वर्ष 2009 में बड़े तामझाम के साथ देश के तमाम नागरिकों को विशिष्ट पहचान पत्र मुहैया कराने के लिए शुरू किए गए आधार कार्ड की अनिवार्यता समाप्त हो गई है। करीब 30 अरब रूपये की इस योजना को चुनौती देने वालों ने इसे संविधान प्रदत्त बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन बताया है।
इस पर केंद्र सरकार ने खुद इसकी अनिवार्यता से पल्ला झाड़ लिया है। कुछ राज्य सरकारों ने वेतन, भविष्य निधि भुगतान, विवाह पंजीयन और संपत्ति के निबंधन जैसे बहुत सारे कार्यों के लिए आधार कार्ड को अनिवार्य बनाने का निर्णय लिया है।
सुप्रीम कोर्ट इनके खिलाफ दायर याचिकाओं की एक साथ सुनवाई कर रहा है। शीर्ष अदालत ने केंद्र को कहा कि अवैध रूप से देश में रहने वालों को आधार कार्ड जारी नहीं करें क्योंकि इससे उनके भारत में रहने को वैधता मिलेगी।
इसी के साथ केंद्र सरकार ने कहा है कि आधार कार्ड के लिए व्यक्ति की सहमति अनिवार्य है। इसकी शुरूआत समाज के वंचित तबके के समावेश को बढ़ावा देने और उनके लाभ के लिए की गई है, जिनके पास औपचारिक तौर पर पहचान का कोई प्रमाण नहीं है। यूआइडीएआई और केंद्र के वकीलों ने याचिकाकर्ताओं के दलीलों का जवाब दिया। इन्होंने कहा कि भारत में आधार कार्ड स्वैच्छिक है।
न्यायमूर्ति बीएस चैहान और एसए बाबडे की पीठ के समक्ष संक्षिप्त सुनवाई के दौरान बताया गया कि इस सच्चाई के बावजूद कि आधार कार्ड प्रकृति से स्वैच्छिक है, बांबे हाई कोर्ट के रजिस्ट्रार की ओर से राज्य सरकार के एक आदेश का अनुसरण करते हुए एक आदेश जारी किया गया है कि यह न्यायाधीशों और कर्मचारियों के वेतन भुगतान के लिए जरूरी होगा।
वरिष्ठ अधिकवक्ता अनिल दीवाना ने कर्नाटक हाई कोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश केएस पुट्टारूवामी के लिए बहस करते हुए कहा यह योजना संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और 21 (जीवन और स्वाधीनता का अधिकार) में दिए बुनियादी अधिकारों का पूरी तरह से उल्लंघन करती है।
स्रकार दावा करती है कि यह योजना स्वैच्छिक है लेकिन ऐसा नहीं है। महाराष्ट्र सरकार ने हाल ही में कहा है कि आधार कार्ड नहीं रहने पर किसी भी शादी का पंजीयन नहीं होगा। उधर जस्टिस पुट्टास्वामी ने भी अपनी लोकहित याचिका में इस योजना के लागू करने पर रोक लगाने की मांग की है।