नई दिल्ली : मोदी सरकार के पहले बजट से मध्य वर्ग को मायूसी हाथ लगी है। जहां लोग आय कर में छूट को युक्ति संगत बनाने या उसमें कटौती की उम्मीद कर रहे थे। वहीं, सरकार ने सर्विस टैक्स में बढोतरी कर दी है। अब आम आदमी के रोजमर्रा की सारी चीजें महंगी हो जाएंगी। मोदी सरकार ने पहली बार मुकम्मल बजट पेश किया है। यह बजट न सिर्फ साल 2015-16 के लिए है, बल्कि यह सरकार के अगले पांच सालों का विजन भी प्रस्तुत करता है। रेल बजट की तरह यहां भी मोदी सरकार लोकलुभावन घोषणाओं और वादों से बचती नजर आई।
मध्य वर्ग को बजट के दिन सबसे ज्यादा उम्मीद इस बात की होती है कि उसके रोजमर्रा की कौन सी चीजें सस्ती होंगी या किन चीजों के दाम बढ़ेंगे। टैक्स छूट सीमा कितनी बढ़ेगी, क्योंकि महंगाई तो दिनबदिन बढ़ती जा रही है तो टैक्स की दरों का भी उस हिसाब से युक्तिसंगत होना जरुरी है। लोगों के मन में कहीं यह आस भी होती है कि शायद टैक्स में कुछ छूट मिल जाए। कम से कम महिलाओं को तो कुछ विशेष छूट मिलेगा, ऐसा लोग मानकर चलते हैं। लेकिन इस बजट में इन सबकी पूरी तरह अपेक्षा की गई है।
यहाँ सरकार ने बजट में सुपररिच लोगों पर दो फीसदी सरचार्ज लगाने की घोषणा की है। यह शायद ऊंट के मुंह में जीरा के बराबर है। इसमें एक तरफ तो ऐसा लग रहा है कि अब अमीरों पर सरकार कठोर हो गई है। लेकिन यहां इस टैक्स से सरकार को मिलेगा क्या। देश के सुपररिच तो इतना भी टैक्स नहीं भरते कि साल के सबसे बड़े टैक्स पेयर बन जाएं।
गौरतलब है कि देश का सबसे ज्यादा टैक्स चुकाने वाला कोई फिल्म स्टार या क्रिकेट स्टार क्यों होता है। इस लिस्ट में किसी बड़े उद्योगपति का नाम क्यों सामने नहीं आता है। फोर्ब्स की लिस्ट में हम तो बड़े-बड़े नाम सुनते हैं, लेकिन ऐसा सुनने में नहीं आता कि फलां उद्योगपति ने इस साल सबसे ज्यादा टैक्स भरा है। इसका कारण है कि सरकार का टैक्स ढांचा ऐसा नहीं है कि वह सुपररिच लोगों से अधिक टैक्स वसूल सके। वे लोग अपनी कमाई को संपत्ति खरीदने, बांड खरीदने, शेयर बाजार में पैसा लगाने या अन्य निवेश करने में लगाते हैं। तो इस प्रकार सरकार को वे अपनी निजी आय के मुकाबले उस पर बहुत कम कर चुकाते हैं, फिर भला इस दो प्रतिशत से क्या हासिल होगा।
इस बजट में सरकार का सारा फोकस जीएसटी लागू करने पर है। लेकिन इसे लागू करना इतना आसान नहीं है और लागू होने के बाद भी करों के मसले इतने उलझे होंगे कि उसका फायदा मिलने में अभी कई साल लगेंगे। दूसरी बात यह है कि यह प्रणाली विकसित देशों में ही अभी तक लागू की गई है। इसे अगर यहां लागू करेंगे तो बड़ी कंपनियों को तो फायदा होगा, लेकिन छोटे और मंझोले व्यापारियों को नुकसान होगा। क्योंकि उन्हें अपनी आय का एक हिस्सा कंप्यूटराइजेशन और जटिल खाता-बही दुरुस्त करने में लगाना पडे़गा। अगर वे ऐसा नहीं करेंगे तो जो भी बड़ी कंपनियां अभी उनसे थोड़ा बहुत माल खरीदती हैं, वो बंद कर देंगी। क्योंकि जीएसटी लागू हो जाने के कारण उन्हें दूसरी बड़ी कंपनियों से ही खरीदने होंगे।
यहाँ सरकार राजकोषीय घाटे को कम से कम रखने पर अत्यधिक जोर दे रही है। लेकिन हमारे देश में औद्योगिक विकास दर लगभग शून्य पर है। इसे आगे बढा़ने के लिए बड़े पैमाने पर निवेश की आवश्यकता है। सरकार विदेशी निवेश के नियमों को बदलने और आसान करने की तैयारी कर रही है। लेकिन चाहे देशी निवेश हो या विदेशी निवेश, वो निवेश तभी करेंगे जब उन्हें लाभ की आशा हो। उन्हें बाजार में लाभ तभी दिखेगा जब देश से मंदी के बादल छंटेंगे। ऐसे में देश को मंदी से निकालने के लिए सरकार को खुद ही बड़े पैमाने पर सार्वजनिक क्षेत्रों में निवेश करना होगा। अगर सरकार सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश करेगी तो इससे राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी होगी। अगर राजकोषीय घाटा बढ़ने के बावजूद देश में निवेश का माहौल बनता है, देश मंदी से बाहर निकलता है, तो बड़े पैमाने पर रोजगार का सृजन होगा। इस तरीके से हो सकता है को दो-चार साल तक राजकोषीय घाटा बढ़ता जाए, लेकिन अर्थव्यवस्था मजबूत होने से तो वापस सरकार की तिजोरी में ही पैसा आएगा। इसलिए राजकोषीय घाटा कम करने की बजाए अर्थव्यवस्था को गति देने पर ज्यादा फोकस की दरकार है।
कौशल विकास पर जोर देना सरकार का एक स्वागत योग्य कदम है। खासतौर से पिछले दस सालों से विश्वबैंक की भी चिन्ता इसी बात की रही है कि उद्योगों के लिए प्रशिक्षित कामगारों की कमी ना हो। भारत में जब से खेती-किसानी नुकसान का सौदा हुआ है। तब से बड़े पैमाने पर किसानों का शहरों की ओर पलायन हुआ है। यहां आकर वे अप्रशिक्षित दिहाड़ी मजदूर बनते हैं। खेती-किसानी में वे भले ही उन्होंने मास्टरी हासिल किए हो, लेकिन आधुनिक कारखानों और रोजगार धंधों के हिसाब से उनका कौशल और अनुभव शून्य है। इसलिए उनका प्रशिक्षित होना बेहद जरुरी है। ताकि वे कुशल कामगार की श्रेणी में ज्यादा कमाई कर सकें। इससे एक तरफ तो उनकी आर्थिक हालत में सुधार होगा तो वहीं, उद्योगों को भी गति मिलेगी।
साथ ही आधारभूत संरचना में सरकार पीपीपी की बात कर रही है। लेकिन निजी क्षेत्र तो वहीं निवेश करेगा जहां से उसे रिटर्न मिले। उदाहरण के लिए अगर सरकार दिल्ली से मुंबई या मुंबई से अहमदाबाद तक एक्सप्रेसवे तैयार करने को निजी क्षेत्र को बुलाती है तो वहां तो उसे निवेश मिल जाएगा। लेकिन अगर बनारस से पटना के लिए एक्सप्रेस वे बनाना हो या कटक से भुवनेश्वर तक हाईस्पीड रेल चलाना हो। तो उसके लिए भला निजी क्षेत्र क्यों निवेश करेगा, क्योंकि इन जगहों पर रिर्टन मिलने में देर लगेगी। इसलिए निजी क्षेत्र के भरोसे देश का एकसमान विकास संभव नहीं है। इसका फायदा विकसित क्षेत्रों व राज्यों को ही ज्यादा मिलेगा।
इस बजट को परखते हुए यह कहा जा सकता है कि सरकार ने अपने आम बजट में लोकलुभावन घोषणाओं व वादों के जाल में नहीं फंसी है। सरकार का जोर दीर्घकालिक उपाय पर है। लेकिन जब अर्थव्यवस्था में मंदी छाई हो। वैश्विक स्तर पर भी मंदी का माहौल हो और किसी भी देश की अर्थव्यवस्था से उम्मीद की कोई किरण दिख नही रही हो तो ऐसे माहौल में सरकार से परंपरावादी रवैया छोड़कर कुछ अधिक करने की उम्मीद थी।