उदयपुर। विश्व और भारत के मानचित्र पर पर्यटक नगरी के रूप में अपनी एक अलग ही पहचान रखने वालें और झीलों की नगरी के नाम से जगप्रसिद्ध उदयपुर में वर्ष भर देसी-विदेशी सैलानियों की आवाजाही रहती है, पर उसी बहार के बीच इस शहर में मानसिक विक्षिप्त ऐसे लोगों की भी कमी नहीं रहती, जिन्हें साधारण भाषा या जनजुबां में ‘पागल’ कहा जाता है।
शहर के चांदपोल क्षेत्र हो या देहली गेट, सूरजपोल, या फिर बड़े बस स्टेंड वाला उदयापोल हो, हर जगह इनकी उपस्थिति देखी जा सकती है।
कहां से आते हैं ये ? पुराने तो ठीक हैं, कभी अचानक नया चेहरा कहां से आ जाता है? कभी कोई पुराना चेहरा अचानक कहां गायब हो जाता है? कहां चला जाता है वह ? इन सवालों का जवाब ढूंढा जाए, तो प्राय: सबके जहन में एक ही बात सामने आती है। वह है – “ ट्रेन “।
शहर में कोई नया मानसिक विक्षिप्त आए, तो ज्यादातर लोगों का मानना है कि वह भारतीय रेल से ही यहाँ पर आया है। या कोई पुराना विक्षिप्त गायब हो जाए तो समझिए कि उसे रेल में बैठाकर नियती के हवाले कर दिया गया है और आश्चर्य की बात यह है, कि यह काम नाइन्टी नाइन परसेंट किसी और ने नहीं बल्कि ” आमजन की रक्षा ” करने वाली खुद पुलिस ने किया है।
रच-बस जाते हैं :
सूत्रों के अनुसार ज्यादातर मानसिक विक्षिप्त क्षेत्र विशेष में पहुंचने या पहुंचाए जाने के बाद हालांकि कुछ ही दिनों में वहां रच-बस जाते हैं। थोड़े ही समय में वे लोगों को जानने-पहचानने लगते हैं और लोग भी उन्हें स्वीकार लेते हैं। ये विक्षिप्त जहां भी रहते हैं, अपने आसपास के लोगों की आदतों से परिचित हो जाते हैं और लोग इनकी आदतों से अपरिचित नहीं रहते। कई विक्षिप्तों को तो लोगों से भरपूर मदद मिलती है, जबकि कई को लम्बी झिड़कियों से जूझते हुए गलियाँ और मार को भी सहन करना पड़ता है।
पहचान अलग –अलग :
प्रत्येक विक्षिप्त की अलग आदत प्राय: लोगों में उसकी अलग ही पहचान कायम करती हैं।
जैसे, कोई तो, मैले-कुचैले कपड़ों में लिपटा, तो कोई विक्षिप्त ज्यादातर समय हाथ में डंडा लेकर किसी अस्त-व्यस्त चौराहा पर ट्रेफिक कंट्रोल करता हुआ नजर आता है।
तो कोई गर्मी में भी इनर और कोट, जैसे गर्म तासीर वाले कपड़े तन पर लादे शान से बैठा चाय पीता हुआ नजर है। तो कोई हर मौसम में कपड़ों से लदा-फंदा रहता है, तो कोई भीषण गर्मी या भीषण सर्दी में भी खुद को जिन्दा रखने में कामयाब दिखता है।
कोई अपने कपड़ों में यहां-वहां पॉलीथिन की थैलियां ठुंसे से सदा चलता नजर आता है, तो कोई घंटों तक बैठा बड़बड़ाता-बुदबुदाता दिखता है। तो कहीं पर कोई घंटों तक एक ही जगह एक ही किसी मुद्रा में बैठा न जाने कौनसी गणित में उलझा हुआ दिखता है, तो कोई ज्यादातर समय चीखता-चिल्लाता सुनाई देता है। कहीं पर तो किसी को कचरे के ढेरों में चीजें तलाशकर यहां-वहां कपड़ों में ठुंसते हुआ भी देखा जा सकता है।
नहीं करते नुकसान
विक्षिप्त प्राय: लोगों को नुकसान नहीं पहुंचाते। इनके खाने-पीने, रहने की जगह भी प्राय: तय होती है। कई विक्षिप्तों को दुकानदार या आसपास के लोग सुबह-शाम सस्नेह खाना देते हैं। कुछ जगह लोगों ने रात गुजारने के लिए बिस्तर आदि का बंदोबस्त कर रखा है।
शहर के सूरजपोल चौराहे स्थित “श्री राम भोजनालय“ के भवानीशंकर चौबीसा कहते है कि लोग इन्हें नियम से रोजाना चाय पिलाते, बिस्किट आदि खिलाते हैं। तो उनके भोजनालय के दवारा भी ऐसे लोगों के आने पर उन्हें भोजन करवाया जाता है। तो कुछ लोग इन्हें खुल्ले पैसे भी देते है और आवश्यक वस्त्र भी उपलब्ध करवाते है। तो कई लोग इंसानियत की मिसाल पेश करते हुए इनके घायल होने (चोट लगने पर) या बीमार होने पर उन्हें अस्पताल भी ले जाकर इलाज भी करवाते है। हां पर कई बार किसी के दवारा इनकों छेड़ने पर, यें भड़कते हुए, उनके साथ या उन पर पत्थर लेकर साथ भी हमलावर अंदाज़ में दौड़ते हुए भी नजर आते है।
‘शिफ्टिंग’ आसान’
जानकारों के मुताबित कोई विक्षिप्त आसपास के जनजीवन के लिए परेशानी बनने लगता है या उसे ‘बेकाबू’ समझा जाने लगता है, तब ही शिकायतें पुलिस थाने में पहुंचने लगती हैं। लेकिन, पुलिस को ऐसे मामलों को इन्हें ‘हैंडल’करने में खासी मशक्कत और परेशानी का सामना करना पड़ता है। बाद में इन्हें संभालने के लिए भी खासी मेहनत करनी पड़ती है, तभी जाकर यह पुलिस के हाथ लग पाते है, वर्ना पुलिस से तो ये भागते नजर आते है।
शहरवासी मोहनलाल शर्मा बताते हैं कि मानवीय दृष्टि से पुलिस कोई सख्ती करने की बजाय विक्षिप्त को ‘शिफ्ट’करने का आसान रास्ता अपनाती है। विक्षिप्तों की शिफ्टिंग के लिए पुलिस के पास सबसे आसान रास्ता ट्रेन ही होती है। लोगों से लगातार शिकायतें मिलने और मामला जन-आक्रोश तक पहुंचने के बाद पुलिस संबंधित विक्षिप्त को ट्रेन में बैठा देती है और एहतियात के तौर पर रेलवे के कर्मचारियों को दबी जुबान में इसकी सूचना भी दे दी जाती है। ज्यादातर मामलों में विक्षिप्तों को गुजरात की ट्रेन में रवाना किया जाता है, तो कई बार जयपुर या अजमेर जाने वाली लोकल ट्रेनों में इन्हें बिठा दिया जाता है। इनके बैठाने के बाद ये किसी को भी पता नहीं होता है कि ना जाने ये अब किस स्टेशन पर उतारकर, वहां ही अपना नया ठिकाना बनायेंगे। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि गुजरात या अजमेर, जयपुर से आई किसी ट्रेन में कोई नया विक्षिप्त हमारे यहां उतर जाता है। और यहीं पर नया बसेरा बना लेता है।
सार्वजनिक स्थान ही इनका बसेरा :
ज्यादातर विक्षिप्त लोगों का मुख्य रूप से बसेरा सावर्जनिक स्थानों पर ही होता है…. चाहे वो बस स्टेंड हो, रेलवे स्टेंड हो या कोई सरकारी अस्पताल हो। सार्वजनिक स्थानों पर ऐसे स्थानों पर कोई कुछ नहीं कहता है, क्योकि यदि ये किसी निजी स्थान पर रहे या बैठे भी तो, लोग उन्हें गलियाँ देकर चलता कर देते है, लेकिन सार्वजनिक स्थान पर उन्हें ज्यादातर कोई नहीं टोकता, ना कोई यात्री या ना ही कोई कर्मचारी। सार्वजनिक स्थान पर उन्हें भीख के रूप, पैसे भी आसानी से मिल जाते है और सरकारी भवन के किसी कौने में आसानी से सो भी जाते है।
छेड़खानी करो तो करते हैं पलटवार :
ज्यादातर विक्षिप्त, लोगों के लिए नुकसानदेह तभी साबित होते हैं, जब उन्हें छेड़ा जाएगा या जबरन अपनी मस्ती मजाक के लिए परेशान किया जाए। कई बार देखने को मिलता है कि बच्चे या किशोर, इनसे मसखरी करने लगते हैं। ऐसे में इन विक्षिप्त लोगों के पास मसखरों से पीछा छुड़ाने का आसान उपाय पत्थर बरसाना ही होता है। हालांकि कई बार कोई विक्षिप्त अपनी खराब आदतों के चलते आसपास के लोगों, खासकर बच्चों-महिलाओं के लिए परेशानी का सबब बन जाता है।
शासन और प्रशासन को ध्यान देने की जरुरत :
विक्षिप्त, पागल या मंद्बुधि लोगों को लेकर सरकार, प्रशासन और स्वयंसेवी संगठन के दवारा कई प्रयास तो कियें जाते है, पर वो ग्राउंड स्तर पर नजर नहीं आते है या जमीनी हाल कुछ और ही होते है, सरकार के दवारा भी ऐसे लोगों के लियें कोई खास योजनायें तो नहीं नजर आती, और अगर है भी, तो मौके पर कभी नजर नहीं आती। ऐसे में स्थानीय प्रशासन के दवारा और सरकार के दवारा कुछ विशेष प्रयास कियें जाने चाइयें और ऐसे लोगों पर काम करने वाली ऐसी संस्थाओं को भी चाइये, वो भी वास्तव में ग्राउंड स्तर पर ऐसे लोगों के पुनर्वास सहित कड़े और बड़े कदम उठाते हुए इनके लिए इनके सही दशा और दिशा को ध्यान में रखते हुए काम करे।