषित कर रहे हैं।
सोनभद्र में जब इंसानियत को ताक पर रख कर विकास का दायरा बढ़ा तो उसी वक्त सोनभद्र की सामाजिक अबो-हवा भी प्रदूषित हो गयी। क्योंकि यह शत् प्रतिशत सत्य है जहां पूंजी का जन्म होता है वहां समाजवाद मर जाता है। जहां पर सामाजिक नैतिक पतन हो गया हो वहां पर पूंजीवादी नैतिकता उन्नति होती है। सोनभद्र में सामाजिक नैतिक पतन की अनेकों घटनायें देखने को मिलेगी और ऐसी क्रूर घटनायें जिससे आपकी रूह कांप जायेगी। सोनभद्र की कुछ घटनायें ऐसी हैं जो सोचने पर मजबूर कर देगी। क्या इंसान की मानवता इतनी मर गयी ?
सोनभद्र नेशनल हाइवे सड़क पर डाला और रेणुकूट के बीच में एक पगली, एक अंजानी मासूम चेहरे पर अनगिनत प्रश्नों को लेकर सड़क के किनारे पड़ी हुयी यह सोचती हुयी आखिर मैं यहां पर क्यों हूं ? मेरे आस-पास जो लोग खड़े हैं मुझसे क्या चाहते हैं ? और मैं इन लोगों को क्या दे सकती हूं ? उसके मन को कुरेदते हुये अनेकों सवालों से वे अपने आप से लड़ रही थी परन्तु वो यह समझ नहीं पा रही थी कि आखिर ये लोग कौन है? बस वो अपनी मासूम निगाहों से मासूमियत के साथ आस-पास खड़े लोगों को एक टकटकी लगायी हुयी थी।
ये औरत उन लोगों को ऐसे निहार रही थी मानों वो अपनी इस हालात पर उनसे अपने लिये दया की भीख मांग रही हो, जो उसकी सूध लेने के लिये खड़े हुये थे। शायद उसके अन्र्तमन में यह भी प्रश्न उठ रहा होगा कि, ‘मैं यहां कई घण्टे से पड़ी हुयी थी लोग आ-जा रहे थे किसी ने रूक कर मुझसे कोई प्रश्न नहीं किया ना, किसी ने मेरा नाम पूछा, ना ही मेरे बारे में जानने की कोशिश की आखिर कौन हैं ये ? मेरे जैसे पागल जिनको सारे अपने काम छोड़कर मेरे लिये समय मिला जिस पागल बेसूध औरत को असहाय अवस्था में सड़क के किनारे देखकर जो व्यक्ति रूके हुये थे वे कोई और नहीं एक एनजीओ के सचिव चन्द्रप्रकाश तिवारी और विश्व के महान लेखक उदय प्रकाश जी थे। जिनका जर्मनी में एक चैराहे पर मूर्ति बनी हुयी है और उस चैराहे का नाम उन्हीं के नाम से जाना जाता है। इतने महान व्यक्ति जब सड़कों से गुजरे और ऐसी स्त्री को देखकर रूक जाना जो अर्द्धनग्न अवस्था में पागलों की तरह पड़ी हुई है और उसकी सूध लेना इनकी महानता को और विनम्र बना देता है। चन्द्रप्रकाश जी और उदय जी के हस्तक्षेप के बाद स्थानीय पुलिस हरकत में आयी और उस औरत को चैकी पर ले गयी। उसके बाद उसके साथ क्या हुआ होगा ? चन्द्रप्रकाश और उदय जी भी नहीं बता सकते।’
पुलिस ………… पुलिस शब्द नाम सुनते ही एक गैर जिम्मेदार व्यक्ति का अनुभव होता है इतना गैर जिम्मेदार व्यक्ति की पूरे समाज में उससे ज्यादा कोई और हो भी नहीं सकता (वर्तमान समय में देश के नेता, कुछ एक कोे छोड़ दें तो अर्थात् आज के कर्णधार भी अपनी जिम्मेदारी से बखूबी पीछे हटते हैं)……. पुलिस उस मानसिक विक्षिप्त औरत के साथ क्या की होगी ? या उसको आश्रय दिया गया होगा ? या जांच पड़ताल कर उसको उसके परिवार के हवाले कर दिया गया होगा ? या फिर ऐसा भी हो सकता है कि उसके साथ अनहोनी घटना घटी हो। पुलिस प्रशासन पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
उन दो महान व्यक्तियों ने अपनी जिम्मेदारी को बखूबी याद करते हुये उसे पुलिस प्रशासन को सौंप दिया था। उन्होंने मुझे बताया कि उसके हाव-भाव, रहन-सहन और पहनावे को देखकर जो उसके तन पर थोड़े बहुत पड़े थे, ऐसा लग रहा था कि कोई दलित आदिवासी महिला थी जिसे अपनी हवस का शिकार बनाकर वाराणसी-शक्तिनगर मार्ग पर सड़क के किनारे तेलगुड़वा मार्ग के आस-पास फेंक दिया गया था। चन्द्र प्रकाश और उदय जी ने यह भी बताया कि जब उन्होंने उस महिला के बारे में पुलिस प्रशासन को जानकारी दी तो उक्त स्थान पर स्थानीय सब इंसपेक्टर से उन लोगों की उस महिला को लेकर कहा सुनी हो गयी। स्थानीय सब इंसपेक्टर अपनी जिम्मेदारी से पीछे हट रहा था ऐसा इसलिये हुआ।
बेला मलिक ने अपने निबन्ध, ‘अनटचबेलिटी एण्ड दलित विमेन्स आपरेशन’ में 20 दिसम्बर, 1998 को दिल्ली में – ‘आल इण्डिया डेमोक्रेडिक विमेन्स एसोसिएशन (ए.आई.डी.डब्ल्यू.ए.) द्वारा अस्पृश्यता और दलित महिला के उत्पीड़पन पर आयोजित सम्मेलन को रेंखाकित करते हुए लिखा है कि -‘वैसे तो पूरा दलित समुदाय उत्पीडि़त किया जाता है लेकिन उत्पीड़पन का अधिकांश हिस्सा दलित स्त्रियों के हिस्से में पड़ता है। घर के भीतर का श्रमविभाजन जोड़ दें और पेय जल तक पहुंच, जलावन तथा शौचादि समस्याओं को ध्यान में रखें तो दलित स्त्रियों की बद्तर स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। अवमानना व हिंसा की घटनायें दलित स्त्रियों के साथ सर्वाधिक घटती हैं उनके उत्पीड़न में ऊँची जाति की स्त्रियों की भागीदारी अक्सर दिखाई पड़ती है।’
इस तरह की क्रूर घटनायें शहरों और गांव में सर्वाधिक व्याप्त है। यदि शहरों की बात करें तो कानून व प्रशासन का कुछ हद तक खौफ है, यदि कानून व प्रशासन सख्त है तो लेकिन गांव में ना कानून का डर है और ना ही प्रशासन का खौफ जिस तरह आजकल गांव में पंचायतें रूढ़वादी फैसले सुनाती आ रहीं है उससे तो यही जान पड़ता है कि ये पंचायते अपने आगे देश के कानून को भी सर्वोपरी नहीं मानती। ताजूब यह है कि पंचायतों के इन फैसलों को गांव के पढ़े लिखे इंसान विरोध करने के बजाय बखूबी निभाते हैं।
गांव के विकास के लिये गांधी जी ने ग्राम स्वराज का सपना देखा था कि गांव के विकास में ग्राम पंचायतें अहम भूमिका निभा सकती हैं। उन्होंने कहा भी था कि गांव के विकास से ही राष्ट्र का निर्माण होगा इसलिये पंचायतों को महत्वपूर्ण शक्तियां देने की वकालत किया करते थे शायद उन्हें इस बात का तनिक भी इल्म नहीं था कि यदि पंचायतों को शक्तियां दे दी गयी तो वे सामाजिक रूढि़वादिता को जारी रखने के लिये तुगलकी फरमान जैसे आदेश दे सकते हैं। जो आज की भी पंचायतों में कायम है। चाहे वह औरतों के उपर कोई नया फरमान रहा हो, चाहे आॅनर कीलिंग का मामला रहा हो या रेप-बलात्कार का मामला रहा हो हर हाल में भुगतना औरतों को ही पड़ता है। जो इस समय की खाप पंचायतें कर रही हैं और वहीं दूसरी तरफ दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक तरीके से चुनने वाली हमारी सरकार छक्कों की तरह हाथ व मुंह हिलाने के सिवाय कुछ भी नहीं कर सकती।
तुगलकी फरमान आदेश जारी करने का नजारा उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में एक ग्राम पंचायत द्वारा देखने को मिला जहां पर पंचायतों के मुखियाओं ने एक मानसिक विक्षिप्त लड़की की कोख का सौदा महज 50 हजार रूपये में न्याय के रूप में सुना दिया और सोनभद्र प्रशासन को इसकी भनक तक भी नहीं लगी। काफी हो हल्ला के बाद और स्थानीय मीडिया की जागरूकता की वजह से यह संगीन मामला प्रशासन की नाक के नीचे आया।
उ.प्र. के सोनभद्र जिले के एक गांव में पंचायतों के ठेेकेदारों ने मानसिक रूप से विक्षिप्त लड़की की कोख का, जिसकी कोख में 6 महीने का बच्चा पल रहा था जो गांव के ही एक बेहशी दरिंदे के द्वारा यौन शोषण का शिकार हुई थी सिर्फ 50 हजार रूपये जुर्माने के रूप में उस बेहशी दंरिदें को सजा सुनाई गई या यूं कहें कि 50 हजार रूपये में न्याय के रूप में उसे अपने कोख व जिस्म का सौदा करना पड़ा। जिन पंचायतों ने इस तरह का न्याय किया वह हैवान इन्हीं पंचायतों के हुक्मरानों के यहां ट्रैक्टर ड्राईवर है। जबकि वहीं दूसरी तरफ सोनभद्र जिले के आलाप्रशासनों को इस तरह की घटना की भनक तक भी नहीं लगी। ताजूब की बात तब हुई जब गांव से जिला कलेक्ट्रेड की दूरी महज 2 से 2.50 कि.मी. है।
शक का दायरा मानसिक विक्षिप्त लड़की के परिवार पर भी बढ़ता है क्योंकि उस लड़की के गर्भ में 6 महीने से मासूम बच्चा पल रहा था तब उस समय उसके परिवार वाले क्या कर रहे थे ? इस तरह का प्रश्न खड़ा होना लाजमी है। कहीं उसके परिवार वाले इस पल का फायदा उठाने की ताक में तो नहीं थे उस लड़की की मां क्या कर रही थी ? कहा जाता है कि अपनी बेटियों की हरकतों पर मां को सबसे पहले जानकारी होती है तो उसके साथ इस तरह की वारदात हो गयी उस मां को 6 महीने बाद पता चला जो मां अपनी विक्षिप्त बेटी के सारे कपड़े साफ करती थी उसे ये सब जानने में इतना वक्त क्यों लगा ? इससे यह साफ सिद्ध होता है कि एक बाप जो अपनी बेटी का कन्यादान करता है उसकी कीमत भी वसूलनी चाही और मां ने अपनी ममता का सौदा करना चाहा। वहीं भाई ने भी अपनी कलाई पर बंधने वाले धागे की लाज गवां दी। वो पगली पंचायतों के बीच में निलाम हो रही थी। पंचायतों के ठेकेदार उसके ‘मान’ का चीर-हरण कर रहे थे और मासूम लड़की इन सबों के बीच में फंसी हुई थी जैसे कौरवों के बीच में द्रोपदी। द्रोपदी की लाज तो सुदर्शनधारी ने बचा ली लेकिन इस लड़की की लाज भरी सभा में तार-तार होकर टूट रही थी क्योंकि ये ‘द्रोपदी नहीं थी’।
उस पागल बे-हया को अपनी इज्जत टूटने की कोई आवाज नहीं सुनाई दे रही थी। वे तो यह भी सोच नहीं पा रही थी कि – ‘मैं इस सभा में क्या कर रही हूूं मेरे साथ क्या हुआ है। मेरे मां,बाप, भाई यहां पर क्या कर रहे हैं ? इस सभा में पैसो के मोल क्यों लग रहे हैं ? मेरे आस-पास मजमा -मेले क्यों लगे हैं? उसको इन सबका कोई असर उसके चेहरे पर नहीं दिखता था। वो सिर्फ वहां खड़े एक दूसरे को बेबाक देख रही थी कुछ पल मुस्कुराती अगले कुछ पल शांत रहती। उसे क्या पता इन नंगे बरातियों में कीमत उसकी लाज की लग रही है। …………. यह प्रश्न मेरे दिमाग में सदैव बने रहेंगे कि, – ‘मां ने अपनी ममता का सौदा किया या उस पगली ने अपने कोख का’।
सोनभद्र में ऐसे अनगिनत कई घटनायें होती रहती है परन्तु हमारा प्रशासन कुम्भकरणीय नींद में सोया हुआ है। जिले के प्रशासन को ना किसी के मन की चिंता है ना किसी के तन की चिंता है यदि चिंता है तो सिर्फ धन की, पूंजी की…..कितने कम समय में मैं सोनभद्र की सारी पूंजी समेट कर अपने पास रख लूं। तभी तो वाराणसी-शक्तिनगर मार्ग पर पुलिस प्रशासन के अधिकारी पैसा उगहते नजर आते दिख जायेंगे। सोनभद्र में अवैध खनन से लेकर जिस्म खरोसी तक का धंधा देखने को मिलता है और जिला प्रशासन गांधारी की तरह आंख पर पट्टी बांधकर मुकदर्शक बनी हुई है।
यदि सोनभद्र से मिलने वाली राजस्व की बात करें तो सबसे ज्यादा राजस्व सोनभद्र का खनन क्षेत्र अपने प्रदेश को देता है। चाहे वह नदियों से हो रहे बालू खनन हो या पहाड़ों को तोड़कर गिट्टी खनन से हो। जबकि उसी खनन में काम करने वाले मजदूरों की माली हालत बद से बद्तर है। जो मजदूर चिलचिलाती धूप में पसीना बहाकर वहां के खनन मालिकों को व प्रदेश सरकार को अकूत राजस्व दे रहे हैं फिर भी उन्हें दो वक्त की रोटी के लिये अपने जिस्म का सौदा उन्हीं मालिकों के यहां करना पड़ता है जिनके खादान क्षेत्र में कार्य करते हैं।
एक बुजूर्ग इंसान ने बहू के जिस्म का सौदा इसलिये कर डाला ताकि वह अपने दो पोतो और दो पोतियों को दो वक्त की रोटी दे सके। उसके बेटे के खनन हादसे में मौत का शिकार होने की वजह से बुजूर्ग को इतना बड़ा कदम उठाना पड़ा वह बुजूर्ग किसी प्रकार से काम करने में सक्षम नहीं था। सोनभद्र के जिस्म सौदागरों का हाल ऐसा है कि आये दिन किसी ना किसी की मजबूरी का फायदा उठाकर जिले की बेबश लाचार औरतों का जिस्म भेडि़यों की तरह नोचते हैं और उन्हें थोड़े पैसे देकर अपनी हैवानियत की प्यास बुझाते हैं। उस बूढ़े इंसान के पास अपनी लाचारी और बेबशी पर आंसू बहाने के शिवाय कुछ भी नहीं बचा है।
देश में ना जाने कितनी पगली होंगी जो हैवानो के बिस्तर पर गिरती होंगी महाभारत में तो सिर्फ दुर्योधन और दुशासन थे परन्तु कलियुग के महाभारत में जहां देखिये वहां दुर्योधन व दुशासन ही हैं।
इससे बड़ी विडम्बना सोनभद्र के लिये क्या हो सकती है। ये सोनभद्र की वो पगली है जिनके इलाज के लिये प्रदेश सरकार के पास किसी भी प्रकार का हास्पिटल नहीं है। इनके इलाज के लिये प्रदेश सरकार कोई भी नया कदम उठायेगी तो उसकी सारी काली कमाई ठप हो जायेगी। जो वह ऐसा करेगी ही नहीं।
बेला मलिक के अनुसार , ‘दलित महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों की प्रकृति को देखते हुये बेला सुझाव देती हैं कि उनकी बेहतर जिन्दगी के लिये किये जाने वाले संघर्ष को व्यापक सामाजिक मुक्ति को एजेण्डा से जोड़कर देखने की जरूरत है। संगठनों का निर्माण प्रयाप्त नहीं है। मजबूत और सक्रिय प्रतिरोध अपेक्षित है। सत्त संघर्ष के बिना परिवर्तन की सम्भावना नहीं बनती।’
वहीं दूसरी तरफ मां के रूपों में हम शक्तिपीठों की पूजा करते हैं। लेकिन वास्तविक रूप से क्या हम मां की वन्दना करते हैं। जब भी हमने उनको खड़ा देखा तो सबसे पीछे पाया है वो भी घूंघट में। क्या कभी घूंघट में झांकने की कोशिश की है कि उसको कैसा अनुभव होता है ? क्या उस घूंघट में होने वाली पीड़ा, दर्द, कराह को देखा है, समझा है नहीं इसलिए आज हर मनुष्यों में नैतिक पतन का कारण बना हुआ है कि हमने उस दर्द को अनदेखा किया जिस दर्द ने दुनिया रची। आज हम अपनी संस्कृति को खोते जा रहे हैं। इसलिये हम दुसरे देशों से पीछे हैं, चीन और जापान को आप देखो उन्होंने अपनी संस्कृति अपनी सभ्यता और अपनी भाषा को जीवित रखा है। पूरे चीन में चाइनिज और पूरे जापान में जैपनिज भाषा बोली जाती है। उन्होंने अपने स्वाभिमान के साथ कभी कोई समझौता नहीं किया।
जब तक भारत अपनी संस्कृति, सभ्यता जिसके लिये पूरे विश्व में इसकी एक अलग छाप है खोता रहेगा भारत के प्रत्येक कोने में सोनभद्र की पगली जैसी घटना देखने को मिलती रहेगी। जबकि भारत पूरे विश्व की संस्कृति की जननी है। भारत की संस्कृति से अमेरिका सीखता है, रसिया हरे-रामा-हरे-कृष्णा कहता है। वहां की नारियां पैन्ट, टी-शर्ट की जगह साड़ी को महत्व देने लगी हैं। इसका जीता-जागता उदाहरण इलाहाबाद में होने वाले प्रत्येक वर्ष कुम्भ मेेले के दौरान देखने को मिलता है। भारत दौरे पर आये अमेरिका के विदेश मंत्री ने हाथ जोड़कर अभिवादन स्वीकार किया और हिन्दी में सम्बोधन किया। जब दूसरे देशों के मंत्री हमारी संस्कृति और सभ्यता से सीखते हैं तो हम क्यों नहीं ?