नई दिल्ली: इराक जल रहा है और लाखों उस आग में झुलस रहे हैं। उसकी आंच दूर-दूर तक पहुंच रही है। दुनिया का कोई भी देश उससे अछूता नहीं है क्योंकि इससे तेल का बाजार गरम हो रहा है। महंगे तेल की कीमतें और ऊपर जा पहुंची है जिसका असर दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ रहा है। आखिर यह तेल ही तो है जो यह खून-खऱाबा और नरसंहार करवा रहा है। इंग्लैंड ने 1917 से अगले एक दशक तक वहां भारी सैन्य शक्ति का इस्तेमाल करके तेल के कुओं पर अपना कब्जा बनाए रखा। तीस साल तक वहां शासन करने के बाद अंग्रेजों ने उसे आज़ादी दी।
ईराक में छिड़े इस दंगे में कई भारतीय भी फसे हुए है, जिनकी सुरक्षा खतरे में है लेकिन इन सब के बाद भी विदेश मंत्रालय ने कहा है कि इराकी सरकार ने मोसुल के पास अगवा किए गए 40 भारतीयों के ठिकाने का पता लगा लिया है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता सैयद अकबरूद्दीन ने बताया कि इराकी विदेश मंत्री ने हमें जानकारी दी है कि उन्होंने अगवा भारतीयों की जगह का पता लगा लिया है।
अकबरूद्दीन ने कहा कि इस समय वह जगह के बारे में जानकारी साझा नहीं कर सकते हैं और न ही यह बता सकते हैं कि इराकी अधिकारियों ने संभावनाओं के बारे में क्या कुछ बताया है। हमें ठिकाने के बारे में समझ आ गई है। उन्होंने कहा कि अगवा भारतीयों की रिहाई सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता है। उन्होंने कहा कि इराक में रह रहे भारतीय नागरिकों की पूरी मदद की जा रही है, हेल्पलाइन पर आने वाले फोन के जवाब दिए जा रहे हैं और आगे की कार्रवाई की जा रही है। विदेश मंत्रालय ने पूर्व राजदूत सुरेश रेड्डी को बगदाद भेजा है।
इससे पहले, विदेशमंत्री सुषमा स्वराज ने कहा कि इराक में अगवा भारतीयों को छुड़ाने के लिए सभी प्रयास किए जा रहे हैं। सुषमा ने कहा, मैं प्रयासों की निजी तौर पर निगरानी कर रही हूं। हम अपने नागरिकों की रिहाई सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। इराक में अगवा भारतीयों में अधिकतर पंजाब एवं उत्तर भारत के अन्य इलाकों के हैं और मोसुल में वे निर्माण कंपनी के लिए काम कर रहे थे।
गौरतलब है कि पिछले साल सुन्नी लड़ाकों ने पश्चिमी इराक के शहरों फ़लुजा और रमादी को तहस नहस कर दिया। फ़लुजा पर तो उनका कब्जा ही हो गया। अब उनके लड़ाके मोसुल शहर को जीतते हुए बगदाद की ओर बढ़ रहे हैं।
वहां भीषण लड़ाई हो रही है और हजारों लोग मारे जा चुके हैं। इराक की सरकार बचने के लिए अमेरिका से गुहार लगा रही है और कह रही है कि वह हमलावरों पर हमले करे। लेकिन बराक ओबामा और जॉर्ज बुश में यहीं पर फर्क है। बुश होते तो अब तक अमेरिकी सेना भेज चुके होते लेकिन ओबामा इतना बड़ा जोखिम नहीं लेना चाहते। वे जानते हैं कि बाद में इसके जटिल नतीजे हो सकते हैं। बुश इराक फौजें भेजकर बेहद अलोकप्रिय हो गए थे. अमेरिका को उसकी बहुत ज्यादा आर्थिक कीमत भी चुकानी पड़ी थी।
बहुत से अमेरिकी तो मानते हैं कि यह सत्ता संतुलन का स्वाभाविक मामला है जिसमें इराक के दो टुकड़े भी हो सकते हैं। अगर ऐसा होता भी है तो अमेरिका को कई फर्क नहीं पड़ता और उसका कारण है कि इराक के तेल भंडारों में अमेरिकी कंपनियों की दिलचस्पी अब खत्म होती जा रही है। नई टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से उसकी दूसरों पर निर्भरता कम होती जा रही है और वेनेजुएला तथा कनाडा से तेल की आपूर्ति बढ़ने से उसके पास तेल की कमी नहीं है।अमेरिका एक व्यापारी देश है और उसका हर कदम नफा-नुकसान के अनुसार ही उठता है। इस बार भी वह वैसे ही फैसले करेगा. मतलब साफ है, इराकियों को अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी चाहे देश के दो टुकड़े क्यों न हो जाए।