देखा जाए तो सतयुग में श्रद्धा और मनु त्रेता में राम और कलियुग में सर्वस्वरुप व्यापी के रूप भगवान् शंकर की उपासना की जाती रही है। आप सोच रहे होंगे कि क्या द्वापर युग भगवान् शंकर की उपासना से अछूता रहाए नहीं ! बल्कि देखा जाए तो द्वापर में भगवान् शंकर की उपासना तो ठीक उसी तरह से की गयी जैसे सतयुग
में मार्कंडेय ने की थी। बस फर्क केवल इतना सा है कि सतयुग में भगवान् शंकर को पालक प्रतिपालक सृजनहार और संहारक के रूप में पूजा गया तो द्वापर में मोक्ष दायक के रूप में।
अब हम बात कर रहे हैं अश्वत्थामा की, जिसमे 10 हज़ार हाथियों का बल था और भगवान् कृष्ण से श्रापित होने के बाद वह अब भी भटक रहा है। केवल अपने मोक्ष के लिए आज भी लोगो में भ्रान्तिया है कि अश्वत्थामा “अमर” हैं, और आज भी भगवान् शंकर के मंदिर में पूजा उपासना कर रहा है, कि भगवान् शंकर उसे मोक्ष प्रदान करें, एसा माना जाता है कि अश्वत्थामा की जन्मस्थली कानपुर में है। जहां अश्वत्थामा रोज़ नियम से भगवान् शंकर की उपासना करने शिवराजपुर के इस मंदिर में आते हैं, इसलिए इस मंदिर में विराजमान भगवान् शिव को खेरेश्वर भगवान् के नाम से जाना जाता है।
औद्योगिक नगरी कानपुर से करीब 40 किलोमीटर दूर भगवान् शंकर के नाम से ही बसा शिवराजपुर इलाका मान्यता है कि इस इलाके में भगवान् शंकर की महिमा बरसती है क्योंकि यहाँ भगवान् शंकर का सबसे बड़ा और “अमर” भक्त निवास करता है, अश्वत्थामा। कानपुर में मीलों फैला शिवराजपुर की हरियाली का यह क्षेत्र महाभारत काल में बताया गया वही क्षेत्र है जिसे “अरण्य वन” कहा गया। वह अरण्य वन जहां गुरु द्रोणाचार्य का आश्रम था और यहीं उनके महा पराक्रमी पुत्र अश्वत्थामा का जन्म हुआए युग काल बीतते बीतते इस स्थान का नाम शिवराजपुर हो गया। पहले इस स्थान का नाम “खोड़ी” फिर “खेड़ी” फिर “शिवखेडी” और उसके बाद “ख्रेरे” के नाम से जाना गया, खेरे के नाम पर ही यहाँ मौजूद एतिहासिक शिवमंदिर को खेरेश्वर धाम के रूप में जाना और पहचाना गया।
वहा के निवासी गोकरन और महेन्द्र की माने तो अश्वत्थामा आज भी नित्य प्रति इस खेरेश्वर धाम शिवमंदिर में भगवान् शंकर की पूजा करने आते हैं। रात में मंदिर बंद होने के बाद सुबह जब उसके पट खोले जाते हैं तो शिवलिंग पर बेलपत्र फूल अक्षत भाँग धतूरा और केसर चढ़ी हुई मिलती है। कहा जाता है कि अश्वत्थामा ही रोजाना यहाँ भगवान् शंकर की सबसे पहले पूजा करते हैं। हालंकि किसी ने भी अश्वत्थामा को आज तक देखा नहीं लेकिन मंदिर की विलक्षणता और लोगों के अनुभव हर बार एक ही बात कहते हैं कि यहाँ अश्वत्थामा का वास है और वही भगवान् शंकर की पूजा करते हैं।
कहते है इसी जगह पर पांडवों ने गुरु द्रोणाचार्य से अपनी शिक्षा भी ग्रहण की थी। मंदिर से कुछ ही दूरी पर गुरु द्रोणाचार्य की कुटी भी थी, हालंकि इस मदिर के बारे में किसी को कुछ भी ठीक ठीक नहीं मालूम पर कानपुर के एक इतिहासकार गोविन्द अवस्थी की माने तो यह मंदिर 200 सालों से भी ज्यादा पुराना है। लेकिन यहाँ मौजूद “स्वयंभू” शिवलिंग उससे भी पुराना है, कहते है,यहाँ मौजूद शिवलिंग महाभारत काल के समय से है। यहाँ भले ही किसी ने भी अश्वत्थामा को पूजा करते हुए नहीं देखा लेकिन महसूस जरुर लोगो ने किया।
मंदिर के पास ही मिठाई का काम करने वाले ओमप्रकाश उन्ही लोगों में से एक हैं। जिन्होंने अश्वत्थामा को पल भर की नज़र भर देखा है वह भी रात के करीब 3 बजेए केवल ओमप्रकाश ही नहीं बल्कि यहाँ का हर वाशिंदा अश्वत्थामा की शिवभक्ति की कहानियां सुनाता है। माना जाता है कि इस मंदिर में विराजमान भगवान् शंकर के शिवलिंग की 5 दिन तक लगातार पूजा अर्चना करने से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है।
मंदिर के महंत जगदीश पुरी बताते हैं कि उनकी 33 पीढियां इस मंदिर में सेवा करते गुजर गयी। महंत के अनुसार यहाँ रहने वाले ज़्यादातर वाशिंदों के पूर्वजों ने अश्वत्थामा की मौजूदगी का अहसास किया है। यहाँ के भोले शंकर पापनाशक के रूप में भी जाने जाते हैं और इंसान के हर पाप का नाश करते हैंए और सावन के महीने में इस शिव मंदिर में अश्व्थामा के साथ भगवान् शिव भी मौजूद रहते है।