2014 में होनेवाले लोकसभा चुनाव से पहले अभी दिल्ली, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में विधानसभा चुनाव जारी है और आने वाले दिनों में कई अन्य राज्यों में चुनाव होगा। देश की मीडिया इस विधानसभा चुनाव को लोकसभा चुनाव का सेमी फाइनल बताने पर तुल हुई है। कई मीडिया घरानों के ओपिनियन पोल में नरेन्द्र मोदी को पहले ही प्रधानमंत्री घोषित किया जा चुका है और अब विधानसभा चुनाव के लिए किये गये ऑपिनियन पोल में यह बताया जा रहा है कि कांग्रेस शासित राज्यों – दिल्ली और राजस्थान में भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में लौट रही है और भाजपा शासित राज्यों – छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में उनकी सरकार को कोई हिला नहीं सकता है क्योंकि उन्होंने इन राज्यों को विकास की पटरी पर लाकर खड़ा कर दिया है।
हालांकि अब चुनाव परिणाम ही बतायेगा की जय किसकी होगी। लेकिन इसे कौन नहीं जानता है कि विगत कई वर्षों से कांग्रेस विधानसभा चुनाव में लगातार पीटती हुई मोहरा साबित हो रही है। सवाल यह है कि आखिर कांग्रेस को कौन हरा रहा है? क्या सचमुच कांग्रेस के दिन लद गये हैं? क्या सही में भाजपा शासित राज्यों में विकास की बायर बह रही है? क्या भाजपा ने लोगों में नई उम्मीद जगायी है? क्या राहुल गांधी में कोई उम्मीद नहीं बची है या मामला कुछ और ही है?
यह कहने की जरूरत नहीं है कि हमारा देश दुनियां का सबसे बड़ा लोकतंत्रिक देश है और कांग्रसे पार्टी देश में सबसे पुरानी पार्टी है या यूं कहें कि भारतीय लोकतंत्र से भी ज्यादा उम्र कांग्रेस पार्टी की है। बावजूद इसके शर्मनाक बात यह है कि पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र काफी कमजोर है, जिसके बारे में कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी भी बार-बार कहते रहे हैं। लेकिन अबतब इसमें कोई सुधार नहीं हो सका है।
हद तो यह है कि इतनी पुरानी पार्टी का कोई भी प्रदेश यूनिट अब भी अपना प्रदेश अध्यक्ष नहीं चुन सकती है एवं चुनाव जीतने के बाद भी चुने कांग्रेसी नेता मिलकर अपना मुख्यमंत्री नहीं चुन सकते हैं और राज्यों से संबंधित कोई बड़ा नीतिगत निर्णय भी पार्टी के नेता नहीं ले सकते हैं। और अंततः कांग्रेस अलाकमान को ही दिल्ली से राज्यों के लिए निर्णय लेना पड़ता है। जब पार्टी में ही लोकतंत्र इतना कमजोर है तो पार्टी कैसे एक साथ खड़ी रह सकती है? लेकिन इसे भी बड़ी बात यह है कि पार्टी के नेताओं को इसे मतलब नहीं है और वे अपना गुटबाजी में व्यस्त रहते हैं। ऐसी स्थिति में कांग्रेस का पतन तय है।
दूसरी बात यह है कि कांग्रेस अबतक पारंपरिक वोटरों के बदौलत ही देश में सबसे ज्यादा समय तक राज करती रही है। चूंकि भारत के आजादी की लड़ाई कांग्रेस नामक संगठन ने लड़ी और देश को आजादी मिली और बाद में यह संगठन राजनीतिक दल का स्वरूप ले लिया। फलस्वरूप, लोग कांग्रेस को वोट देते रहे। लेकिन इसी बीच कांग्रेस पार्टी ने शायद इस गलत फहमी में कैडर नहीं खड़ा किया कि उसके साथ पारंपरिक वोटर हमेशा रहेंगे लेकिन वहीं दूसरी ओर भाजपा ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की मदद से पार्टी के लिए बड़े पैमाने पर कैडर खड़ा किया, जिसके लिए उन्होंने ‘हिन्दी, हिन्दु हिन्दुस्तान’ जैसा साम्प्रदायिक नारों का सहयोग लिया।
इतना ही नहीं कांग्रेस पार्टी ने विकास के नाम पर आदिवासी और दूसरे किसानों को संसाधनहीन बना दिया, जिससे उनकी पारंपरिक वोट खिसक गई और बहुसंख्यक आदिवासी आज अपने दुर्दशा के लिए कांग्रेस पार्टी को ही जिम्मेदार मानते हैं। और वहीं भाजपा ने जब राम मंदिर के बदौलत देश की सत्ता हासिल नहीं कर पायी तो बहुत चतुराई से ‘विकास और साम्प्रदायिकता’ का एक महा गठजोड़ तैयार किया, जिसका मसीहा अब नरेन्द्र मोदी को बनाया गया है। और इस गंठजोड़ को पूंजीपति, हार्डकोर हिन्दु और विकास के लाभूक मध्यवर्ग का समर्थन मिलता दिखाई पड़ता है, जिससे कांग्रेस ने समझने की बड़ी भूल की।
तीसरी बात यह है कि कांग्रेस के अंदर भाई-भतीजावाद की लड़ाई ने ही पार्टी को कमजोर कर दिया है और अगर इसे जल्द से जल्द नहीं निपटाया गया तो कई राज्यों में कांग्रेस गर्त में चला जायेगा। उदाहरण के तौर पर झारखंड के रांची स्थित हटिया विधानसभा सीट पिछले विधानसभा उप-चुनाव से पहले तक कांग्रेस का पारंपरिक सीट हुआ करता था। लेकिन कांग्रेस नेता गोपालनाथ सहदेव की मृत्यु के बाद झारखंड के ताकतवर कांग्रेसी नेता सुबोधकांत सहाय द्वारा जनाधारहीन वाले अपने भाई सुनीलकांत सहाय को टिकट दिलवाने के कारण कांग्रेस अपना पारंपरिक सीट गवां बैठी और आजसू जैसी पार्टी को वह सीट मुफ्त में मिल गई।
इसी तरह छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी अपना बेटा अमित जोगी और पत्नी को टिकट दिलवाने के कारण पार्टी को गर्त में ले गए। पिछला चुनाव में तो यहां तक कहा गया कि अजीत जोगी ने ही अपने पार्टी के सात उम्मीदवारों को हरवाया। यह इसलिए क्योंकि वे छत्तीसगढ़ कांग्रेस में अपना दबदबा बनाकर रखना चाहते हैं इसलिए वे कोई भी तकतवार नेता को उभरने का मौका देते हैं।
चौथी बात यह है कि कांग्रेस पार्टी के अंदर विभिन्न राज्यों में नेतृत्व का दोहरा लड़ाई चल रहा है। झारखंड जैसे राज्यों में पहली लड़ाई आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी नेतृत्व का है। चूंकि झारखंड पहला ऐसा राज्य है जो आदिवासियों के नाम पर बना है इसलिए राज्य का नेतृत्व आदिवासियों के हाथ से छिना नहीं जा सकता है।
यह इसलिए भी क्योंकि आदिवासी लोग कांग्रेस के पारंपरिक वोटर रहे हैं लेकिन संघ परिवार द्वारा आदिवासियों के बीच धर्म के आधार पर फूट डालने और झारखंड आंदोलन की वजह से आदिवासी वोट बैंक कांग्रेस, भाजपा और झारखंडी पार्टियों के बीच बिखर गई, जिसे सबसे ज्यादा हानि कांग्रेस को ही उठानी पड़ी है। ऐसी स्थिति में अगर राज्य का नेतृत्व गैर-आदिवासियों के हाथों में जाने से स्थिति और भी ज्यादा भयावह हो सकती है। लेकिन वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के सवर्ण नेता इस बात को पचा ही नहीं पा रहे हैं कि वे आदिवासी नेताओं के नेतृत्व में आगे बढ़े। इसलिए आदिवासी और गैर-आदिवासी नेताओं के बीच कलह बरकरार रहना तय है।
इतना ही नहीं आदिवासी नेताओं के बीच भी एकता नहीं दिखती है। पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रदीप बालमुचू और वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष सुखदेव उरांव का झगड़ा आम जनता के सामना कई मरतबा खुलकर आ चुकी है। जब प्रदेश के नेताओं के बीच ही एकता नहीं है तो पार्टी कैसे आगे बढ़ सकती है। इसके अलावे कई राज्यों में कांग्रेस के पास ऐसा को करिश्माई नेता भी नहीं है जो अपने दम पर पार्टी को पटरी पर ला सके और नेताओं के बीच चल रहे गुटबाजी को खत्म करते हुए सत्ता तक पहुंचे।
पांचवी बात यह है कि देश के लिए दो महत्वपूर्ण मुद्दा – भ्रष्टाचार, मंहगाई कांग्रेस के शासनकाल में अत्याधिक बढ़ती गई। देश के तीन बड़े अर्थशास्त्री – डा. मनमोहन सिंह, पी. चिदंबरम और मोटेक सिंह अहलुवालिया के शासनकाल में सरकार का एजेंडा सिर्फ और सिर्फ देश की आर्थिक तरक्की रही है। और इस तरक्की को सुनिश्चित करने के लिए तथाकथित लालगलियारा में ऑपरेशन ग्रीनहंट चलाया जा रहा है ताकि इन इलाकों को खाली कराकर पूंजीपतियों के हवाले कर दिया जाये। फलस्वरूप, नक्सलियों ने भी कांग्रेस नेताओं के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है और नेता डर से गांवों में भ्रमण करना छोड़ दिये हैं।
इसी तरह कई बाद वादा करने के बाद भी केन्द्र सरकार मंहगाई को काबू नहीं कर पायी और जरूरत चीजों की कीमत लगातार बढ़ती ही जा रही है। वहीं दूसरी ओर जयराम रमेश जैसे केन्द्रीय नेताओं को भी ग्रासरूट में पार्टी को बढ़ाने की चिंता नहीं है लेकिन वे अपना नाम चमकाने के लगे रहते हैं। जब ये नेता सुदुर इलाकों में पहुंचते हैं तो वहां के स्थानीय नेताओं तक का पता नहीं होता है। कभी-कभी तो उन्हें केन्द्रीय नेताओं से भी मुलाकत करने के लिए मशक्कत करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस की जमीन लगातार घिसकती जा रही है।
केन्द्र में प्रमुख विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी कई राज्यों में चुनाव के बाद ताल ठोकती रहती है कि उसने कांग्रेस को हरा दिया क्योंकि लोग कांग्रेस की शासन से उब चुके हैं। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है बल्कि कांग्रेसी नेता ही अपने पार्टी को हराने में प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं, जिससे भाजपा का रास्ता आसान होता जा रहा है।
वहीं यह भी सही है कि कांग्रेस और भाजपा के बीच ज्यादा फर्क नहीं है। जहां एक तरफ कांग्रेस ‘विकास और धर्मनिरपेक्षता’ को लेकर आगे बढ़ना चाहती है तो वहीं भाजपा ‘विकास और साम्प्रदायिक गंठजोड़’ के बल पर देश की समस्याओं को छूमंतर करने का दावा कर रही है। इन दोनों पार्टियों की आर्थिक नीति एक ही तरह की है, जिसमें पूंजीपतियों को ही फायदा पहुंचता है। बावजूद इसके कांग्रेस का गर्त में जाना देश की धर्मनिरपेक्ष राजनीति और भारतीय संविधान के लिए खतरे की घंटी है। लेकिन क्या कांग्रेस के नेता इसे समझने को तैयार भी हैं?