करना काफी मुश्किल है। हमारे पास तत्कालीन साहित्यों की जो उपलब्धता है उसके आधार पर हम कह सकते हैं कि प्रारंभ में मानव अकेला था। आगे जाकर मानव ने समुदाय व समाज का निर्माण किया।
मानव के द्वारा यह निर्माण मानव जाति के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए था। हम इस तथ्य को अस्वीकार नहीं कर सकते कि समाज के बिना मानव का अस्तित्व नहीं है। कालांतर में समाज के अंदर कुछ विलगाव आने लगे तब समाज शास्त्रियों ने समाज को एकता के बंधन में पिराने के लिए धर्म का निर्माण किया। यह धर्म कुछ नया नहीं था बल्कि समाज में पहले से चली आ रही संस्कृतियों व क्रियाकलापों, कर्मकांड़ों का समुच्य ही था। जिसे एक धर्म का नाम दे दिया गया। यह धर्म आगे चलकर एकता की नई परिभाषा गढ़ने लगा।
एकता की नई परिभाषा गढ़ने वाला यह धर्म आस्था और भय दोनों पर आधारित था। हालांकि भय और आस्था का पुलिंदा सदियों से हमारे पूर्वज अपनी विरासत के तौर में हमें पीढ़ी दर पीढ़ी देते आए हैं। जिसका हस्तांतरण आज भी पीढ़ियों और सभ्यता के खत्म होने पर भी लगातार जारी है। हम इसे इस प्रकार से भी कह सकते हैं कि आज के तकनीकी युग में यह हम सब पर भारी है। अब इसे मजबूरी कहें या श्रृद्धा, यह लोगों के दिलों-दिमाग पर हावी भय और आस्था का स्वरूप ही इसका उचित निर्धारण कर सकता है।
हालांकि विवादास्पद विषय पर कुछ विचार और कुछ आलोचनाएं व्यक्त करने पर बहुत से साथी मित्रों को आपत्ति अवश्य हो सकती है और बहुत-से मित्र मेरी इस आलोचनाओं से सहमत भी हो सकते हंै। असहमति तो जायज ही है बनेगी ही? क्योंकि विषय और मुद्दा दोनों हमेशा से विवादों के कटघरे में खड़ा रहा है। कितना भी हमने प्रयास किया हो, छट-पटाने के सिवाए और कोई रास्ता आज तक किसी को नजर नहीं आया। न ही आने वालों कुछ दशकों में आ सकता है। यह एक ऐसी भूलभुलैया है जिसमें मनुष्य पैदा होते ही घुस जाता है और अपनी ताउम्र इसी के मूल द्वारा (बाहर निकलने का रास्ता) को खोजते-खोजते खत्म भी हो जाता है। वैसे बहुत से लोग इसके विपक्ष में भी हमेशा से खड़े मिलते रहे हैं जिन्हें अभिमन्यु कहना उचित होगा। यानि मात्र छह द्वारों को भेदने वाला। सातों द्वार को भेदकर इस भूलभुलैया से कोई भी अपने आपको मुक्त नहीं कर पाया है। इसे हम हाथी की काया को उन चार अंधों से भी व्यक्त कर सकते हैं।
जिससे जो महसूस किया उसने उसी प्रकार उसको परिभाषित कर दिया। वही आलम भय और भगवान का भी रहा है! जिसने जैसा कहा आंख मूदकर मान लिया, जिसने जैसी आकृति गठित की, पूज्यनीय होती चली गई। जो वर्तमान दौर में लगातार जारी है। नए-नए भगवानों का जन्म हो रहा है, तरह-तरह के पाखंडों को पैदा किया जा रहा है। सिर्फ इसलिए की भय के भगवान का अस्तित्व बरकरार रह सके और पंडितों की मंसा भी, जनता को लूटने की।
यदि बचपन के दिनों को याद करें, तो हमारे दादा-दादी, नाना-नानी आदि ने भी हमें किस्से कहानियों के माध्यम से भगवान और भूतों के कई बार दर्शन करवाए हैं, और तो और हमारे शिक्षकगणों ने भी शिक्षा के ज्ञान स्वरूप इसका वर्णन भी बखूबी किया है कि भगवान मंत आस्था रखोंगे तो तुम अवश्य सफल होगे? वो तुम्हारी मुरादें जरूरी पूरी करेंगे? परंतु उन्होंने कभी गीता के उपदेशों पर जोर देते हुए यह कदापि नहीं कहा, कि कर्म करों, फल की अभिलाषा न करो। क्योंकि जैसा कर्म करोंगे ठीक वैसा ही फल आपको निश्चित ही मिलेगा। वहीं हमारी मांएं भी इस कार्य में कहा पीछे रहती हैं, वो भी हमारी शरारतों से तंग आकर यही कहती हैं कि बेटा यहां-वहां मत जाना, नहीं तो बाबा पकड़ लेगा, वहां भूत रहता है पकड़ कर खा जाएगा। और हमारे दिलों-दिमाग में वो सारी बातें अपना एक बड़ा सा घर धीरे-धीरे बना लेती हैं। यानि भय और आस्था का घर।
चूंकि भय को भगाना है तो आपको आस्था का सहारा लेना ही पड़ेगा। आस्था यानि भगवान? अब भगवानों की फेहरिस्त तो बहुत ही लंबी है, एक हो तो भी चलाया जा सकता है। अगर मनुष्यों और भगवानों की संख्या का आंकलन करके देखा जाए तो लगभग 3 मनुष्यों पर एक भगवान अवश्य ही बैठेंगे। वैसे पूरे विश्व में मौजूदा भगवानों को छोड़कर (क्योंकि आधे से ज्यादा ईसाई धर्म को मानने वाले, एक चैथाई पैगंबर को मानने वाले, एक चैथाई से कम बौद्ध व जैन को मानने वाले ) सिर्फ भारत देश के पूज्यनीय छोटे-बड़े भगवानों के नाम यहां लिखना चाहू तो न जाने कितना समय लग जाए और पूरे नाम भी न लिख सकूं। क्योंकि हम लोगों को देश में मौजूद सभी भगवानों के नाम याद कहा। हमें तो बस जो भगवान जितना ज्यादा चर्चित हैं उन्हीं एक दो………..दस, बारह भगवानों के नाम ही याद हैं बाकि सब गायब। इसको हम इस तरह भी कह सकते हैं कि जिस भगवान के भक्तों की संख्या जितनी अधिक है उस भगवान का नाम उतनी ही लोकप्रिय है। अब किसी की क्या मजाल जो भगवानों पर टिप्पणियां कर सके। करेंगे तो खून-खराबा होना लाजमी है, इसके बीच-बचाव में भगवान भी स्वयं कभी नहीं पड़ते। वो तो बस लीलाएं करते रहते हैं। वैसे पूर्वजों व गुरूजनों की बात मानी जाए कि भगवान तो कण-कण में विराजमान हैं। इस बात को पूर्णतः खारिज तो नहीं किया जा सकता, हां यह बात जरूर है कि कण-कण में न सही, मंदिरों, गली-मोहल्लों, घरों से लेकर फुटपाथों पर तो विराजमान है ही। वो भी बड़ी सुलभता के साथ। कहीं पूजा ने के लिए तो कहीं बिकने के लिए। रुपया दो रुपया से लाखों तक में बिक जाते हैं यह भगवान। बाजारवाद है इंसान बिक सकता है तो फिर भगवान तो भगवान है।
प्राचीन काल से लेकर अब तक हर युग अर्थ प्रधान रहा है। हमारे धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या अगर धार्मिक आधार पर करें तो उपयुक्त तथ्य थोड़ कमजोर नजर आते हैं। लेकिन अगर व्यवाहारिक नजरिया अपनाते हुए गं्रथों का आर्थिक विश्लेषण करें तो यह सब कुछ अर्थ व्यवस्था द्वारा निर्मित नजर आता है। और इसके निर्माता व्यापारी वर्ग। पुरोहित वर्ग ने भी धर्म का भय दिखाकर जनता को लूटा तो इसका मूल कारण भी आर्थिक ही था। धर्म की आस्था व भय दोनों के माध्यम से व्यापारी वर्ग ने एक सतत व्यापार की राह बना डाली है।
दक्षिण के एक सम्राज्य (चोल सम्राज्य) की अर्थ व्यवस्था में मंदिरों से प्राप्त धन का काफी योग्यदान था। वर्तमान समय में धर्म का राजनीतिकरण कुछ इस प्रकार हो चुका है कि व्यापारी वर्ग मंदिर से आर्थिक लाभ तो लेते हैं लेकिन सरकार उसे मंदिर विकास के लिए आर्थिक हिस्सेदारी देने के लिए बाध्य नहीं कर सकती। हमारे पास सारे लिखित प्रमाण मौजूद है कि मंदिरों में अकूत धन संपदा मौजूद है लेकिन आम जन की आस्था के कारण लोकतांत्रिक सरकार इस धन संपदा का इस्तेमाल देश के विकास में नहीं कर पाती। आम आदमियों में धर्म की परिभाषा व कार्य का विवरण पुरोहित वर्ग द्वारा इस प्रकार दिया गया है कि आम जनता भगवान के प्रति आस्था व सामाजिक दायित्व को एक पटरी पे देख नहीं पाती।
भगवान के स्वरूप विश्लेषण के क्रम में आम आदमी हमेशा यह तर्क देकर बचना चाहता है कि जहां आस्था है वहां तर्क उचित नहीं है। तर्क नहीं करना वर्तमान समय में विकास की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। जब तक आम आदमी तर्क के माध्यम से चीजों को स्वीकार या अस्वीकार करना प्रारंभ नहीं करेगा तब तक धर्म और भय का बाजार यूं ही गरमाता रहेगा। किसी शायर ने इस बात पर क्या खूब कहा है कि सांझ हुई सजने लगे कोठों के बाजार, ग्राहक मन का न मिला बदन लूटा सौ बार………….।
हालांकि भगवान के संदर्भ में अधिकांश लोग यह भी कहते हैं कि भगवान सब कुछ देखता है, अच्छा और बुरा दोनों ही। मेरे हिसाब से तो भगवान अच्छा बुरा कुछ भी नहीं देखता। यह बातें तो बस किस्से-कहानियों में ही ज्यादा अच्छी लगती हैं कि ऐसा बुरा होने लगा तो भगवान ने फलां-फलां अवतार लेकर ऐसा होने से बचाया। अरे भई पहले कि अपेक्षा आज के दौर को देखों, कितना कुछ घटित हो रहा है- लूट, हत्या, अबोध बच्चियों से लेकर वृद्धाओं से बलात्कार, चोरी, डकैती, शोषण और तो और भूकंप, सुनामी, तूफान आदि फिर भी भगवान चुप्पी साधे क्यों बैठे रहते हैं? कुछ करते क्यों नहीं? क्या अब इनकों दिखना बंद हो गया है या फिर गांधारी की तरह इन्होंने भी अपनी आंखों पर पट्टी और कानों में रूई लगा रखी है। ताकि लोगों के दुख-दर्द को न तो देख सकें न ही उनकी चीख-पुकार इनके कानों तक पहुंच सके। मुझे तो अब ऐसा प्रतीत होने लगा है कि भगवान अब इंसानों से त्रस्त आ चुके हैं या फिर वह मनुष्यों का इस देश से सफाया करना चाहते हैं या जो भय उनके प्रति आस्था का रूप लेकर सदियों से चला आ रहा था।
उसमें कमी के चलते यानि भय को कायम रखने के बावत वो इंसानों को अपने पास बुला-बुलाकर मार रहें हैं। ताकि उनका वर्चस्व कायम रह सके। भय कायम रहेगा तो उनके प्रति आस्था भी बरकरार रहेंगी। इसके अलावा मुझे एक बात और हमेशा से खटकती है कि यह सब जो घटित हो रहा है इसके पीछे कहीं इन करोड़ों देवताओं का हाथ तो नहीं, जो आपसी रंजिश के चलते और अपने-अपने बहुमत और भय को अपने प्रति कायम करने के बावत इंसानों को इंसानों से लड़ाने का काम कर रहे हो, जैसा अंग्रेजों न किया अब हमारे नेता कर रहे हैं।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भय और आस्था ने बाजार की ओर अपना रूख कर लिया है। जहां आस्था और भय को बकायदा बेचा जा रहा है। और लोग उल्लूओं के माफत उसको खरीद भी रहे हैं। क्योंकि भय जो सदियों दिलों-दिमाग पर चस्पा है उसको खत्म करने के लिए आस्था को माध्यम बनाने के अलावा और कोई रास्ता हमारे पूर्वजों ने हमें कभी नहीं दिखाया। या फिर दिखाने नहीं दिया। जो भी कहा जाए, कम है। कम इसलिए भी है क्योंकि भय और आस्था का जो पुलिंदा हम ढो रहे है उसकी सच्चाई जानने की कभी किसी जरूरत महसूस ही नहीं की, कि वास्तव में हकीकत क्या है। वास्तव में भगवान का अस्तित्व था कभी। या यह सिर्फ पुजारियों की एक चाल मात्र थी ताकि वो आम जनता को इसका भय दिखाकर अपना उल्लू सीधा कर सकें। क्योंकि जब राजा का अत्याचार उसकी प्रजा के प्रति ज्यादा होने लगता था तो यही प्रजा को यह कह कर शांत करवा देते थे कि जब इस राजा के पापों का घड़ा भर जाएगा, तब भगवान फलां-फलां युग में अवतार लेकर तुम लोगों को इस राजा से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त्र करेंगे। इसी कारण लोगों की आस्था इन पुजारियों के प्रति बरकरार रह सकी। तब जाकर यह पुजारी भय और आस्था के नाम पर जनता को हमेशा से लूटते रहे। जैसा होता आया है और हो भी रहा है।
हालांकि अब तो पुजारियों के साथ-साथ आस्था के नाम पर ना जाने कितने बाबा भी प्रकट हो गए है जो अपने आपको भगवान से कम नहीं मानते। चाहे वो श्रीश्री, साईं, निर्मल, आशा, श्रीदेवी या कोई सरकार क्यों न हो। पूजे जा रहे हैं आस्था के नाम पर। लोग एक भीड़ की जमात में दिन प्रतिदिन जमा होते जा रहे हैं। क्योंकि इंसानों को पैदा होने के साथ ही कुछ न कुछ दुख-तकलीफ सदैव उसके साथ बनी रहती हैं। एक जाता है तो दूसरा आता है। आना-जाना लगा ही रहता है। खुशी में तो ठीक, परंतु जहां दुख आया तो वह सिर्फ और सिर्फ भगवान को याद करता है, बाबाओं को याद करता है, तांत्रिकों को याद करता है। अपने दुख-दर्द के निवारण के लिए। वह जैसा कहते हैं वैसा ही करता है। पर वो यह क्यों भूल जाता है कि दुखों का निवारण स्वयं उसे ही करना है? समस्या अगर आ खड़ी हुई है तो उसको वह खुद ही दूर कर सकता है? पर वह यह सब नहीं करता, या नहीं करना चाहता। उसे तो बस पका-पकाया खाने की आदत पड़ चुकी है। वैसे बाबाओं के चर्चें तो आप सब लोग सुन ही रहे होंगे कि यह बाबा आस्था की आड़ में लोगों के साथ क्या-क्या करते रहते है फिर भी कोई नहीं चेतता। जाते वहीं है कीचड़ में लोटने के लिए।
मैंने इस बात से कभी इंकार नहीं करता कि किस के प्रति श्रृद्धा नहीं होनी चाहिए, होनी चाहिए पर आंख मूंदकर श्रृद्धा। यह कितना उचित है। अगर वास्तव में भगवान का अस्तित्व है तो सामने क्यों नहीं आते? क्यों कुंभकर्ण की भांति सोए जा रहे हैं। वैसे भी 2014 में लोकसभा के चुनाव आने वाले हैं। कूद पड़े इस चुनावी जंग में। और मिटा दे इस देश से सारी समस्याओं को। अवतार ले, अवतार लेने की शक्ति तो है ही आपके पास? या फिर आपके अस्तित्व को पंड़ितों ने रचा है। इसका मूल कारण जानना चाहे तो भूतकाल के गर्भ में मौजूद है कि पहले भगवान का कोई अस्तित्व नहीं था।
सिर्फ अग्नि, वायु, पानी, धरती आदि को ही मनुष्य अपना भगवान मानता था। जिसके पुख्ता प्रमाण मौजूद हैं। धीरे-धीरे सभ्यता के विकास के साथ-साथ न जाने यह भगवान कहा से प्रकट हो गए, इसके पुख्ता प्रणाम हमेशा से ही संदेह के कटघरे में कैद रहे हैं।
मेरे दृष्टिकोणों के अनुसार भय और भगवान दोनों की मनुष्यों की उपज का नतीजा है। अर्थ व्यवस्था के दृष्टिकोण से हम विश्लेषण करें तो हम निश्चित एक सत्य की ओर बढ़ेंगे। वह सत्य है पुरोहित वर्ग के अस्तित्व की रक्षा। अगर धर्म में आस्था व धर्म का भय आम आदमी में न होता तो पुरोहित वर्ग प्राचीन काल में ही काल के गर्त में समा चुका होता। हमारे समाज का स्वरूप ही कुछ ऐसा है कि पुरोहित वर्ग कभी भी उत्पादन में भाग नहीं लेता, जबकि हर उत्पादन में उसकी हिस्सेदारी अवैध तरीके से अवश्य होती है।
अपनी अवैध हिस्सेदारी को वैधता पुरोहित भगवान का भय दिखाकर प्राप्त करते हैं। दरअसल पुरोहित वर्ग ने एक साजिश की तहत आम आदमियों को धर्म के मूल विचारों से दूर रखा। आम आदमियों को इस प्रकार शारीरिक कामों में उलझा दिया गया कि उनके पास चिंतन का समय ही नहीं बच पाता। पुरोहित वर्ग को चिंतन की जिम्मेदार सौंपी गई।
पुरोहित वर्ग ने इस जिम्मेदारी को ईमानदारीपूर्वक नहीं निभाया। जबकि आम आदमी अपनी जिम्मेदारी को ईमानदारी से निभाता रहा। जब आम आदमी जागरूक हुआ और धर्म के बारे में तर्क के आधार पर जानकारी हासिल करने की कोशिश की तब धर्म के तथाकथित ठेकदार पुरोहित वर्ग ने क्षत्रिय वर्ग व व्यापारी वर्ग को अपने साथ मिलाकर कभी अर्थव्यवस्था की मार देकर तो कभी हथियार का भय दिखाकर आम आदमी को इस बात के लिए मजबूर किया कि वो धर्म की ठेकेदारी पुरोहित वर्ग के हाथ में रहने दे। कुल मिलाकर पुरोहित वर्ग ने धर्म का भय दिखाकर अपने अस्तित्व को बरकरार रखा।
पुरोहित वर्ग के अस्तित्व के साथ धर्मिक भय ने क्षत्रियों को शासन की लंबी आयु दी तथा व्यापारी वर्ग को अर्थव्यवस्था का नया मार्ग दिया। दोनों ही मार्ग आम जनता का शोषण करती रही। हालांकि आजादी के बाद क्षत्रियों का शासन राजतांत्रिक नहीं रहा, फिर भी शासन स्वरूप के बदलने का धार्मिक आस्था व भय के ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। और आम जनता का शोषण तीनों वर्ग लगातार कर रहे हैं।
वैसे अगर इन भय व आस्थ दोनों का अस्तित्व पूर्णतः खत्म कर दिया जाए तो जातिगत लड़ाईयां और धर्मवाद हमारे देश से खत्म हो सकता है। पर कहीं न कहीं हमारे देश के पंडित और नेता यह नहीं चाहते, क्योंकि इसी आधार बनाकर वो जनता को अपने सामने झुकने पर मजबूर करते है और यह नेता हर पांच साल में चुनाव के मैदान में जोर आजमाईस करते हैं।
इसकी मूल वजह यह कि हमारे देश में इन भगवानों को मानने वालों की तदाद सबसे अधिक है। वैसे भगवान और भय को खत्म कर दिया जाए और सिर्फ इंसानियत को पूजा जाए तो देश जरूर प्रगति के मार्ग पर अग्रसरित हो सकता है। नहीं तो जैसा चल रहा है उसकी स्थिति कुछ समय के उपरांत और विकट होने वाली है यानि भय और आस्था के नाम पर देश का विनाश।