दिल्ली जैसे महानगर में महिलायें असुरक्षित हैं यही विषय अपने आप में चैंकाने वाला है। फिर आखिर महिलाओं को लेकर लोगों में यह कैसी सोच है? जहां दुनिया भर में भारत की महिलाओं ने परचम लहराया है।
आंतरिक को भेदा है, पर्वतों को रौंदा है, सत्ता की भारी भरकम बागडोर संभाली है, डॉक्टर, नर्स, इंजिनिया, वैज्ञानिक, खिलाड़ी और इन सबके बावजूद गृहिणी क्या-क्या नहीं किया महिलाओं ने? अब पुलिसवाले यह भूल गये हैं कि उन्हीं के महकमे में हज़ारों की संख्या में महिला पुलिस है कितनी एस. एच. ओ हैं कितनी डी. एस. पी. कितनी एसी. पी. आई.।
हालांकि कई बार अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़तें हुए पुलिस के यह भी बयान आये थे कि महिलायें देर रात घर से बाहर न निकले, यदि निकले तो किसी रिश्तेदार या परिचय वाले को लेकर निकले। क्या यह सोच और यह विचार एक नपुंसक समाज की ओर इशारा नहीं करते, फिर तो सबसे पहले महिलापुलिस, फिसर या हवलदारों की डयूटी भी केवल दिन में लगनी चाहिए। अपराधीकरण भी सबसे पहले इसी महकमें से उपजता है। अफसोस तो इसी बात का है कि पुलिस महकमें के ही लोग अपराध कराने और बढ़ावा देने में संलग्न होते हैं।
दिन के उजाले में क्या अपराध नहीं होते, क्या रिश्तेदार या परिचित छेड़खानी नहीं करते, कितने ही ऐसे मामले थानों में दर्ज होंगें जहाँ किसी भाई, किसी पिता अथवा चाचा ताऊ, भतीजा आदि रिश्तों और परिचितों ने इंसानियत को शर्मसार किया है, तो सवाल यह उठता है कि क्या स्त्रियां घर में भी रहना छोड़ दें। आखिर यह कैसा देश है, कैसा कानून है जहाँ महिला होने का अर्थ है, ’पाबंदी’ है। सदियों से महिलाओं के साथ जो दोयम दर्जे का व्यवहार होता आया है यही हमारे समाज में महिलाओं को लेकर सोच पर प्रश्न चिन्ह लगाता है।
सच तो यह है कि छेड़-छाड़ तो कई पुरूषों की मानसिकता और व्यवहार दोनों में है। घर में, आस-पास के माहौल में, सड़क पर, बस में, ट्रेन में सफर करते समय या किसी भी भीड़ वाली जगह पर, लाईन में लगे होने पर अस्पतालों में, हर जगह मनचले यहाँ तक कि अधेड़ और वृद्ध दोनों ही ऐसे घूरते हैं जैसे कभी किसी लड़की को न देखा हो? बस, ट्रेन में या भीड़ में ऐसे सटकर, ऊपर गिरते हुए खड़े होते हैं कि लिखने और कहने में भी शर्म आती है। सिनेमाघरों में फिल्में देखने पर भद्दी व अश्लील फब्तियां क्या किसी गाली से कम होती है।
फिस में यदि सहकर्मी महिला है तो दो तीन पुरूष आपस में महिला के हर व्यवहार या तो ललचायी नज़र से देखते हैं या फिर आपस में उसको लेकर अश्लील छींटा-कशी करते हैं। शायद, यही सबसे बड़ा कारण है कि माता-पिता कन्या को जन्म देना नहीं चाहते, क्योंकि, जन्म देने से ज्यादा महत्वपूर्ण है उसकी सुरक्षा और भारत जैसे कुंठित मानसिकता वाले देश में स्त्रियां कहीं सुरक्षित नहीं हैं। कभी दहेज लोभियों की लालसा का तो कभी वासना लोलुप समाज का शिकार होती रहती हैं।
हालांकि हम सब इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि जब हम किसी चिंगारी को अनदेखा करते हैं तब वह धीरे – धीरे आग का रूप धारण कर लेती है और जब कोई चिंगारी आग बन जाए तो वह बहुत तेजी से फैलने लगती है। आज हमारे देश और समाज में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। महिलाओं के साथ होने वाली छोटी-छोटी छेड़खानियों, बदसलुकियों, अभद्र व्यवहारों को जब हम या आप अनदेखा करने लगते है और सोचते हैं कि जाने देते हैं यह कोई नई बात या बड़ी बात नहीं है और यही वो वक्त होता है जब हम इस चिंगारी को आग बनने को मौका दे बैठते है। जो बलात्कार जैसे जघन्य आग रूपी अपराध को रूप ले कर हमारे सामने आता है और तब हम सिर्फ अफसोस और आरोप प्रत्यारोप के अलावा और कुछ नहीं कर पाते हैं।
ध्यान रहे यह समाज आपका और हमारा है और यह अपराधी भी हमारे समाज में ही पल कर बड़े हो रहे हैं क्यों आप किसी और के भरोसे रहते हैं कि ये हमारा काम नहीं, कोई कुछ गलत करता है तो कौन सा हमारे साथ कर रहा है ऐसी ही बातों को अनदेखा कर समाज से जुड़े रहने की जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ कर हम भी कहीं न कहीं अपराध और अपराधियों को बढ़ावा दे रहे हैं। क्यों किसी सकार के भरोसे रहना क्यों किसी पुलिस के भरोसे रहना समाज में गलत करने पर जब रोक नहीं है तो आप गलत रोकने में क्यों हिचकिचाते है। आज हम जिस भारत में रहे हैं यह ससमुच बहुत अपमानजनक स्थिति है।