इसीलिए वेद में कहा गया है “मनुर्भव, यानी मनुष्य बनों।” इसका मतलब है कि
महज इंसान के वेश में हम इंसान सही मायने में तब तक नहीं होते, जब तक हमारे अंदर इंसानियत के सद्रुण नहीं पैदा होते और जब तक हम अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं करते विज्ञान के मत में इंसान जब से धरती पर पैदा हुआ लगातार प्रगति कर रहा है। यह तरक्की इंसान को जानवरों से अलग करती है। धर्म भी कहता है कि इंसान का जन्म लेना, तभी सार्थक है, जब उसमें मनुष्यता और देवत्व के रास्ते पर बढ़ने की इच्छा शक्ति और साधना हो।
बरहाल, जोखिम उठाना और जोखिम लेने से घबराना, दोनों ही प्रवृत्तियां हर इंसान में पशुता, मनुष्यता और देवत्व के गुण होते हैं। शिक्षा, संस्कार, विचार और संकल्प-शक्ति जिस व्यक्ति में जिस रूप में होती है वह उसी तरह बन जाता है। दरअसल, हमारे मस्तिष्क की बनावट ऐसी है, जिसमें विचार की अनंत संभावनायें होती है। लेकिन एक आम इंसान अपनी शक्तियों का एक या दो प्रतिशत ही इस्तेमाल करता है। शक्तियों के समुचित इस्तेमाल नहीं होने कारण ही किसी व्यक्ति के बेहतर इंसान बनने की संभावना कम होती है। यही वजह है कि ज्यादातर लोग पूरी जिंदगी पशुओं की तरह ही सिर्फ सोने-खाने में बिता देते हैं।
गांधी जी ने कहा था कि ’’साध्य और साधक’’ की पवित्रता से ही व्यक्ति की सफलता का ठीक-ठीक मूल्यांकन हो सकता है। मौजूदा दौर में ज्यादातर लोगों के ’’साध्य” और “साधन” दोनों अपवित्र है। इसलिए जो कुछ हासिल हो रहा है, उसे मानवीय संघर्ष का परिणाम नहीं कह सकते हैं। यानी किस काम को किया जाए और किस काम को छोड़ा जाए? इसका जवाब यह है कि महापुरूषों के आचरण और वेद-पुराणों में दिए गए दृष्टांत इस काम में हमारी मदद करते हैं। उनके मार्गदर्शन से हम सही या गलत का फैसला कर सकते हैं।
अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए जीवन संघर्ष से घबराए बिना जब हम एक सकारात्मक नतीजे दे सकने वाले जोखिक का चुनाव करते हैं, तो वास्तविक अर्थ में हम हर प्राकर से दैविक, भौतिक संकट को दूर का सकते हैं। यही सच्ची मनुष्यता है और मनुष्य होने के नाते हमें इसी नीति का पालन करना चाहिए। यह ही हमारे जीवन को नई दिशा देने में हमारी सहायता करता है।