पश्चिम की स्त्री ने पहली दफा पुरूष के साथ समानता के अधिकार की घोषणा की है। इसको हम चरित्र कहें तो शायद ठीक होगा। लेकिन
तुम्हारे चरित्र की बड़ी अजीब बातें हैं। तुम इस को चरित्र मानते हो कि देखो भारतीय स्त्रियां सिगरेट नहीं पीती और पश्चिम की रूत्रियां पीती हैं।
अगर सिगरेट पीना बुरा है तो पुरूष का पीना भी बुरा है और अगर पुरूष को अधिकार है सिगरेट पीने का तो प्रत्येक स्त्री को भी अधिकार है सिगरेट पीने का। कोई चीज बुरी है तो सबके लिए बरी है और नहीं बुरी है तो किसी के लिए बूरी नहीं है। आखिर स्त्री में क्यों हम भेद करें? पुरूष अगर लंगोटी बांधकर नदी में नहाए तो ठीक है और स्त्री अगर लंगोट लगाकर नदी में नहाए तो चरित्रहीन हो गई। ये दोहरे मापदंड क्यों? लोग कहते हैं, इस देश की युवतियां पश्चिम से आए फैशनों का अंधानुकरण करके अपने चरित्र का स्तयापन कर रही हैं। नहीं ऐसा जरा भी नहीं। यहां चरित्र के नाम पर बस ढोग हैं।
अगर इस देश की स्त्रियां भी पश्चिम की स्त्रियों की भांति पुरूष के साथ अपने को समकक्ष घोषित करें तो उनके जीवन में भी चरित्र पेैदा होगा और आत्मा पैदा होगी। स्त्री और पुरूष को समान होना चाहिए। यह बात तो हमेशा अधिकतर पुरूषों के स्वभाव से पता चल जाता है कि उन्हें महिलाओं से क्या चाहिए। स्त्रियों में उनकी उत्सुकता नहीं है, स्त्रियों के साथ मिलते दहेज में उत्सुकता है। स्त्री से किसको लेना देना है!
हमारे समाज के कई लोग बच्चों पर शादी थोप देते हैं। अगर शादी से पहले लड़का कहे कि मैं लड़की को देखना चाहता हूँ, तो ठीक है। यह हक है उसका! लेकिन जब लड़की यह बात कहे मैं भी लड़के को देखना चाहती हूँ कि वह आदमी जिंदगीभर साथ रहने योग्य है भी या नहीं, तो चरित्र का हृास हो गया, पतल हो गया और इसको तुम चरित्र कहते हो कि जिससे पहचान नहीं, संबंध नहीं, कोई पूर्व परिचय नहीं, इसके साथ जिंदगी भर साथ रहने का निर्णय लेना, यह चरित्र है।
तो फिर अज्ञान क्या होगा? फिर मूढ़ता क्या होगी? पहली दफा दुनिया में एक स्वतंत्रता की हवा पैदा हुई है, लोकतंत्र की हवा पैदा हुई और स्त्रियों ने उद्घोषित की समानता की, तो पुरूषों की छाती पर सांप लोटने लगे, यह तो ठीक, स्त्रियों की छाती पर सांप लोट रहे हैं। स्त्रियों की गुलामी इतनी गहरी हो गई है कि उनको पता ही नहीं है कि जिसको वे चरित्र, सती-सावित्री और न जाने क्या-क्या नहीं मानती रही हैं, वे पुरूषों के द्वारा थोपे गए जबरदस्ती के विचार थे। सच तो यह है कि मनुष्य जाति अब तक बहुत चरित्रहीन ढंग से जी रहा है, लेकिन यह चरित्रहीन लोग ही अपने को चरित्रवान समझते हैं।