धर्म में अंधविश्वास देश को कर रहा है खोखला

dharmभारत जैसे देश में जहाँ धर्मान्धता अपनी चरम सीमा पर व्याप्त है। वहाँ पर चाहे भी तो दलगत राजनीति से ऊपर नहीं उठाया जा सकता है। वस्तुतः जाति और धर्म यदि किसी देश की रीढ़ है, तो उनसे उपजे खतरे ही उस देश को खोखला बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। धर्मान्धता फैलाने में इतिहास की उत्पत्ति काल से कभी धर्मगुरू तथा कभी उनके द्वारा रचित साहित्य ने समाज को बाँटा है। हमारे देश में महाभारत, पुराण, रामायण, कुरान, बाइबल जैसे धार्मिक ग्रंथों ने लोगों का अपने-आपने

 खेमों में जहाँ एक ओर बाँधने का काम किया वहीं दूसरी ओर लोगों को बाँटने में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

धार्मिक पाखंडो का बढ़ावा देने में धार्मिक साहित्य और उससे जुड़े धर्मगुरूओं और बाबाओं का बहुत बड़ा हाथ होता है। जाति व्यवस्था को फैलाने में भी इन धर्मग्रंथों का बहुत बड़ा हाथ रहा है। प्रसिद्ध कथाकार मुंशी प्रेम चंद के अनुसार “साहित्य सामाजिक परिवर्तन में भूमिका निभाता है।” भारत ही नहीं विश्वभर पर इसे देखा गया है कि जिस तरह का साहित्य होता है वैसे ही समाज निर्माण होता है।

आज के समय में भारत जैसे विशाल देश में प्रगतिशील साहित्य का निर्माण बहुत जरूरी है, आज भी हमारा समाज धर्मान्धता को खत्म करने की बजाय अंधविश्वासों को बढ़ावा देने का काम करना है। सैकड़ों चैनलों पर पाखंडी बाबाओं के प्रवचन चलते रहते हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया ने अपने फालतू के उद्घोष से दुनियां को खतरनाक मोड़ पर पहुँचा दिया है। आज लोग किताबें नहीं पढ़ते टी. वी. चैनलों की न्यूजों और प्रोग्राम देखकर ही अपने मत का आधार ढूंढ लेते हैं। मीडिया के बाजारोन्मुखी साहित्य ने धार्मिक पागलपन को बढ़ावा देने में अहम् भूमिका निभाई है। आज़ादी से पूर्व धर्म बहुत ही सीमित जातियों में बंटा हुआ था, गिने चुने मंदिर मस्जि़दों में गिने-चुने पंडित -मौलवी थे। किन्तु वर्तमान में जितने बाबा उतने मठ, जितने मंदिर उससे कई गुना पंडित, मौलवी और अनेक प्रकार के धर्मगुरू उत्पन्न हो गए हैं। लोग आंख बंद करके पाखंडी धर्म और धर्मगुरूओं के शोषण का शिकार हो रहे हैं। समाज में आज धर्म एक कोढ़ के रूप में व्याप्त हो चुका है।

धर्म, का वास्तविक अर्थ तो सदियों से कहीं खो गया है, आज भारत में प्रत्येक राज्य और नगर में अनेकों सम्प्रदाय कुकरमुत्तों की तरह उग आये हैं, जिसके कारण चार खेंमों में बंटा भारतीय समाज (क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, और शुद्र) आज चार सौ खेंमों में बंट चुका है। यूँ तो संपूर्ण विश्व का संतुलन उसकी अपनी आंतरिक शक्ति से चल रहा है। समाज में संतुलन रखने के लिए मर्यादा और व्यवस्था स्थापित करनी पड़ती है। मनुष्य भी विश्व व्यापी समन्वय का ही एक अंग है। वह अपने को इस विश्वव्यापी समन्वय के अनुरूप बनाने के लिए अपनी इच्छाओं भावनाओ, विचारों, प्रवृत्तियों और आवश्यकताओं का संतुलन करके अपने महत्व को व्यवस्थित करता है। दूसरी ओर अपने बंधुओं के साथ अपने व्यवहार, व्यापार, संपर्क और संबंध को ठीक कर समाज को संगठित करता है। यह सब कुछ मान्यताओं पर आधारित होता है, यदि ये मान्यताओं बुद्धि-संगत और सारगर्मित न हो तो निश्चत अंधविश्वासों और कट्टर दुराग्रहों में बदल कर समन्वय में तब्दील हो जाती है। इन ज्ञान समन्वित कर्मपरक मान्यताओं को ही धर्म कहते हैं। इन मान्यताओं की बाहरी अभिव्यक्ति, आचारों, कर्तव्यों और पारस्परिक संबंधों के रूप में होती है, इन्हीं से सामाजिक ढाँचों का निर्माण होता है। धर्म का मूल उद्देश्य समाज में संतुलन रखता है किन्तु जब धर्म का उद्देश्य अर्थप्रधान हो तो संभवतः सामाजिक असंतुलन पैदा होता है।